पूरे देश में चर्चा का विषय बने गुजरात विधानसभा चुनाव में पहले चरण का मतदान हो चुका है। बीते 9 दिसंबर को हुए पहले चरण के चुनाव में सौराष्ट्र, कच्छ और दक्षिण गुजरात के 19 जिलों की 89 विधानसभा सीटों के लिए मतदान हुआ। पहले चरण के चुनाव नतीजे गुजरात की सियासत में काफी अहम भूमिका निभाएंगे क्योंकि जिन 89 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए वो पाटीदार बेल्ट के अन्तर्गत आती हैं। गुजरात में अगर अब तक के चुनाव प्रचार पर नजर डालें तो कांग्रेस का रुख आक्रामक नजर आता है। भाजपा अपने सबसे मजबूत दुर्ग कहे जाने वाले गुजरात में बचाव की मुद्रा में नजर आई है। भाजपा कहीं आन्दोलनरत जातियों को मना रही है तो कहीं नाराज व्यापारियों को। अब तक आसानी से गुजरात जीतने वाली भाजपा के लिए इस बार मैदान फतह कर पाना मुश्किल नजर आ रहा है।
गुजरात में भाजपा के इस बचाव की रणनीति अपनाने के पीछे कई कारण है। भाजपा का रुख नरम पड़ने का सबसे बड़ा कारण है राज्य में चल रहा जातीय आन्दोलन। पहले पाटीदार फिर ओबीसी और फिर दलित आन्दोलन की वजह से गुजरात की सत्ताधारी भाजपा सरकार बैकफुट पर चल रही थी। सूबे में 2 दशक से सियासी वनवास झेल रही कांग्रेस ने सही मौके पर भाजपा सरकार के खिलाफ आन्दोलनरत जातियों के शीर्ष नेताओं का समर्थन हासिल कर लिया और गुजरात के सियासी माहौल को अपने पक्ष में कर लिया। पिछले वर्ष दीवाली के बाद हुई नोटबंदी और जुलाई में लगे जीएसटी की वजह से गुजरात के व्यापारी वर्ग में भी केंद्र के सत्ताधारी दल भाजपा के खिलाफ खासी नाराजगी थी। मुख्यमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी जैसा लोकप्रिय और सशक्त चेहरा ना होना भी भाजपा का कमजोर बिंदु बनकर उभरा।
गुजरात की सत्ताधारी भाजपा सरकार के खिलाफ आन्दोलनरत 3 जातियां राज्य में भाजपा के गले का फांस बन गई हैं। एक नजर इन जातीय आन्दोलनों की वजह से भाजपा के खिलाफ जा रहे सियासी बिंदुओं पर :
– पाटीदार
गुजरात की सत्ता तक पहुँचने की अहम सीढ़ी माना जाने वाला पाटीदार समाज 80 के दशक में भाजपा के पक्ष में आना शुरू हुआ। इससे पूर्व पाटीदार कांग्रेस के समर्थक थे। पाटीदार समाज को भाजपा की तरफ मिलाने में वरिष्ठ भाजपा नेता और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल ने अहम भूमिका निभाई थी। 80 के दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के “गरीबी हटाओ” के नारे और गुजरात के जातिगत समीकरणों को को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने खाम गठजोड़ (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) पर अपना ध्यान केन्द्रित कर लिया जिससे पाटीदार समाज नाराज हो गया। केशुभाई पटेल ने इन नाराज पाटीदारों को भाजपा की तरफ मिलाया। इसके बाद से पाटीदार समाज भाजपा का कोर वोटबैंक बन गया था और भाजपा की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा था।
गुजरात की सत्ताधारी भाजपा सरकार ने नाराज चल रहे पाटीदारों को मनाने की दिशा में काफी काम किए हैं। मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने पाटीदार समाज की आरक्षण की मांगों के अध्ययन के लिए आयोग को मंजूरी दे दी है। इसके अतिरिक्त पाटीदार समाज के जिन लोगों पर पाटीदार आन्दोलन के दौरान केस दर्ज हुआ था सरकार उसे भी वापस लेने पर विचार कर रही है। भाजपा ने पाटीदारों को साधने के लिए सरदार पटेल के जन्मस्थान करमसद से गुजरात गौरव यात्रा की शुरुआत की थी। इस यात्रा के माध्यम से भाजपा गुजरात के पाटीदारों की नाराजगी दूर करने के प्रयास में थी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इसी वजह से यात्रा की कमान पाटीदार समाज का नेतृत्व करने वाले नेताओं को सौंपी थी। हालाँकि इस यात्रा को कई जगह विरोध का सामना भी करना पड़ा और भाजपा इसके माध्यम से अपना मकसद साधने में असफल रही।
गुजरात की सियासत में पाटीदारों के वर्चस्व की वजह से कांग्रेस किसी भी हालत में हार्दिक पटेल का समर्थन हासिल करने का प्रयास कर रही थी। हार्दिक पटेल कांग्रेस में शामिल तो नहीं हुए पर उन्होंने खुले तौर पर कांग्रेस को समर्थन देने का ऐलान कर दिया। हार्दिक पटेल भले ही सक्रिय रूप से राजनीति में ना आए हो पर उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाए किसी से छिपी नहीं है। गुजरात की सियासत में पाटीदारों का प्रभुत्व देखते हुए कांग्रेस ने पाटीदार आन्दोलन के अगुआ हार्दिक पटेल की शर्तों को मानते हुए उनकी पसंद के उम्मीदवारों को टिकट भी दिया। गुजरात विधानसभा की कुल 182 सीटों में से 70 सीटों पर पाटीदार समाज का प्रभुत्व है। गुजरात के मतदाता वर्ग में बड़ा हिस्सा पाटीदार समाज का है। पाटीदार समाज की नाराजगी का असर वर्ष 2015 में सौराष्ट्र में हुए जिला पंचायत चुनावों में भी देखने को मिला था जब भाजपा क्षेत्र की 11 में से 8 सीटों पर हार गई थी।
पाटीदार समाज सिर्फ मतदाताओं के आधार पर गुजरात में निर्णायक की भूमिका निभाते हैं यह कहना गलत होगा। गुजरात की मौजूदा भाजपा सरकार के 120 विधायकों में से 40 विधायक पाटीदार समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके अतिरिक्त गुजरात सरकार के 7 मंत्री, 6 सांसद भी पाटीदार समाज से हैं। 2015 में हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आरक्षण की मांग को लेकर हुए पाटीदार आन्दोलन के बाद पाटीदार समाज भाजपा से नाराज चल रहा है। भाजपा नाराज पाटीदारों को मनाने का हरसंभव प्रयास कर रही है पर अब तक इसमें सफल नहीं हो पाई है। नरेंद्र मोदी के 2014 में गुजरात छोड़ने के बाद से पाटीदार समाज पर भाजपा की पकड़ ढ़ीली हो गई है। भाजपा के लाख प्रयत्न करने के बावजूद भी पाटीदार नेता हार्दिक पटेल के रुख में कोई बदलाव नहीं आया और उन्होंने भाजपा के खिलाफ चुनाव प्रचार किया।
2012 के विधानसभा चुनावों में गुजरात का पाटीदार समाज भाजपा के साथ था। पाटीदार समाज की कड़वा बिरादरी के 82 फीसदी वोट भाजपा को मिले थे। लेउवा बिरादरी के 63 फीसदी वोटरों ने भाजपा को चुना था। 90 के दशक से ही पाटीदार समाज के 80 फीसदी वोटर भाजपा के पक्ष में मतदान करते आए हैं। इसी वजह से पाटीदार समाज को भाजपा का पारम्परिक वोटबैंक कहा जाता रहा है। पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को 47 फीसदी मत मिले थे वहीं कांग्रेस को तकरीबन 38 फीसदी मत मिले थे। पाटीदार समाज के वोटरों के मत प्रतिशत 13 है। इस लिहाजन अगर 80 फीसदी पाटीदार भी कांग्रेस के साथ हो जाए तो भाजपा के लिए गुजरात बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
– ओबीसी
जातीय आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे युवा नेताओं की तिकड़ी में से ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर ने सबसे पहले कांग्रेस का दामन थामा था। गुजरात कांग्रेस प्रभारी अशोक गहलोत, कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी से कई मुलाकातों के बाद अल्पेश ठाकोर कांग्रेस में शामिल हुए थे। ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से अपने वफादारों के लिए 12-15 सीटें मांगी थी। कांग्रेस ने गुजरात के मतदाता वर्ग में ओबीसी वर्ग के बड़े जनधजार और अल्पेश की लोकप्रियता को देखते हुए उनकी मांगे मान ली और उनके वफादारों को भी चुनावी मैदान में उतारा है। स्वयं अल्पेश ठाकोर पाटण जिले की राधनपुर विधानसभा सीट से चुनावी मैदान में हैं। अल्पेश ठाकोर को संगठन में काम करने का लम्बा अनुभव है और उनकी सियासी सूझबूझ शक योग्य नहीं है।
गुजरात विधानसभा की 182 में से 70 सीटों पर ओबीसी समाज के मतदाताओं का बड़ा जनाधार है। गुजरात के मतदाता वर्ग में 54 फीसदी भागीदारी ओबीसी वर्ग की है। अल्पेश ठाकोर गुजरात क्षत्रिय-ठाकोर सेना के अध्यक्ष हैं और ओबीसी एकता मंच के संयोजक की भूमिका में भी हैं। ओबीसी वर्ग में अल्पेश ठाकोर की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने राज्य में ओबीसी वर्ग की 146 जातियों को एकजुट किया है और उनका समर्थन हासिल किया है। चुनावों से पूर्व कांग्रेस में शामिल होकर अल्पेश ठाकोर ने भाजपा को करारा झटका दिया है और पाटीदारों के कटने से बैकफुट पर चल रही भाजपा की सियासी राह और मुश्किल कर दी है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अल्पेश का कांग्रेस के साथ जाना भाजपा को कितना भारी पड़ता है।
ओबीसी आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे अल्पेश ठाकुर को ओबीसी वर्ग की 146 जातियों का समर्थन हासिल है। वह इसका भरपूर राजनीतिक लाभ भी उठा रहे हैं। गुजरात की 182 विधानसभा सीटों में से तकरीबन 70 सीटों पर ओबीसी वर्ग की दमदार उपस्थिति है। अल्पेश ठाकुर पाटीदार और दलित आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी का भी समर्थन कर रहे हैं। गुजरात में मतदाता वर्ग में 54 फीसदी आबादी ओबीसी वर्ग की है वहीं संयुक्त रूप से दलित और पाटीदार वोटरों की संख्या 25 फीसदी है। अल्पेश ठाकुर और हार्दिक पटेल दोनों ही अहमदाबाद के वीरमगांव के रहने वाले है। दोनों की आपस में अच्छी जान-पहचान है। भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए युवा आंदोलनकारियों की यह तिकड़ी साथ आ चुकी है।
अल्पेश ठाकुर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी की तिकड़ी गुजरात की 120 विधानसभा सीटों पर किसी के पक्ष में भी पलड़ा झुकाने का माद्दा रखती है। हार्दिक पटेल का कहना है कि किसी भी सूरत में वह पाटीदार आरक्षण की अपनी मांग से नहीं हटेंगे, अब सरकार चाहे वह अलग से दे या ओबीसी कोटे से। हार्दिक पटेल के पटेल आरक्षण के मांग पर अल्पेश ठाकुर का रुख स्पष्ट नहीं था। उनका कहना था कि पाटीदारों को आर्थिक आधार पर आरक्षण मिलना चाहिए लेकिन इसका असर ओबीसी आरक्षण पर नहीं पड़ना चाहिए। दलित आन्दोलन के अगुआ जिग्नेश मेवानी भी अल्पेश ठाकुर की इस बात पर सहमत थे। जिग्नेश मेवानी का कहना था कि पाटीदारों को आरक्षण देने के लिए दलितों को मिले आरक्षण के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। आरक्षण के मुद्दे पर मतभेद होने के बावजूद यह त्रिमूर्ति विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को समर्थन देकर भाजपा के मुश्किलें खड़ी कर रही है।
– दलित
पाटीदार और ओबीसी नातों के छिटकने के बाद भाजपा आशाभरी नजरों से दलित आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे जिग्नेश मेवानी की ओर देख रही थी। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी से मुलाकात के बाद जिग्नेश मेवानी ने कांग्रेस में शामिल होने से इंकार कर दिया था। हालाँकि जिग्नेश ने कहा था कि वह सत्ताधारी भाजपा सरकार की नीतियों के खिलाफ हैं और लोगों से भाजपा को वोट ना देने की अपील करेंगे। जिग्नेश मेवानी ने कहा था कि वह कांग्रेस का समर्थन करेंगे। उम्मीदवारों के चयन पर जिग्नेश ने कहा था कि कांग्रेस को ऐसे उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारने चाहिए जिन्हें लेकर पाटीदार, ओबीसी और दलित समाज में सहमति हो। ऊना में हुए दलित आन्दोलन के बाद से गुजरात में जिग्नेश मेवानी की पहचान बनी है और दलित समाज उन्हें अपना नेता मान चुका है।
हिंसक घटनाओं के कारण गुजरात का दलित समुदाय भाजपा से रुष्ट है। बीते दिनों सौराष्ट्र के ऊना में कथित गौरक्षकों ने दलितों की पिटाई कर दी थी। इस मामले ने आग में घी का काम किया और गुजरात का दलित समाज भाजपा के खिलाफ हो गया। पेशे से वकील और सामाजिक कार्यकर्ता जिग्नेश मेवानी ने गुजरात में दलितों के इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। ऊना में गौरक्षा के नाम पर हुई दलितों की पिटाई के खिलाफ जिग्नेश मेवानी ने आन्दोलन छेड़ा था। ‘आजादी कूच आन्दोलन’ के माध्यम से जिग्नेश मेवानी ने एक साथ 20,000 दलितों को मरे जानवर ना उठाने और मैला ना ढ़ोने की शपथ दिलाई थी। इस दलित आन्दोलन ने बहुत ही शांतिपूर्ण ढंग से गुजरात की भाजपा सरकार को करारा झटका दिया था। राज्य के 7 फीसदी मतदाता दलित हैं और 13 सीटों पर प्रभाव रखते हैं। इनकी नाराजगी भाजपा को भारी पड़ सकती है।
दलित आन्दोलन से गुजरात की सियासत में अपनी पहचान बनाने वाले दलित मेवानी एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और पेशे से वकील हैं। गुजरात के ऊना में कथित गौरक्षकों द्वारा दलितों की पिटाई के जिग्नेश ने सत्ताधारी भाजपा सरकार के खिलाफ आन्दोलन छेड़ दिया था। दलितों पर अत्याचार के मामले में गुजरात का देश में दूसरा स्थान है। बहुत ही कम समय में जिग्नेश ने गुजरात में दलित समाज में अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और आज वह सूबे के प्रमुख दलित नेता बन चुके हैं। जिग्नेश मेवानी को दलित समाज, कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य कई क्षेत्रीय दलों का भी समर्थन प्राप्त है। इसी का नतीजा है कि जब जिग्नेश ने बनासकांठा जिले की वडगाम विधानसभा सीट से चुनाव निर्दलीय चुनाव लड़ने की घोषणा की तो कांग्रेस समेत कई अन्य दलों ने उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया।
गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भाजपा की हालत बहुत ही खराब है। जनता में सत्ताधारी भाजपा सरकार के खिलाफ रोष व्याप्त है और आने वाले चुनाव में जनता भाजपा के खिलाफ मतदान करेगी। जिग्नेश समर्थकों ने आरोप लगाया था कि गुजरात की सत्ता हाथ से फिसलती देख भाजपा कार्यकर्ता बौखला गए हैं और इस वजह से हिंसक रवैया अपना रहे हैं। इन कारस्तानियों से भाजपा को फायदा नहीं वरन और नुकसान ही होगा। जिग्नेश मेवानी ने लम्बे समय से सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर भी कार्य किया है और उनकी दलित समाज के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी अच्छी पकड़ है। भाजपा को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है और जिग्नेश के समर्थन वाले दल को दलित और ग्रामीण वोटरों का साथ मिल सकता है।
जिग्नेश मेवानी को कांग्रेस का समर्थन मिलने का असर गुजरात की दलित बाहुल्य सीटों पर पड़ सकता है। गुजरात के मतदाता वर्ग में 7 फीसदी आबादी दलित समाज की है और राज्य की 182 विधानसभा सीटों में से 13 सीटें दलित मतदाताओं के लिए आरक्षित हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव में गुजरात का दलित समाज भाजपा के साथ था और पार्टी को इसका लाभ भी मिला था। भाजपा ने दलितों के लिए आरक्षित 13 में से 10 सीटों पर जीत हासिल की थी। हालाँकि मौजूदा स्थिति को देखते हुए इस बार ऐसा असंभव होता दिख रहा है। कांग्रेस ने जिग्नेश मेवानी को समर्थन दिया है और जिग्नेश ने भी जनता से भाजपा के खिलाफ वोट देने की अपील की है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस जिग्नेश के सहारे दलित समाज के वोटरों में सेंधमारी कर पाती है या नहीं।
गुजरात का मॉडल पूरे देश में विकास का पर्याय बना हुआ था पर आज उसी गुजरात में राजनीति जातीय समीकरणों के ईद-गिर्द सिमट कर रह गई है। सालों में जिस तरह से गुजरात जातीय आन्दोलनों की चपेट में आया है ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया। पाटीदार, ओबीसी और दलित आन्दोलन ने गुजरात की सत्ताधारी भाजपा सरकार की जड़ें हिलाकर रख दी हैं। दलित नेता जिग्नेश मेवानी के काफिले पर हुए हमले का जिक्र करते हुए गुजरात केंद्रीय विश्विद्यालय के प्रोफेसर जय प्रकाश प्रधान कहते हैं कि अगर यह बात वाकई में सच है तो भाजपा के लिए गुजरात बचाना बहुत मुश्किल साबित होगा। गुजरात की राजनीति में ऐसी घटनाएं कभी नहीं हुई हैं और भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना होगा।। गुजरात का दलित समाज अब जिग्नेश मेवानी की समर्थक पार्टी कांग्रेस की ओर झुकेगा।
व्यापारियों को मनाने के लिए जीएसटी सुधार
गुजरात की शहरी आबादी में भाजपा की अच्छी पकड़ है। गुजरात के लोगों का मुख्य पेशा व्यापार है और भाजपा की पूर्ववर्ती सकारें व्यापारी वर्ग की हितैषी रही हैं। ऐसे में भाजपा को इस वर्ग का समर्थन मिलना तय है। हालिया सुधारों के बाद जीएसटी भी अब भाजपा का पक्ष मजबूत कर रहा है। मोदी सरकार ने जीएसटी में सुधारों के तहत जिन-जिन क्षेत्रों में छूट दी है उनमें से अधिकतर क्षेत्रों में गुजरात के व्यापारी वर्ग का दबदबा है। कपड़ा उद्योग, जवाहरात उद्योग इनमें से प्रमुख हैं। ऐसा करके भाजपा ने जीएसटी की वजह से व्यापारी वर्ग में व्याप्त रोष को काफी हद तक मिटा दिया है और विधानसभा चुनावों के मद्देनजर अपना पक्ष मजबूत कर लिया है। गुजरात का व्यापारी वर्ग भी भाजपा का कोर वोटबैंक बन चुका है और उम्मीद है इस बार भी वह भाजपा का साथ देगा।
सशक्त चेहरे की कमी
नरेंद्र मोदी के बाद अमित शाह ही ऐसे नेता थे जो गुजरात भाजपा में दमखम रखते थे। राजनाथ सिंह ने गृह मंत्री के बाद भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और नरेंद्र मोदी के विश्वासपात्र अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष चुने गए। गुजरात को आनंदीबेन पटेल के हाथों में सौंपकर भाजपा ने महिला सशक्तीकरण के नारे को बुलंद करने की कोशिश की। आनंदीबेन पटेल गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी। भाजपा ने उनको कमान सौंपकर अपने परंपरागत पाटीदार मतदाता वर्ग को साधने का प्रयास भी किया। आंनदीबेन पटेल ने 75 वर्ष की आयु पूरी होने के पश्चात मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और उनकी जगह विजय रुपाणी को गुजरात का नया मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया।
दरअसल नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद गुजरात भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं था जो पार्टी को अपने कन्धों पर आगे ले जा सके। नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में किसी भी अन्य भाजपा नेता को इतनी लोकप्रियता ही नहीं मिली कि वह पुरे सूबे का प्रतिनिधित्व कर सके। नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री पद की गरिमा को एक अलग ही मुकाम पर पहुँचा दिया था। उनके कार्यकाल के समय गुजरात के नाम पर लोगों के जेहन में सिर्फ एक ही नाम आता था और वह था नरेंद्र मोदी। अमित शाह के राज्यसभा जाने के बाद अब गुजरात भाजपा की स्थिति भी गुजरात कांग्रेस जैसी हो गई है। भाजपा को नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरे पर वोट तो मिल जाएंगे पर सवाल यह है कि क्या राज्य को फिर एक बार नरेंद्र मोदी जैसा करिश्माई नेतृत्व मिल सकेगा?