World Bank Report On Global Poverty: विश्व बैंक (World Bank) द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट “Poverty and Shared Prosperity 2022: Correcting Course” के अनुसार कोविड-19 के कारण दुनिया भर में सरकारों तथा अन्य संस्थाओं द्वारा चलाये जा रहे गरीबी उन्मूलन अभियानों (Poverty Alleviation Programs) को बेपटरी कर दिया है।
वर्ल्ड बैंक के इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में अकेले 2020 में कोविड-19 और आर्थिक मंदी के कारण 70 मिलियन (7 करोड़) अत्यंत गरीबी (Extreme Poverty) की श्रेणी में चले गए। यह 1990 से (जब से वर्ल्ड बैंक द्वारा वैश्विक गरीबी की गणना शुरू की गई है) अब तक किसी एक साल के लिहाज़ से एक रिकॉर्ड है।
The @WorldBank’s latest Poverty and Shared Prosperity Report (#PSPR) provides the first comprehensive look at global poverty in the aftermath of an extraordinary series of shocks to the global economy. https://t.co/ghcBLmdYGq 1/11 pic.twitter.com/4Zmv20ORCR
— World Bank Poverty (@WBG_Poverty) October 5, 2022
इस रिपोर्ट के मुताबिक, यद्यपि वैश्विक गरीबी उन्मूलन की रफ्तार 2015 के बाद से ही कम हो रही थी लेकिन पहले कोविड-19 और उसके बाद रूस-यूक्रेन विवाद ने इस गरीबी घटने के बजाए पूरी प्रक्रिया को ही विपरीत दिशा मे कर दिया है। वैश्विक तौर पर 719 मिलियन (71.9 करोड़) लोग मात्र 2.15$ (अमेरिकी डॉलर) प्रतिदिन पर गुजर बसर करने पर मजबूर हैं।
वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी इसी रिपोर्ट के अनुसार, गरीब तबके के लोगों (जिन्हें दुनिया के कुल आबादी का 40% माना जाता है) की आय में 4% का नुकसान हुआ है; वहीं धनाढ्य श्रेणी में आने वाले लोगों (कुल वैश्विक आबादी का 20%) की आय में महज़ 2% का औसतन नुकसान हुआ है।
इसका मतलब यह कहा जा सकता है कि कोविड-19 और रूस-युक्रेन विवाद के कारण दुनिया भर में न सिर्फ़ गरीबी बल्कि आर्थिक असमानता का दायरा भी दुनिया भर में बढ़ा है।
भारत में सबसे ज्यादा गरीबी
विश्व बैंक द्वारा जारी उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार भारत में गरीबों की संख्या दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में सर्वाधिक है। साल 2020 में दुनिया के भयंकर गरीबी (Extreme Poverty) की श्रेणी में शामिल कुल 7 करोड़ (7 मिलियन) लोगों में से 5.6 करोड़ (5.6 मिलियन) आबादी अकेले भारत मे है।
यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि विश्व बैंक का यह आंकलन भारत की अग्रणी गैर-सरकारी संस्था CMIE के आंकड़ों पर आधारित है, न कि भारत सरकार द्वारा जारी किसी आंकड़े पर।
अब ऐसा क्यों है, इसका उत्तर जानना और भी जरूरी है कि भारत सरकार ने साल 2011-12 के बाद से गरीबी से जुड़े कोई आंकड़े जारी ही नहीं किये है। मौजूदा नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार लगभग साढ़े आठ सालों से सत्ता में है लेकिन गरीबी से जुड़े आंकड़े एक बार भी जारी नही की है।
अब इसके पीछे की वजह ऐसे आंकड़ों को जुटाने वाली सरकारी संस्था NSSO के आंकड़े को त्रुटिपूर्ण बताया जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि 70 साल बनाम 7 साल की बात करने वाली सरकार जो हर बात पर आँकड़े पेश करने में विश्वास करती है, वह देश में गरीबों की संख्या से जुड़े आंकड़े क्यों नहीं जारी कर पाती है?
इसके पीछे की वजह राजनीतिक हो या कुछ और फिलहाल हम इसे सरकार के माथे ही छोड़ देते हैं। लेकिन विश्व बैंक के इस रिपोर्ट में भारत के लिए जो आंकड़े बताए गए हैं, वह निश्चित ही चिंता का विषय है।
भारत मे राजनीति और ग़रीबी उन्मूलन की बातें एक दूसरे के लिए चोली-दामन का साथ निभाते रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गाँधी ने कभी “गरीबी हटाओ” का नारा बुलंद कर के देश की सत्ता हासिल किया था। अकेले इन्दिरा ही क्यों, इसी तरह हर भारतीय नेता ने गरीबों के हक़ की लड़ाई लड़ने की बात की है। लेकिन भारत में गरीबों और गरीबी की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं हुआ।
चीन-मॉडल से सीखे भारत
वहीं भारत का पड़ोसी देश और भारत की राजनीति में छाए रहने वाला “चीन” ने गरीबी के ख़िलाफ़ जंग में भारत जैसे देश के लिए नजीर बन सकता है। लगभग एक ही समय-काल मे आज़ाद होने वाले तथा लगभग एक समान जनसंख्या वाले दोनों देश अपनी जनता के बीच से फटेहाली और मुफलिसी को दूर करने के जंग में आज मौजूदा वक्त मे कोसों दूर हैं।
एक तरफ़ भारत है जहाँ दुनिया की ऐसी सबसे बड़ी आबादी (लगभग 60 करोड़ लोग) निवास करती है जो ग़रीबी ($3.65 अमेरिकी डॉलर प्रति दिन या भारतीय मुद्रा में 84₹ प्रति दिन)* रेखा के अंदर निवास करती है।
यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि ग़रीबी रेखा का अंतरराष्ट्रीय मापदंड 3.65$ अमेरिकी डॉलर को भारतीय मुद्रा मे 84₹ के समतुल्य बताया गया है। यह गणना पर्चेजिंग पावर पैरिटी के आधार पर किया गया है।
दूसरी तरफ़ चीन है जिसने पिछले 4 दशक में लगभग 76.5 करोड़ लोगों को भयंकर ग़रीबी से बाहर निकाला है। यानि चीन ने औसतन लगभग 19 मिलियन (1.9 करोड़) लोगों को हर साल गरीबी रेखा से बाहर निकाला है।
इतना ही नही, चीन ने मानव विकास सूचकांक (Human Development Index) के अन्य बिंदु जैसे- जन्म के समय व्यक्ति की जीवन प्रत्याशा (Life Expectancy at Birth) को 1978 के 66 वर्ष के मुकाबले 2019 में 77 वर्ष तक बढ़ाया है। साथ ही शिशु मृत्यु दर (प्रति हजार) जो 1978 मे 52 थी, अब घटकर 2019 में मात्र 6.8 रह गई है।
इसलिए स्पष्ट है कि ग़रीबी के ख़िलाफ़ जारी लड़ाई में भारत चीन के मुकाबले कोसों पीछे छूट गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर चीन ने यह सब हासिल कैसे किया और भारत को चीन से क्या सीखना चाहिए।
असल मे चीन ने इस मुहिम (Poverty Alleviation) में अपना मोर्चा खोलने के साथ साथ आर्थिक नीतियों में भी अमूलचूल बदलाव किए। चीन ने एक तरफ़ जहाँ विशेष क्षेत्र-आधारित ग़रीबी उन्मूलन अभियान तथा सामाजिक सुरक्षा नीतियों को सुदृढ किया; वहीं दूसरी तरफ़ आधारभूत संरचना (Infrastructure), कृषि-उपज में वृद्धि, उर्ध्वगामी औद्योगिक उद्यमिता को बढ़ावा, सुव्यवस्थित शहरीकरण और संयोजित जन-विस्थापन पर लगातार ध्यान दिया।
साथ ही न सिर्फ नीतिगत तरीके से बल्कि नियत भी सही रखने के कारण आज चीन में गरीबी का दंश एक मामूली सी आबादी को चोट पहुंचाती है। वहीं “सही नीति और सही नियत” की ताल ठोंकने वाली सरकारों के तमाम प्रयासों के बावजूद ग़रीबी की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है।
अतः, भारत और चीन के बीच निःसंदेह तमाम मनमुटाव हो सकते हैं, भारत के नेताओं को चीन केके ख़िलाफ़ बातें करने से तमाम चुनावी फायदे हो सकते हैं लेकिन पक्के तौर पर ग़रीबी उन्मूलन अभियानों के संदर्भ मे भारत को चीन से सीखने में कोई गुरेज नहीं करनी चाहिए।