Supreme Court’s Verdict on Appointment of CEC & EC: पिछले कुछ वर्षों से भारत के चुनावों में चुनाव आयोग (Election Commission of India ECI) की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं। कभी चुनावों में EVM को लेकर तो कभी चुनाव आयोग (ECI) के कुछ निर्णयों को लेकर…. हमेशा ही चुनाव आयोग (ECI) की निष्पक्षता और पारदर्शिता विपक्ष के लेंस पर रही है।
इन आरोपों के पीछे की वजह यह कि जिन अधिकारियों के ऊपर देश में लोकतंत्र के प्रति आस्था और विश्वास को सुनिश्चित करने वाली सबसे महत्वपूर्ण संस्थाओं में से एक चुनाव आयोग को चलाने की जिम्मेदारी होती है, उनकी नियुक्त सत्ता में आसीन सरकार, चाहे वह किस भी दल की हो, उसके इशारों पर होती रही हैं।
ऐसे में हमेशा यह सवाल रहा है कि क्या यह संभव नहीं कि मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner or CEC) या अन्य चुनाव आयुक्त (Election Commissioners – ECs) जिनकी नियुक्ति सरकार के कहने पर ही हुई है, उसी सरकार के हाँथ की कठपुतली बन कर रह जाए? क्या सरकार के कहने पर ही राष्ट्रपति के द्वारा ही पदासीन हुए इन अधिकारियों में इतनी निष्पक्षता हो सकती है जब कोई निर्णय सरकार के ख़िलाफ़ ही लेना पड़े?
इन तमाम सवालों को लेकर पिछले कई वर्षों में आवाजें मुखर होती रही है। वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) के अधीन याचिकाएं लंबित पड़ी रहीं थीं।
इसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त(CEC) व चुनाव आयुक्तों (ECs) की नियुक्ति अब सरकार की पसंद से नहीं, बल्कि इनकी नियुक्तियाँ एक कमिटी (कॉलेजियम भी कह सकते हैं) जिसमें प्रधानमंत्री (PM), मुख्य न्यायाधीश (CJI), और नेता प्रतिपक्ष (लोकसभा-LOP) या सबसे बड़ी विपक्षी दल के नेता शामिल होंगे, के सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा किया जाएगा।
अभी तक कैसे होती थीं नियुक्तियां?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के तहत यह प्रावधान है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संसद द्वारा बनाये गए नियमों के अधीन किया जाएगा।
विडंबना यह है कि संसद ने कभी भी आज तक चुनाव आयुक्त (CEC & ECs) की नियुक्ति के संदर्भ में कोई नियमावली या कानून बनाये ही नहीं है। लिहाज़ा अभी तक चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्तियों को लेकर केंद्र सरकार राष्ट्रपति को नाम भेजती रही है, उसके सलाह पर राष्ट्रपति चुनाव आयोग के आयुक्त को नियुक्त करते रहें है।
यह एक तरह से परंपरा मान लिया गया। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, केंद्र की सरकार ने इसकी पहल नहीं की कि संसद में एक नियम पास किया जाए जिसके आधार पर चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति की जा सके।
यह एक बड़ी वजह है जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एक वैकल्पिक व्यवस्था दी है जिस से चुनाव आयोग की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर उठे सवालों को एक हद्द तक सुलझाया जा सके।
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि,
एक व्यक्ति, जो नियुक्ति प्रदान करने वाले के प्रति श्रद्धा-भाव रखता हो या उसका अहसानमंद हो, वह सम्पूर्ण राष्ट्र को पीछे खींचता है और चुनावी प्रक्रिया जैसे लोकतंत्र की नींव में उसका कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि उसकी नियुक्ति इस तरह से हो कि अगर “यस-मैन (YES MAN)” जैसे आरोपों की भी कोई जगह नही होनी चाहिए।
ग़ौरतलब है कि यह कोई पहली संस्था नही है जिसके आयुक्तों की नियुक्ति PM, CJI और प्रमुख विपक्षी दल के नेता (Leader of Opposition- LoP) को मिलाकर बने कमिटी करेगी। केंद्रीय सूचना आयोग (Central Information Commission), केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC), CBI के निदेशक (Director) आदि कई स्थायी आयोगों के आयुक्तों/प्रमुखों की नियुक्ति हेतू पहले ही यही प्रक्रिया अपनाई जाती है।
न्यायिक-सक्रियता या फिर विधायिका के शक्ति में हस्तक्षेप?
एक तरफ़ जहाँ चुनाव आयोग के आयुक्तों (CEC & ECs) की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को न्यायालय की न्यायिक-सक्रियता (Judicial Activism) मानकर स्वागत किया जा रहा है; वहीं दूसरी ओर इसकी आलोचना भी की जा रही है।
आलोचना यह कि अगर इस मामले में कानून बनाने का अधिकार संसद को है तो सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने कॉलेजियम या कमिटी द्वारा आयुक्तों की नियुक्ति की बात कर के शायद विधायिका की शक्तियों में हस्तक्षेप किया है।
परंतु सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को समग्रता से देखने पर आलोचना का यह तर्क कमजोर मालूम पड़ता है। आखिर संसद ने आज संविधान लागू होने के 70 से भी ज्यादा साल के बाद भी इस विषय पर कोई कानून क्यों नहीं बनाया? आखिर अपने पसंद के चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के पीछे सत्ता या सरकार की क्या मंशा रही है?
दूसरा अभी हालिया निर्णय में भी सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि वह चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करने के लिए उसके अधिकारियों की नियुक्ति PM, CJI और LOP की कमिटी तब तक ही करेगी जब तक संसद कोई कानून न बना ले।
इसका मतलब यह हुआ कि न्यायालय ने विधायिका के अधिकारो को सुनिश्चित करते हुए यह फैसला सुनाया है, जिसे एक वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर देखा जाए। ऐसे में यह कहना सर्वथा अनुचित है कि न्यायालय ने विधायिका की शक्तियों का हनन किया है या फिर यह फैसला न्यायिक अतिक्रमण है।
असल मे इस फैसले को इस चश्मे से देखने की आवश्यकता है कि जिस काम को देश की संसद को करना चाहिए था, लेकिन राजनीतिक नफे-नुकसान के खेल में सत्ता में बैठी हर सरकार ने अपनी सहूलियत के हिसाब से अपनी पसंद-नापसंद को आजमाया। आखिरकार वर्षों के इंतज़ार के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने एक रास्ता दिखाया जिसका स्वागत होना चाहिए।
वर्षो पुरानी थी स्वंतत्र चुनाव आयोग की मांग
चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र संस्था की मांग तक़रीबन 50 साल पुरानी है। 1975 में बनी जस्टिस तारकुंडे कमिटी, 1990 की दिनेश गोस्वामी कमिटी, 2007 की द्वितीय प्रशासनिक सुधार कमिटी (2nd ARC), और लॉ कमीशन द्वारा 2015 में जारी 255वां रिपोर्ट- इन सभी के द्वारा चुनाव आयोग के अधिकारियों की नियुक्ति हेतू ऐसी ही किसी कॉलेजियम या कमिटी के निर्माण करने की बात की गई है।
असल मे भारत जैसे लोकतंत्र के लिए चुनाव एक सबसे मूल प्रक्रिया है जिसके सहारे चुनी हुई सरकार देश की नीति-निर्धारण करती है। जाहिर है चुनावों को निष्पक्ष और पूरी पारदर्शिता के साथ करवाना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है। इसी निष्पक्षता और पारदर्शिता को और विश्वाससम्मत बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्वागत योग्य है।