Supreme Court on Election Commission: सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनाव आयोग के नए आयुक्त के नियुक्ति पर उठाये गए सवाल के कारण चुनाव आयोग की स्वायत्तता और कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठे हैं। इसके बाद राजनीतिक टिप्पणीकारों और राजनीतिक विचारकों के बीच प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्लेटफॉर्म पर बहसें छिड़ गई हैं।
ग़ौरतलब हो कि जस्टिस के एम जोसेफ़ की अगुआई में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ नव-नियुक्त चुनाव आयुक्त (EC) अरुण गोयल (Appoitnment of Arun goyalके नियुक्ति से संबंधित एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रही है। इसी दौरान न्याय-पीठ ने सरकार और चुनाव आयोग से कई गंभीर टिप्पणियों के जरिये प्रश्रचिन्ह खड़े किये हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, “वह टी एन शेषन जैसा चुनाव आयुक्त चाहती है जो जरूरत पड़े तो प्रधानमंत्री से भी कड़े सवाल पूछ सके। ऐसे आयुक्त कभी कभार ही आते हैं।”
संविधान पीठ ने सरकार के वकील अटॉर्नी जनरल (AG) आर. वेंकटरमनी से पूछा कि, “हम जानना चाहते हैं कि आप नियुक्ति कैसे करते हैं? आप कैसे कोई नाम तय करते हैं? हम जानना चाहते हैं कि कार्यपालिका काम करती है तो नाम कैसे उभर कर आता है? हम चकित हैं।”
Justice Joseph – We are really concerned by the structure. Come to your submissions. It says based on the list maintained, there is 4 names that you have recommended. I want to understand that out of vast reservoir of names, how do you actually select a name. Let me be blunt.
— Live Law (@LiveLawIndia) November 24, 2022
सुप्रीम कोर्ट ने AG से ऐसे और भी कई तीखे सवाल पूछे और तल्ख टिप्पणियाँ की। सुनवाई कब दौरान सबसे महत्वपूर्ण बात जो पीठ ने कही, कि “हम मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) की नियुक्ति के लिए परामर्श प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को शामिल करने से आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी।”
सुप्रीम कोर्ट के इन टिप्पणियों के बाद यह सवाल उठने लगा है कि क्या यह न्यायालय की “अति न्यायिक सक्रियता (Extreme Judicial Activism)” है? वर्तमान केंद्र सरकार पहले ही अपने बयानों में ऐसे सवाल उठाते रही है।
कानून मंत्री किरण रिजिजू का हालिया बयान अभी चर्चा में था जिसमें उन्होंने कहा था कि, “कार्यपालिका (Executive) और विधायिका (Legislature) अपने कर्तव्यों से बंधे हैं और न्यायपालिका (Judiciary) उन्हें सुधारती है। लेकिन जब न्यायपालिका भटक जाती है तो उन्हें सुधारने का कोई उपाय नहीं है।”
चुनाव आयोग (EC) के स्वायत्तता पर सवाल
संविधान ने चुनाव आयोग को निर्भीक व स्वतंत्र संस्था बनाने के लिए तमाम शक्तियों से लबरेज किया है कि यह देश के भीतर होने वाले सभी चुनावों पर मजबूत पकड़ व नज़र बनाये रख सके।
सुप्रीम कोर्ट ने भी आयोग की इन शक्तियों को समय समय पर सही ठहराया है। संविधान की धारा 324 (Article 324) को चुनाव आयोग की सभी शक्तियों का स्त्रोत बताते हुए बार-बार यह स्थापित किया है कि मुक्त और स्वच्छ (Free & Fair) चुनाव संविधान के मूल-व्यवस्था (Basic Structure of the constitution) का हिस्सा है।
इन तमाम शक्तियों और सुप्रीम कोर्ट के समर्थन के बदले देश का हर नागरिक आयोग (EC) से यही अपेक्षा रखता है कि इसके आयुक्त (CEC & ECs) निष्पक्ष और निर्भीक रहे। पर क्या यह जमीनी हकीकत है?
अभी नव-नियुक्त चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के मामले में कोर्ट ने खुद माना है कि
“जमीनी स्थिति चिन्ताजनक है। हम जानते है कि सत्ता पक्ष की ओर से विरोध होगा और हमें मौजूदा व्यवस्था से आगे नहीं जाने दिया जाएगा।”
चुनाव आयोग (EC) की वह कमियां जिन पर उठते रहे हैं सवाल
यह सच है कि भारत के निर्वाचन आयोग ने आज़ादी से लेकर आज तक बेहतरीन काम किये हैं जिसकी मिसाल न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया भर में दी जाती है। इतिहास में कई मुख्य चुनाव आयुक्तों ने निर्भीक व स्वतंत्र फैसले लेकर कई उदाहरण पेश किए हैं। वहीं एक सच यह भी है कि चुनाव आयोग के भीतर भी कुछ खामियां हैं जो इसके सफलता के आगे अक्सर छिपी रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इन्हीं कमियों में से एक चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर टिप्पणी की है। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति जो भी सरकार सत्ता में होती है, बिना कोई बाहरी हस्तक्षेप के अपने अनुसार अनुमोदित करती है।
इन नियुक्तियों को लेकर लंबे समय से यह मांग उठती रही है कि इसे पार्लियामेंट्री स्क्रूटिनी कमिटी तथा अन्य विशेष समितियों से एक वृहत विचार-विमर्श के बाद किया जाए। यही प्रणाली दुनिया में कई अन्य बड़े देशों में अपनाया जाता रहा है।
यह व्यवस्था जिसे लेकर मांग होती रही है, वह बहुत साधारण है:- एक कॉलेजियम बने जिसमें प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शामिल हो।
यह कोई नई वव्यवस्था नहीं है। भारत में केंद्रीय सतर्कता आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति इसी व्यवस्था से की जाती है। मुख्य सूचना आयुक्त, CBI डायरेक्टर आदि की नियुक्ति भी इसी कॉलेजियम सिस्टम से की जाती है।
अपने 254वें रिपोर्ट में लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने भी कॉलेजियम सिस्टम की वकालत की थी। राजनीतिक धुरंधर लाल कृष्ण आडवाणी सहित बी बी टंडन, एन गोपालस्वामी आदि कई मुख्य चुनाव आयुक्तों ने भी इस सिस्टम की मांग की थी।
लेकिन तमाम सत्ताधारी पार्टी ने अभी तक इस सुझाव को ठंडे बस्ते में रखा है। इसके पीछे की वजह स्पष्ट है कि सरकार में जो भी पार्टी हो, वह अपनी शक्ति हाँथ से जाने नहीं देना चाहती।
इस व्यवस्था को अपनाने से चुनाव आयोग पर जो समय समय पर आरोप लगते रहे हैं कि यह सरकार के प्रति विशेष झुकाव रखती है, ऐसे आरोप भी नही लगेंगे साथ ही उनकी नियुक्ति में विपक्ष को भी अपनी बात रखने का मौका मिलेगा।
दूसरा, संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग की व्यवस्था में आयुक्तों का मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) के रूप में पदोन्नति के लिए क्या मापदंड होंगे; जिसके कारण हमेशा ही यह खतरा बना रहता है कि सरकार या सत्ताधारी पार्टी आयोग या आयुक्तों पर दवाब बना सकती है।
चूंकि 3 सदस्यों के आयोग में सभी आयुक्तों के मतों की कीमत समान होती है। किसी मुद्दे पर बहुमत द्वारा फैसला किया जाता है। ऐसे में मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) के मत को सरकार नियंत्रित कर सकती है और अपने पक्ष में फैसला करवा सकती है।
तीसरी बात यह कि चुनाव आयुक्तों के नियुक्ति के साथ साथ उनके इस पद से निष्कासन को लेकर भी आयोग में सुधार की आवश्यकता है।
वर्तमान में सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) को ही यह सुरक्षा उपलब्ध है कि उन्हें बस महाभियोग (Impeachment) के रास्ते हटाया जा सकता है। CEC के अलावे अन्य आयुक्तों को यह सुरक्षा नहीं दी गयी है। इससे सत्ता में बैठे सरकार को एक और मौका मिल सकता है कि वह चुनाव आयोग के फैसले को प्रभावित कर सकती है।
यहाँ एक बात स्पष्ट करना बहुत जरूरी है कि संविधान ने यह सुरक्षा एक मात्र आयुक्त ( सिर्फ CEC) को इसलिए दिया है क्योंकि शुरुआती चुनाव आयोग में सिर्फ एक ही आयुक्त होते थे। उसके बाद 1993 में चुनाव आयोग में 2 अन्य आयुक्तों को शामिल किया गया लेकिन उन्हें यह सुरक्षा नही दी गई। जाहिर है कि अन्य आयुक्तों को भी यह सुरक्षा देने की आवश्यकता है।
कुल मिलाकर, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण संस्था (चुनाव आयोग) में नियुक्तियों को लेकर शायद सबसे ज्यादा खामियां है। इन कमियों को जल्द से जल्द दूर करने की आवश्यकता है।
जब अन्य कई संस्थाओं में कॉलेजियम व्यवस्था अच्छा काम कर रही है तो फिर चुनाव-आयोग को इस से कतई परहेज नहीं होनी चाहिए। कई देशों में तो चुनाव आयोग की नियुक्ति लाइव TV पर इंटरव्यू के बाद की जाती है, फिर कॉलेजियम से क्या परहेज़ रखना।
क्या यह सुप्रीम कोर्ट का Extreme Judicial Activism है?
जब से एक संवैधानिक संस्था उच्चतम न्यायालय ने दूसरे संवैधानिक संस्था के भीतर नियुक्ति प्रक्रिया पर तीखे सवाल किये है, कई मीडिया रिपोर्टों में इसे न्यायालय की अति न्यायिक सक्रियता (Extra Judicial Activism) के दृष्टिकोण से पेश किया गया है।
लोग सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति वाले ही कॉलेजियम व्यवस्था पर ही चोट कर रहे हैं कि जिस संस्था (The SC) के ऊपर खुद ही जजों की नियुक्ति को लेकर सवाल उठते रहे हैं, वह दूसरे संस्था पर कैसे सवाल कर रही है?
मेरा मानना है कि लोग यह भूल जा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को एक संस्था मात्र नहीं बल्कि भारत मे संविधान और संवैधानिक मूल्यों का अभिभावक (Guardian of Constitution) का दर्जा प्राप्त है। इसे संविधान के आखिरी व्याख्याता (Last Interpreter of Constitution) कहा जाता है।
ऐसे में देश के उच्चतम न्यायालय द्वारा चुनाव आयोग के भीतर अगर कोई संवैधानिक खामियां हैं तो उसे उजागर करने और बदलाव का रास्ता दिखाने का काम भी सुप्रीम कोर्ट का ही है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ यही कर रही है, जो उसके अधिकार-क्षेत्र में है और उसकी जिम्मेदारी भी बनती है। मेरी नज़र में तो यह न्यायालय की “अति न्यायिक सक्रियता (Extra Judicial Activism)” नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के अपने कॉलेजियम सिस्टम को लेकर विवाद चुनाव आयोग की नियुक्तियों के विवाद से अलहदा है। सुप्रीम कोर्ट के भी कॉलेजियम व्यवस्था में भी सुधार की गुंजाइश है। हमें यह समझना होगा।
मेरा तो मानना है कि सुप्रीम कोर्ट को चुनाव-आयोग से जुड़े एक और महत्वपूर्ण मामला “इलेक्टोरल बॉन्ड” व्यवस्था जिस से राजनीतिक दलों को चंदा मिलता है, उसे भी जल्दी से जल्दी देखना चाहिए।