दलबदल विरोधी कानून (Anti Defection Law): बीते दिनों हाई वोल्टेज ड्रामा के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में भीषण उलट फेर हुए। “ऑपरेशन लोटस” सफल हुआ और एक बार फिर शिवसेना और बीजेपी गठबंधन की सरकार वापिस आ गई।
अभी महाराष्ट्र के राजनीतिक समंदर का ज्वार-भाटा थमा भी नहीं है कि ऐसी ही खबरें कल गोवा से मीडिया हलकों में तैरने लगी कि वहाँ भी कांग्रेस के 11 में नौ विधायक सत्तासीन बीजेपी के पाले में जाने वाले हैं। जिन विधायकों के पाला बदलने की खबर आई उनमें नेता प्रतिपक्ष माइकल लोबो और पूर्व मुख्यमंत्री दिगंबर कामत का नाम सबसे प्रमुख था।
खैर, जैसे-तैसे मामला को कांग्रेस पार्टी के तरफ से संभाला गया और आनन फानन में नेता प्रतिपक्ष को बदला गया। गोवा प्रदेश कांग्रेस कमिटी ने इन दोनों विधायकों को अयोग्य घोषित करने के लिए विधानसभा स्पीकर से मांग भी की।
Goa | Congress MLA & wife of Michael Lobo, Delilah Lobo leaves from the residence of CM & BJP leader Pramod Sawant.
Michael Lobo has been removed from the position of LoP Goa. pic.twitter.com/HOK2WmQJHR
— ANI (@ANI) July 10, 2022
दरअसल आने वाले दिनों में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियों को यह डर सता रहा है कि कहीं उनके विधायक पाला न बदल लें। इसी के मद्देनजर मीडिया खबरों के मुताबिक दल-बदल तथा विधायकों के खरीद फरोख्त की ऐसी ही सुगबुगाहट झारखंड और कर्नाटक से भी आ रही है।
महाराष्ट्र से पहले किस तरह से मध्यप्रदेश और कर्नाटक की सरकार दल-बदल की राजनीति की शिकार हुई थी, यह किसी से छुपा नहीं है। राजस्थान में भी एक बार लगा था कि सचिन पायलट गुट सत्ता हथियाने के इस खेल में शामिल होगी, पर कांग्रेस आलाकमान के समय से सक्रिय होने के बाद वहां “आपरेशन लोटस” जैसा कुछ नहीं हुआ।
कुल मिलाकर अगर महाराष्ट्र को छोड़ दें तो हर जगह विधायकों के निजी हितों के साधने के कारण जनादेश किसी पार्टी को मिली है और सरकार ज्यादातर जगह तोड़-फोड़ के कारण बीजेपी के हाँथो में आ गया है।
अब इसमें राजनीति के दांव पेंच हैं या कुछ और… यह अलहदा बात है। लेकिन इतना जरूर है कि इन सभी मामलों में जिस कानून की सबसे ज्यादा चर्चा हुई है, वह है – दलबदल कानून (Anti Defection Law)।
दलबदल विरोधी कानून उन मौकापरस्त MP/MLA को सज़ा देने के लिए बनाया गया जो एक पार्टी को छोड़कर दूसरे पार्टी में शामिल हो जाते हैं। लेकिन यह कानून कुछ विशेष स्थिति में MPs/MLAs को या उनके समूह को किसी दूसरे पार्टी में मिलाए जाने का मार्ग भी प्रशस्त करता है।
इस कानून में किसी MP/MLA को तो सजा का प्रावधान है लेकिन उन राजनीतिक दलों के लिए सजा का कोई प्रावधान नहीं है जो इन दल-बदलू जनप्रतिनिधियों को अपने दल में शामिल करते हैं।
देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद-भवन ने इस कानून को 1985 में पास करने के बाद संविधान के दसवें शेड्यूल में जोड़ा था ताकि राज्य सरकारों को धन-बल आदि का इस्तेमाल कर के गिराया न जाये। लेकिन “आया राम- गया राम” वाली राजनीति को रोकने के मक़सद से बनाया गया यह कानून वक़्त के साथ हमेशा ही सवालों के घेरे में रहा है। इसके प्रभावी होने की कसौटी पर हमेशा ही सवाल रहे हैं।
पिछले कुछ सालों में जिस तरह से सत्ता सुख की चाह में नेताओं एक सरकार को गिराकर दूसरी सरकार स्थापित करने का काम किया है, वह निश्चित ही भारतीय राजनीति के लिए चिंता का सबब है।
दलबदल विरोधी (Anti Defection Law)कानून की मुख्य बातें
दलबदल विरोधी कानून मुख्यतः तीन तरह के दल-बदलू स्थितियों को समाहित करता है। पहला, जब किसी एक पार्टी के टिकट पर चुनकर आया कोई जनप्रतिनिधि स्वेच्छा से उस दल की सदस्यता त्याग दे या उस दल के दिशा-निर्देशों के अनुरूप सदन के भीतर या बाहर दोनों तरफ व्यवहार न करे तो उसे दल-बदल कानून के तहत सजा दी जा सकती है
दूसरी स्थिति यह कि कोई निर्दलीय चुना गया MP/MLA कोई राजनीतिक पार्टी में शामिल हो जाये। तीसरी स्थिति यह कि कोई नामित प्रतिनिधि (Nominated Member) अपने चयनित होने 6 महीने के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाये।
इन तीनों ही स्थितियों के लिए इस कानून के अंदर दल-बदलू सदस्य के लिए सजा का प्रावधान है। इस सम्बंध में अंतिम निर्णय सदन के स्पीकर या चेयरमैन के पास होता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सांसदों या विधायकों के पास यह अधिकार जरूर है कि स्पीकर/अध्यक्ष के निर्णय के ख़िलाफ़ वे हाइकोर्ट या सुप्रीमकोर्ट में जा सकते हैं।
कितना प्रभावी है यह कानून?
दरअसल, दलबदल विरोधी कानून अपने मकसद को लेकर या यह कितना प्रभावी है, इसे लेकर सवालों के घेरे में रहा है तो इसके पीछे इस कानून के कुछ अपनी ही खामियाँ (Loop holes) हैं।
यह कानून सदन के अध्यक्ष/चेयरपर्सन को किसी MP/MLA के ख़िलाफ़ दलबदल कानून के तहत कार्रवाई हो या नहीं, इसका निर्णय का अधिकार जरूर देता है लेकिन इसके लिए कोई निश्चित समय-सीमा नहीं तय है।
कई दफ़ा ऐसे मौक़े आये हैं कि किसी सदस्य कब खिलाफ दलबदल कानून के अंतर्गत शिकायत स्पीकर/अध्यक्ष के सामने पड़ी रही है और इस पर निर्णय राजनीतिक फायदों के कारण नहीं लिया जाता है। ऐसे सदस्य कई बार मंत्रालय में भी शामिल कर लिए जाते है जिनके खिलाफ दलबदल की शिकायत स्पीकर/अध्यक्ष के आगे लम्बित पड़ी रही है।
अभी 1-2 साल पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर सरकार के एक मंत्री की सदस्यता बर्खास्त कर दी थी जिनके खिलाफ दलबदल का मामला स्पीकर के आगे 3 साल से लंबित रहा था। कोर्ट ने अपनी सीमाओ में रहते हुए यह टिप्पणी की थी कि ऐसे मामले में स्पीकर/अध्यक्ष को ज्यादा से ज्यादा तीन महीने में निर्णय ले लेना चाहिए।
दलबदल विरोधी कानून कितना प्रभावी रहा है, इसे समझने के लिए हमे इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि क्या इस कानून की वजह से तमाम राज्यों की सरकारों के स्थायित्व मिला है?
जवाब स्पष्ट है- नहीं! बीते 1-2 सालों में ही कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि में हुए राजनीतिक घटनाक्रम ही इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। अव्वल तो यह कि इस कानून के मकसद से एकदम विपरीत राजनीतिक दलों ने इस कानून का जमकर फायदा उठाया है।
यह कानून उस स्थिति में अप्रभावी है जब किसी पार्टी के चुने हुए प्रतिनिधियों में से दो तिहाई विधायक/सांसद अपने मूल दल से नाता तोड़कर दूसरे दल में शामिल हो जाये। 2019 में जो गोवा में हुआ जब कांग्रेस के 15 में से 10 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए, वह दलबदल कानून के इसी विफलता की गवाही है।
अभी महाराष्ट्र में शिवसेना के भी दो-तिहाई (2/3rd) से ज्यादा विधायक गठबंधन की सरकार से नाता तोड़कर बीजेपी को समर्थन दे दिए। हालांकि इस मामले में तमाम कानूनी मामले सुप्रीम कोर्ट के आगे लंबित है।
आवश्यकता है दलबदल (विरोधी) कानून के समीक्षा की
स्पष्ट है कि यह कानून जिस उद्देश्य से बनाया गया था ताकि सरकारों को स्थायित्व मिलेगी, उसमें नाकामयाब रही है। इसलिए इसकी नितांत समीक्षा और सुधार की आवश्यकता है।
निर्वाचन आयोग (Election Commission Of India) ने भी कहा है कि ऐसे मामलों में अंतिम निर्णय का अधिकार सदन के अध्यक्ष या स्पीकर के पास नहीं बल्कि आयोग के पास होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने भी संसद से यह अपील की थी कि संसद को ऐसे दलबदल के।मामलों के लिए एक स्वतंत्र ट्रिब्यूनल बना देनी चाहिए जिसमें ऐसे मामलों का निपटारा तेजी से और निष्पक्ष रूप से हो सके।
मीडिया और बुद्धिजीवियों के बीच एक मत यह भी है कि दलबदल जैसे मौकापरस्त घटनाओं के बाद इसमें शामिल सदस्यों की सदस्यता हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहिए ताकि ऐसे लोगों को जो अपने निजी फायदे के लिए लोकतंत्र के बुनियाद से खेलते हैं, उन्हें कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने कुनबे में शामिल ना करे।
स्पष्ट है कि दलबदल विरोधी कानून सरकारों को स्थायित्व प्रदान करने में असफल रहा है। इसलिए निःसंदेह देश के सबसे बड़े पंचायत संसद-भवन में इस कानून को लेकर वृहत चर्चा की आवश्यकता है। पर सवाल यही है कि क्या ये “माननीय” लोग देशहित में वह राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखा पाएंगे ?