जैसे-जैसे समय बीत रहा है गुजरात विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी सरगर्मियां बढ़ती जा रही है। पिछले 2 दशकों से गुजरात की सत्ता पर काबिज भाजपा जातीय असंतोष का सामना कर रही हैं वहीं कांग्रेस अपना सियासी वनवास खत्म करने की जद्दोजहद में जुटी हुई है। गुजरात राज्यसभा चुनावों में अहमद पटेल को मिली जीत ने शंकर सिंह वाघेला की बगावत के बाद बैकफुट पर नजर आ रही कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया था। गुजरात विधानसभा चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के धुआँधार प्रचार अभियान ने कांग्रेस के अंदर नई जान फूँक दी। पाटीदार, ओबीसी और दलित आन्दोलन ने सत्ताधारी भाजपा सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दी थी। अब भाजपा इससे निपटने के लिए एक-एक कदम संभाल कर रख रही है।
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गुजरात में भाजपा इस विधानसभा चुनावों में पिछले 2 दशकों की सबसे मुश्किल चुनौती का सामना कर रही है। भाजपा को अपना गढ़ बचाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। भाजपा की गुजरात राज्य इकाई उम्मीदवारों के चयन के लिए आज गाँधीनगर में बैठक कर रही है। इस बैठक में गुजरात भाजपा के सभी पर्यवेक्षक शामिल होंगे। भाजपा ने विधानसभा चुनावों के मद्देनजर गुजरात में हर जिले के लिए 3 पर्यवेक्षक नियुक्त किए थे। भाजपा की गुजरात इकाई राज्य की सभी 182 विधानसभा सीटों पर 2-3 संभावित उम्मीदवारों को चुनेगी। इसके बाद इस सूची को दिल्ली स्थित भाजपा कार्यालय 11 अशोक मार्ग भेजा जाएगा। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह उम्मीदवारों की अंतिम सूची तय करेंगे।
चुनावी तारीखों की घोषणा पर चुनाव आयोग ने तोड़ी चुप्पी
अब तक गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनावी तिथियों की घोषणा एक साथ होती आई थी मगर इस बार चुनाव आयोग ने परम्परा तोड़ते हुए अकेले हिमाचल प्रदेश में चुनावी तिथियों की घोषणा कर दी। इस वजह से कांग्रेस ने केंद्र की सत्ताधारी मोदी सरकार पर निशाना साधा था और चुनाव आयोग पर दबाव डालने का आरोप लगाया था। चुनाव आयोग ने पहली बार इस मामले पर अपनी चुप्पी तोड़ी है। चुनाव आयुक्त ओ पी रावत ने कहा कि चुनाव आयोग को पता था कि तारीखों का ऐलान ना करने पर आलोचना होगी, लेकिन आयोग इसी के साथ आगे बढ़ेगा। चुनाव आयुक्त ने कहा, “किसी तरह की अव्यवस्था न फैले इसलिए गुजरात चुनाव की तारीखों का ऐलान नहीं किया गया है। किसी अन्य विकल्प पर विचार करने का वक्त नहीं है। अगर हमारे पास समय होता, तो शायद हम दूसरे विकल्पों पर विचार करते।”
गुजरात बचाने उतरे मोदी-शाह
वर्ष के अंत तक गुजरात में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। दशकों से भाजपा के गढ़ रहे गुजरात में अब भाजपा का सिंहासन डोलता नजर आ रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के दिल्ली चले जाने के बाद गुजरात की राजनीति पर भाजपा की पकड़ कमजोर हुई है। बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने के लिए भाजपा के पास अब नरेंद्र मोदी जैसा लोकप्रिय और सशक्त चेहरा नहीं है। पिछले 15 सालों में यह पहली बार है जब भाजपा नरेंद्र मोदी की अगुवाई के बिना गुजरात विधानसभा चुनावों में उतर रही है। यही वजह है कि भाजपा इन चुनावों को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरत रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह लगातार गुजरात का दौरा कर रहे हैं और गुजरात बचाने के लिए हरसम्भव प्रयास कर रहे हैं।
गुजरात भाजपा के समक्ष एक सशक्त चेहरे की कमी ही अकेली चुनौती नहीं है। पाटीदार आन्दोलन, दलित आन्दोलन, ओबीसी आन्दोलन, किसान आन्दोलन और सरकार विरोधी लहर आज गुजरात में भाजपा के समक्ष बड़ी चुनौती बनकर खड़े हैं। भाजपा आलाकमान इन सभी चुनौतियों से निपटने की पुरजोर कोशिश कर रहा है पर कहीं ना कहीं यह नाकाफी साबित हो रहा है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी के टर्नओवर में हुए 16,000 गुना इजाफे का मामला भी भाजपा की मुश्किलें बढ़ा रहा है। गुजरात सरकार जातीय आन्दोलन के अगुआ नेताओं को मनाने की हरसंभव कोशिश कर रही है पर अब तक उसे कोई खास सफलता मिलती नहीं दिख रही है। शायद यही वजह है कि अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद गुजरात बचाने के लिए कूद पड़े हैं।
सशक्त चेहरे की कमी से जूझ रही है गुजरात भाजपा
पिछले 3 सालों में गुजरात को 3 मुख्यमंत्री मिले हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आंनदीबेन पटेल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी सँभाली थी और उनके बाद विजय रुपाणी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। नरेंद्र मोदी के बाद अमित शाह ही ऐसे नेता थे जो गुजरात भाजपा में दमखम रखते थे। राजनाथ सिंह ने गृह मंत्री बनने पर भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और नरेंद्र मोदी के विश्वासपात्र अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष चुने गए। गुजरात को आनंदीबेन पटेल के हाथों में सौंपकर भाजपा ने महिला सशक्तीकरण के नारे को बुलंद करने की कोशिश की। आनंदीबेन पटेल गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी। भाजपा ने उनको कमान सौंपकर अपने परंपरागत वोटर पाटीदार समाज को साधने का प्रयास भी किया। आंनदीबेन पटेल बतौर मुख्यमंत्री अपने कार्यकाल में लोकप्रिय नहीं रही थी। सरकार की गिरती लोकप्रियता के मद्देनजर विजय रुपाणी को गुजरात की कमान सौंपी गई थी।
दरअसल नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद गुजरात भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं था जो पार्टी को अपने कन्धों पर आगे ले जा सके। नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में किसी भी अन्य भाजपा नेता को इतनी लोकप्रियता ही नहीं मिली कि वह पुरे सूबे का प्रतिनिधित्व कर सके। गुजरात के नाम पर लोगों के जेहन में सिर्फ नरेंद्र मोदी का नाम आता था। अमित शाह के राज्यसभा जाने के बाद अब गुजरात भाजपा की स्थिति भी गुजरात कांग्रेस जैसी हो गई है। गुजरात में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला भाजपा को बैकफुट पर ले गया था। विजय रुपाणी भी अपने कार्यकाल में जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके हैं। ऐसे में भाजपा को नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरे पर वोट तो मिल जाएंगे पर सवाल यह है कि क्या राज्य को फिर एक बार नरेंद्र मोदी जैसा करिश्माई नेतृत्व मिल सकेगा?
सरकार विरोधी लहर से जूझ रही है गुजरात भाजपा
पिछले 2 सालों से गुजरात में सरकार विरोधी लहर दिखाई दे रही है। समाज का हर वर्ग किसी ना किसी मुद्दे को आधार बनाकर सरकार के खिलाफ सड़क पर उतर चुका है। भाजपा पिछले 2 दशकों से गुजरात की सत्ता पर काबिज है। इतने लम्बे समय से सत्तासीन रहने की वजह से गुजरात के लोगों में भाजपा के प्रति नाराजगी बढ़ी है। हालाँकि भाजपा के शासनकाल में गुजरात ने बहुत तरक्की की है और वह आज देश के समृद्ध राज्यों की सूची में अग्रणी स्थान पर काबिज है। 2014 लोकसभा चुनावों के वक्त ऐसा ही कुछ हुआ था जब पूरे देश में सत्ता विरोधी लहर चल रही थी। तब भाजपा प्रचण्ड बहुमत से सत्ता में आई थी। परिवर्तन समय की मांग है और शायद गुजरात की जनता अब परिवर्तन चाहती है।