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    गुमनामी बाबा सुभाष चन्द्र बोस

    यूपी के फैजाबाद शहर के सिविल लाइंस स्थित ‘राम भवन’ में रहने वाले गुमनामी बाबा या फिर भगवनजी के नाम से प्रसिद्ध बुजुर्ग शख्स को लोग आज भी सुभाष चंद्र बोस ही मानते हैं। बात 16 सितंबर 1985 की है, जब गुमनामी बाबा की मौत हो जाती है और ठीक दो दिन बाद बहुत ही गोपनीय तरीके से इनका दाह संस्कार कर दिया जाता है।

    जीवनभर गुमनामी बाबा की जिंदगी रहस्यमयी रही थी लेकिन जब उनकी मौत के बाद उनके कमरे की तलाशी ली गई तो कुछ हैरान करने वाले दस्तावेजों की बरामदगी हुई। कमरे में मिले दस्तावेजों के आधार पर यह कयास लगाया जाता है कि गुमनामी बाबा ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। बताया जाता है कि गुमनामी बाबा सत्तर के दशक की शुरुआत में फैजाबाद आए थे। गुमनामी कहां से आए थे, इसकी सटीक जानकारी किसी को नहीं पता।

    फैजाबाद में गुमनामी बाबा ने बदले कई ठिकाने

    • स्थानीय लोगों के अनुसार गुमनामी बाबा सबसे पहले अयोध्या की लाल कोठी में किराएदार के रूप में रहे।
    • इसके बाद वे कुछ समय के लिए बस्ती शहर रहने के लिए चले गए, लेकिन मन नहीं लगने के कारण वापस अयोध्या चले आए।
    • गुमनामी बाबा कुछ सालों तक रामकिशोर पंडा के घर भी रहे।
    • इसके बाद भगवनजी यानि गुमनामी ने अपना ठिकाना बदल लिया और अयोध्या सब्जी मंडी स्थित लखनऊवा हाता रहने लगे।
    • अपने अंत समय में गुमनामी बाबा फैजाबाद के रामभवन में पिछवाड़े के दो कमरों में रहने लगे। यही इनकी मौत हुई। बताया जाता है कि गुमनामी बाबा इन सभी जगहों पर बेहद ही गोपनीय तरीके से रहे।

    गुमानामी बाबा एक अजीबो-गरीब शख्सियत

    • गुमनामी बाबा ने अपनी गोपनीयता बरकरार रखी।
    • गुमनामी बाबा के पास दुनियाभर के फेसम अखबार, मैगजीन और साहित्य, सिगरेट और शराबें आखिर कौन लेकर आता था?
    • स्थानीय लोगों तथा गुमनामी बाबा के नजदीकी लोगों का कहना है कि दुर्गापूजा या फिर 23 जनवरी को गुमनामी बाबा से मिलने कुछ लोग आते थे, उस वक्त गुमनामी बाबा से कोई नहीं मिल सकता था।
    • गुमनामी बाबा अयोध्या और फैजाबाद में कहां से आए इसकी जानकारी किसी को नहीं है।
    • यही नहीं गुमनामी बाबा की अग्रेंजी और जर्मन भाषा फर्राटेदार तरीके से बोलते थे।
    • गुमनामी बाबा की मौत के बाद ही उनके जिंदा होने के दावे सदैव के लिए समाप्त हो गए। उपरोक्त प्रश्नचिन्ह इतना तो साबित करते ही हैं कि गुमनामी बाबा कोई साधारण नहीं वरन असाधारण शख्सियत थे।

    गुमनामी के बक्से से मिली परिजनों की तस्वीरें

    गुमनामी बाबा के कमरे से मिले ऐसे दस्तावेज

    मोदी सरकार ने जिन फाइलों को सार्वजनिक किया है, उनमें से एक फाइल से पता चलता है कि सुभाष चंद्र बोस ने 18 अगस्त 1945 के बाद तीन रेडियो ब्रॉडकास्ट किए। ऐसे में शक की सुई गुमनामी बाबा पर जाती है कि कहीं वही तो सुभाष चंद्र बोस तो नहीं थे।

    • सुभाष चंद्र बोस की फैमिली फोटो

    फोटो की उपरी लाइन में (बाएं से दाएं) सुधीरचंद्र बोस, शरतचंद्र बोस, सुनीलचंद्र और सुभाषचंद्र बोस हैं।
    बीच की लाइन में सुभाष चंद्र बोस के ​पि‍ता जानकीनाथ बोस, मां प्रभावती देवी और तीन बहनें हैं। इसके अलावा जानकीनाथ बोस पोते-पोतियां मौजूद हैं।

    • जरूरी पत्र

    गुमनामी बाबा के कमरे से मिले दस्तावेज में कुछ पत्र और टेलिग्राम भी शामिल हैं, जिनसे जानकारी मिलती है कि 23 जनवरी और दुर्गापूजा के दिन गुमनामाी से मिलने के लिए आजाद हिंद फौज के कमांडर ​पवित्र मोहन राय उनसे मिलने के लिए आए थे। पवित्र मोहन राय में एक पत्र में कभी गुमनामी बाबा को स्वामी जी तो भी कभी भगवनजी नाम से संबोधित किया है। कुछ न्यूज पेपर्स भी मिले हैं, जिनमें नेताजी से जुड़ी खबरें प्रकाशित हैं।

    गुमनामी बाबी के बक्से से मिले सामान

    • अन्य सामान

    गुमनामी बाबा के दूसरे बक्से से आजा​द हिंद फौज की यूनीफार्म, रोलेक्स,ओमेगा और क्रोनोमीटर की तीन घड़ियां तथा तीन सिगार केश भी मिले हैं। एक वैसा ही गोल फ्रेम का चश्मा भी मिला है जैसा सुभाष चंद्र बोस पहना करते थे। एक झोले से बांग्ला और अंग्रेजी में लिखी 8-10 साहित्य की पुस्तकें भी मिली हैं।

    राम भवन के मालिक शक्ति सिंह का कहना

    जब गुमनामी बाबा जब बीमार थे तब कुछ लोग बड़े ही गोपनीय तरीके से उनसे मिलने आते थे, कुछ लोग देर रात को कार से भी आते थे और सुबह होने से पहले ही चले जाते थे। गुमनामी बाबा किसी के सामने कभी नहीं आते थे और पर्दे के पीछे से ही बात करते थे। गुमनामी बाबा हिंदी, बांग्ला, जर्मन और अंग्रेजी भाषा पर एकाधिकार था। शक्ति सिंह कहना है कि गुमनामी बाबा दो साल तक रामभवन में रहे लेकिन मैं उन्हें ठीक ढंग से देख नहीं पाया।

    गुमनामी बाबा की समाधि

    कहते हैं गुमनामी बाबा के पार्थिव शरीर को फौज व प्रशासन के ​शीर्ष अधिकारियों की मौजूदगी में गुफ्तार घाट के कंपनी गार्डेन के पास अंतिम संस्कार कर दिया गया। इस सैन्य संरक्षित क्षेत्र में किसी भी साधारण शख्स के अंतिम संस्कार की कल्पना करना तक बेमानी है। बाद में इसी जगह उनकी समाधि बनवाई गई है। इसके बाद इस सैन्य क्षेत्र में आज तक किसी का अंतिम संस्कार नहीं हुआ।

    गुमनामी बाबा ही वास्तव में सुभाषचंद्र बोस थे, इस मामले को जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ले जाया गया तब लखनऊ बेंच ने हैरानी जताते हुए कहा कि भारत सरकार ने जापान के रैंकोजी में मंदिर रखी तथाकथित नेताजी की अस्थियों को अभी तक डीएनए टेस्ट तक क्यों नहीं कराया। इस प्रकार इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में नेताजी के मौत का रहस्य केवल एक प्रश्नचिन्ह बनकर रह गया है। नेताजी की मौत कब और कैसे हुई थी, इसका पदार्फाश कैसे होगा यह अभी भविष्य के गर्त में है।