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    अशोक गहलोत

    बीते 18 दिसंबर को हालिया संपन्न हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित हुए। हिमाचल प्रदेश में सत्ताधारी दल कांग्रेस को शिकस्त हाथ लगी और भाजपा 5 सालों बाद सत्ता वापसी करने में सफल रही। वहीं गुजरात में भाजपा का जादू 22 सालों बाद भी बरकरार रहा और तमाम जातीय आन्दोलनों और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद भाजपा जीत दर्ज करने में सफल रही।

    हालाँकि कांग्रेस ने अपने प्रदर्शन में सुधार किया और भाजपा को कड़ी टक्कर दी। कांग्रेस भाजपा को 99 सीटों पर रोकने में सफल रही। कांग्रेस को 77 सीटों पर जीत हाथ लगी। बीते दो दशकों में ऐसा पहली बार हुआ जब गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 100 से कम सीटों पर जीत दर्ज की हो। भाजपा को अपने सबसे मजबूत दुर्ग गुजरात को बचाने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था।

    कांग्रेस के इस प्रदर्शन के पीछे जिस शख्स की सबसे बड़ी भूमिका रही उसका नाम है अशोक गहलोत। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत गुजरात कांग्रेस के प्रभारी थे और शंकर सिंह वाघेला की बगावत के बाद बिखरी कांग्रेस को सहेजने का काम उन्होंने ही किया। राहुल गाँधी के प्रचार अभियान से लेकर जातीय नेताओं से गठजोड़ तक, सबकी पृष्ठभूमि अशोक गहलोत ने तैयार की थी।

    गुजरात कांग्रेस के नेताओं में भी अशोक गहलोत की स्वीकार्यता थी और टिकट वितरण में भी उनकी बड़ी भूमिका थी। अशोक गहलोत के साथ दशकों का सियासी अनुभव था। उनके इस अनुभव का लाभ निश्चित तौर पर कांग्रेस को मिला और गुजरात विधानसभा चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन में अभूतपूर्व सुधार देखने को मिला।

    गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गाँधी के तेवरों में जो बदलाव नजर आए उसके पीछे भी अशोक गहलोत का दिमाग था। बतौर कांग्रेस प्रभारी गहलोत ने गुजरात में पार्टी संगठन की मजबूती से लेकर चुनाव प्रचार तक में कड़ी मेहनत की जिसके परिणामस्वरुप कांग्रेस दशकों बाद भाजपा को टक्कर देती नजर आई।

    राजस्थान की सीमा से लगने वाली उत्तर गुजरात की 9 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस का प्रदर्शन शानदार रहा। कांग्रेस ने इन 9 सीमावर्ती सीटों में से 7 सीटों पर जीत दर्ज की वहीं 2 सीटों पर भाजपा जीत दर्ज करने में सफल रही। कांग्रेस के लिहाज से यह प्रदर्शन शानदार रहा पर इससे आलाकमान की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। गुजरात में कांग्रेस का प्रदर्शन आगामी वर्ष होने वाले राजस्थान विधानसभा चुनावों को प्रभावित करने वाला है।

    राहुल गाँधी राजस्थान की कमान पहले ही अपने घनिष्ठ मित्र और युवा गुर्जर नेता सचिन पायलट को सौंप चुके हैं। सचिन पायलट को 2014 के लोकसभा चुनावों के पहले राजस्थान कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था। हालाँकि इससे कांग्रेस का प्रदर्शन नहीं सुधरा और वह लोकसभा चुनावों में राजस्थान की सभी सीटों पर हार गई। सचिन पायलट खुद अपनी अजमेर की लोकसभा सीट गँवा बैठे थे। इसके बावजूद राहुल गाँधी और कांग्रेस पार्टी का उन पर भरोसा बरकरार है।

    कांग्रेस सचिन पायलट के नेतृत्व में 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनाव लड़ने का मन बना चुकी है। सचिन पायलट जमीनी स्तर पर कड़ी मेहनत कर रहे हैं और किसान यात्रा से लेकर जाट-गुर्जरों के आरक्षण आन्दोलन तक में नजर आ चुके हैं। राजस्थान के युवाओं में सचिन पायलट के गहरी पैठ है और अपने पिता राजेश पायलट के कद की वजह से उन्हें सियासी दिग्गजों का भी समर्थन प्राप्त है। ऐसे में कांग्रेस को वह सशक्त उम्मीदवार नजर आ रहे हैं जो राजस्थान में पार्टी की नैया पार लगा सकते हैं।

    गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सुधरे हुए प्रदर्शन के कारण प्रदेश कांग्रेस प्रभारी अशोक गहलोत का कद पार्टी में बढ़ा है। एक तरफ हिमाचल प्रदेश और बिहार में सुशील कुमार शिंदे और सी पी जोशी पार्टी इकाई सँभालने में विफल रहे थे और कांग्रेस की प्रदेश इकाईयों में बागी सुर उठने लगे थे। वहीं दूसरी ओर अशोक गहलोत ने ना केवल गुजरात में शंकर सिंह वाघेला की बगावत का दंश झेल रही कांग्रेस को सँभाला वरन दशकों बाद उसे गुजरात के सियासी दंगल में भाजपा के बराबर ला खड़ा किया।

    राजस्थान की सीमा से लगे गुजरात के सभी विधानसभा क्षेत्रों में अशोक गहलोत का सियासी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिला। अशोक गहलोत 2 बार राजस्थान के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। राजस्थान में वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं का एक धड़ा आज भी अशोक गहलोत का वफादार है और सियासी माहौल उनके पक्ष में बनाने में जुटा हुआ है। ऐसे में राजस्थान विधानसभा चुनावों के वक्त अशोक गहलोत को दरकिनार करना कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा सकता है।

    एक वक्त था जब देश में हर तरफ कांग्रेस का बोलबाला था। केंद्र के साथ-साथ राज्यों में भी कांग्रेस से टक्कर लेने वाला कोई नहीं था। इंदिरा राज के बाद कांग्रेस की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती गई और वामपंथ के साथ-साथ दक्षिणपंथी संगठनों ने भी भारतीय राजनीति में मजबूत दस्तक दी। भारतीय जनता पार्टी ने अपने गठन के बाद से ही हिंदुत्व को अपना मुख्या मुद्दा बनाया और 90 के दशक में राम मंदिर को मुद्दा बनाकर देश का सियासी कायापलट कर दिया।

    आज नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की करिश्माई जोड़ी कांग्रेस के लिए अबूझ पहेली बन गई है और भाजपा एक-एक कर देश के सभी प्रमुख राज्यों में सत्ता हथियाती जा रही है। 2014 के बाद हुए हर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को असफलता ही हाथ लगी है और वह कहीं भी सत्ता बचाने में कामयाब नहीं रही है। देश की आजादी के बाद से ही कांग्रेस का गढ़ रहा गुजरात भी इससे अछूता नहीं रहा और कभी ‘खाम’ राजनीति से गुजरात में रिकॉर्ड जीत हासिल करने वाली कांग्रेस के दिन अब लद गए हैं।

    गुजरात विधानसभा चुनावों में इस बार कई बदलाव देखने को मिले। 90 के दशक में कांग्रेस के ‘खाम’ समीकरण पर निर्भर होने की वजह से उसके हिमायती रहे पाटीदारों का झुकाव भाजपा की तरफ होने लगा था। 1995 विधानसभा चुनावों में भाजपा ने केशुभाई पटेल को अपना चेहरा बनाकर गुजरात के पाटीदारों को साधने का दांव खेला था जो सफल रहा था। 90 का दशक राम मंदिर आन्दोलन की वजह से भी चर्चा में रहा था लिहाजन भाजपा को हिंदुत्व हितैषी छवि का भी लाभ मिला था। भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत से गुजरात की सत्ता में आई थी और केशुभाई पटेल के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ था।

    इसके बाद हालत कुछ ऐसे बने कि कांग्रेस आज तक गुजरात में सत्ता वापसी नहीं कर सकी और 22 वर्षों बाद आज भी सियासी वनवास काट रही है। 1995 के बाद पहली बार 2017 में कांग्रेस गुजरात की सत्ताधारी भाजपा सरकार के सामने मुकाबले में खड़ी नजर आई थी। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी जी-जान से गुजरात जीतने की कोशिशों में लगे हुए थे और उनकी सियासी रणनीति बना रहे थे उनके चाणक्य बने थे अशोक गहलोत।

    पाटीदारों के समर्थन और हिंदुत्व हितैषी छवि के सहारे भाजपा पिछले 5 बार से गुजरात में चुनाव जीतती आई थी पर इस बार उसका दांव उल्टा पड़ता दिख रहा था। परंपरागत वोटबैंक पाटीदार समाज के कटने और सरकार विरोधी लहर के चलते भाजपा गुजरात में बैकफुट पर जा चुकी थी। गुजरात भाजपा के पास अब मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी जैसा लोकप्रिय और सशक्त चेहरा भी नहीं था जो चुनावों में पार्टी की नैया अपने दम पर पार लगा सके।

    ऐसे हालातों में अशोक गहलोत ने कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाना शुरू किया था। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड खेला था और धुआँधार प्रचार अभियानों और जातीय समीकरणों को साधकर भाजपा की नींव हिला दी थी। राहुल गाँधी की इस राजनीतिक सक्रियता और गुजरात में कांग्रेस की मजबूत होती पकड़ के पीछे राजीव गाँधी के विश्वासपात्र रहे राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का ही दिमाग था।

    यूँ तो सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल को कांग्रेस का चाणक्य कहा जाता है पर गुजरात विधानसभा चुनावों में गुजरात कांग्रेस प्रभारी अशोक गहलोत ने यह भूमिका निभाई थी। 80 के दशक से गाँधी परिवार के भरोसेमंद रहे अशोक गहलोत को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी राजस्थान की राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में लाए थे।

    अशोक गहलोत इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में केंद्रीय मंत्री के पद पर रहे थे। गाँधी परिवार से अपनी नजदीकियों के चलते अशोक गहलोत 2 बार राजस्थान के मुख्यमंत्री भी बने थे। अशोक गहलोत ने गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी का मार्गदर्शन किया था। भारतीय सियासत के पुराने खिलाड़ी अशोक गहलोत के पास दशकों का सियासी तजुर्बा है और गुजरात विधानसभा चुनाव में इसकी बानगी भी देखने को मिली थी।

    राष्ट्रपति चुनावों के ठीक बाद दिग्गज कांग्रेसी शंकर सिंह वाघेला ने गुजरात कांग्रेस से किनारा कर लिया था। इस वजह से राज्यसभा चुनावों के वक्त कांग्रेस उम्मीदवार अहमद पटेल की दावेदारी खतरे में पड़ गई थी। तमाम दुश्वारियों के बावजूद भी कांग्रेस के चाणक्य अहमद पटेल भाजपा का सियासी चक्रव्यूह भेदने में सफल रहे। राज्यसभा चुनावों में अहमद पटेल की जीत में भी गुजरात कांग्रेस प्रभारी अशोक गहलोत की बड़ी भूमिका रही थी।

    कांग्रेस ने इस बार गुजरात विधानसभा चुनावों में अहमद पटेल को प्रचार अभियान में नहीं उतारा था फिर भी गुजरात की सियासत में उनकी महत्ता से किसी को इंकार नहीं था। शंकर सिंह वाघेला की बगावत के बाद गुजरात कांग्रेस में शक्ति सिंह गोहिल, भरत सिंह सोलंकी और अर्जुन मोडवाड़िया जैसे नेता बचे थे। ये सभी क्षेत्रीय नेता थे और इनमें से किसी का कद अकेले दम पर पार्टी की जिम्मेदारी उठा लेने लायक नहीं था। ऐसी नाजुक परिस्थितियों में अशोक गहलोत ने महीनों गुजरात में रहकर कांग्रेस संगठन और कार्यकर्ताओं में नया जोश फूँकने का काम किया था और उनका मार्गदर्शन किया था।

    कांग्रेस के नवनिर्वाचित राहुल गाँधी के तेवर पिछले कुछ समय से बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। राहुल गाँधी राजनीतिक रूप से काफी सक्रिय नजर आ रहे हैं। पिछले कुछ महीनों में राहुल गाँधी की लोकप्रियता में जबरदस्त बढ़ोत्तरी भी दर्ज की गई है। पिछले 22 सालों से गुजरात की सत्ता से बाहर रहने के बाद कांग्रेस इस बार भाजपा को टक्कर देती नजर आई थी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री अनरेन्द्र मोदी का गृह राज्य होने की वजह से गुजरात विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई बन गई थी जिसे जीतने के लिए उसे नाकों चने चबाने पड़े थे।

    भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपनी चुनावी रैलियों में इस बार गुजरात में 150+ सीटें जीतने की बात कहते फिर रहे थे। अशोक गहलोत के सियासी प्रबंधन और जातीय कार्ड के आगे उनके यह सभी दावे हवा साबित हुए। कांग्रेस ने गुजरात में भाजपा का विरोध कर रहे हर नेता से हाथ मिलाया और सियासी माहौल को कांग्रेस के पक्ष में करने की जी-तोड़ कोशिश की। यह कोशिश काफी हद तक कारगर भी साबित हुई और कांग्रेस पिछले 22 वर्षों में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने में सफल रही।

    कांग्रेस में पिछले काफी वक्त से राहुल गाँधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की माँग उठ रही थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी भी यह इच्छा जाहिर कर चुकी थी कि राहुल गाँधी अब कांग्रेस की कमान सँभाल लें। ऐसे में गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का सुधरा हुआ प्रदर्शन राहुल गाँधी के लिए अच्छा प्लेटफार्म साबित हुआ। कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद गुजरात विधानसभा चुनाव राहुल गाँधी की पहली अग्निपरीक्षा थी जिसमे वो काफी हद तक खरे उतरे। राहुल गाँधी की इस सफलता में बड़ा योगदान गुजरात में उनके सियासी चाणक्य बने अशोक गहलोत का रहा है।

    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के गृह राज्य और भाजपा के अभेद्य दुर्ग कहे जाने वाले गुजरात में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन ने पार्टी में राहुल गाँधी के कद को और ऊँचाई दी और संगठन में बतौर अध्यक्ष उनकी स्वीकार्यता और भी बढ़ गई। राहुल गाँधी लगातार गुजरात में राजनीतिक रूप से काफी सक्रिय नजर आए थे जो कांग्रेस के सियासी भविष्य के लिए अच्छा संकेत है। राहुल गाँधी ने भाजपा को रोकने के लिए गुजरात का जातीय समीकरण भी साधा था और अपनी पहली ही परीक्षा में जातीय राजनीति का ककहरा सीख लिया था। राहुल को जातीय कार्ड का पाठ सिखाने वाले कोई और नहीं वरन अशोक गहलोत ही थे।

    गुजरात देश का एकलौता ऐसा राज्य था जहाँ पिछले कई चुनावों से भाजपा विकास को मुख्य मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ती आ रही थी और उसे जीत भी हाथ लग रही थी। बतौर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में गुजरात में भाजपा की लोकप्रियता चरम पर थी और गुजरात देश के सबसे समृद्ध राज्यों की सूची में अग्रणी स्थान पर था। मगर देशभर में विकास का ढिंढोरा पीटने वाला गुजरात इस बार जातीय गणित की सियासत में उलझ कर रह गया था।

    भाजपा का कोर वोटबैंक माना जाने वाला पाटीदार समाज भाजपा से कट गया था और राज्य के दो अन्य मुख्य मतदाता वर्ग ओबीसी व दलित समाज भी भाजपा के खिलाफ खड़े हो चुके थे। इन सभी आन्दोलनरत जातियों को साधकर कांग्रेस की ओर मिलाने का काम किया अशोक गहलोत ने। अशोक गहलोत ने कांग्रेस के इस जातीय गठजोड़ से भाजपा को गुजरात में बैकफुट पर ला खड़ा कर दिया था।

    अभी तक देश में कांग्रेस की छवि मुस्लिम हितैषी दल की रही थी और हर चुनाव में मुस्लिम समाज के वोटर खुल कर कांग्रेस का साथ देते थे। गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा के परंपरागत हिंदुत्व कार्ड की काट के लिए कांग्रेस ने इस बार जातीय वोटरों को साधने का दांव खेला था। गुजरात की सत्ताधारी भाजपा सरकार के खिलाफ आन्दोलनरत पाटीदार, ओबीसी और दलित समाज के नेताओं को अपनी ओर मिलाकर अशोक गहलोत ने गुजरात का सियासी कायापलट करने की पुरजोर कोशिश की थी।

    अब तक एकतरफा रहने वाला गुजरात चुनाव इस बार सभी पूर्वानुमानों और आंकलनों से परे रहा और भाजपा-कांग्रेस के बीच का अंतर नाम मात्र का रह गया। इतिहास इस बात का गवाह है कि भाजपा हमेशा से ही जातिगत राजनीति के दांव में उलझ कर रह जाती है और उसकी नैया पार नहीं लग पाती। बिहार विधानसभा चुनाव इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जब ओबीसी-यादव-मुस्लिम समीकरण में उलझकर भाजपा को मुँह की खानी पड़ी थी। हालाँकि गुजरात में भाजपा की नैया किसी तरह पार लग गई पर निश्चित तौर पर कांग्रेस सेंधमारी करने में सफल रही।

    भाजपा के हिंदुत्व कार्ड की काट के लिए गुजरात कांग्रेस प्रभारी अशोक गहलोत ने भाजपा के हिंदुत्व और विकास कार्ड के सामने कांग्रेस का जातीय कार्ड खेला था। आन्दोलनरत जातीय आन्दोलन के अगुवाओं की त्रिमूर्ति गुजरात में भाजपा के गले का फांस बन गई थी। अल्पेश ठाकोर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी की यह तिकड़ी कांग्रेस के लिए उतनी ही फायदेमंद साबित हुई जितनी भाजपा के लिए नुकसानदेह।

    अशोक गहलोत ने इस तिकड़ी को राहुल गाँधी से मिलाने से लेकर उनकी मांगों पर सहमति तक की कहानी लिखी और जातीय गठजोड़ के दौरान वह हमेशा सक्रिय दिखे। अल्पेश ठाकोर और उनके वफादार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे थे जबकि जिग्नेश मेवानी की निर्दलीय उम्मीदवारी को कांग्रेस ने समर्थन दिया था। कांग्रेस के इस जातीय कार्ड से बैकफुट पर आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी चुनावी यात्रा के दौरान यह तक कहना पड़ा कि गुजरात के लोग विकास की राह छोड़कर जातीय राजनीति के बहकावे में ना आए।

    आम तौर पर यह देखा गया है कि प्रदेश प्रभारी के दूसरे राज्य से होने के कारण स्थानीय नेता उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं देते हैं। हिमाचल कांग्रेस में इसका स्पष्ट प्रमाण देखा गया था जब मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने टिकट बँटवारे में हस्तक्षेप पर बगावत की धमकी दे डाली थी। इस मामले में गुजरात में हालात बिल्कुल अलग रहे। अशोक गहलोत के सियासी तजुर्बे का गुजरात कांग्रेस के सभी नेताओं ने सम्मान किया और उनके निर्णयों पर सबकी सहमति रहती थी। यह बात भी अशोक गहलोत की संगठन स्वीकार्यता को मजबूती देती है।

    अशोक गहलोत ने गुजरात में भाजपा के प्रभाव वाली 50 सीटों को छोड़कर 132 ऐसी सीटों को चिन्हित किया था जहाँ कांग्रेस के जीतने के आसार सबसे अधिक थे। कांग्रेस का लक्ष्य इन 135 में से 120 सीटों पर जीत हासिल करना था। इसके लिए कांग्रेस कार्यकर्ता और नेता जी-जान से जुटे थे और दिन-रात एक किए हुए थे। हालाँकि इतनी मेहनत के बावजूद कांग्रेस अपने लक्ष्य से दूर रह गई पर उसने भाजपा को हर जगह कड़ी टक्कर दी। भाजपा को बैकफुट पर रखने के लिए अशोक गहलोत ने नोटबंदी, जीएसटी, जातीय आन्दोलन को अहम चुनावी मुद्दा बनाया था जो कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित हुआ।

    गुजरात यात्रा के दौरान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के नए अंदाज देखने को मिले। सोशल मीडिया पर सक्रियता और लोकप्रियता के अतिरिक्त राहुल गाँधी ने भाजपा के भगवे को टक्कर देने के लिए द्वारका में पीली चादर ओढ़ी। राहुल गाँधी अपनी गुजरात यात्रा के दौरान मंदिर-मंदिर घूमते नजर आए और जनसभाओं में भी माथे पर तिलक-त्रिपुण्ड लगाए दिखे। राहुल गाँधी ने कांग्रेस की छवि में सुधार की जो कोशिश शुरू की थी दरअसल उसका सुझाव अशोक गहलोत का ही था।

    भाजपा कांग्रेस पर ‘हिंदुत्व विरोधी’ और ‘अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण’ करने वाला दल होने का आरोप लगाती थी जिस पर जवाबी हमला करते हुए राहुल गाँधी ने यह सॉफ्ट हिंदुत्व का दांव खेला था। राहुल गाँधी की यात्राओं के दौरान कोई भी मुस्लिम नेता उनके आस-पास नजर नहीं आ आया और ना ही अहमद पटेल गुजरात के चुनाव प्रचार में दिखाई दिए। इसका कारण यह था कि पिछले चुनावों में प्रचार के अंतिम चरण में नरेंद्र मोदी ने ‘मियाँ अहमद पटेल’ कह कर मतों का ध्रुवीकरण कर लिया था जो भाजपा की जीत का आधार बना था।

    राहुल गाँधी की इस सॉफ्ट हिंदुत्व हितैषी छवि के पीछे अशोक गहलोत का दिमाग था। 2014 के लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस ने पूर्व रक्षामंत्री ए के एंटनी के नेतृत्व में हार के कारणों का पता लगाने के लिए कमेटी गठित की थी। एंटनी कमेटी द्वारा दी गई रिपोर्ट में कांग्रेस की हिंदुत्व विरोधी छवि को भी हार के प्रमुख कारणों में से एक माना गया था। राहुल गाँधी पिछले कुछ समय से पार्टी की इस छवि को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

    राहुल गाँधी ने गुजरात में अपने चुनावी दौरों पर मंदिरों में जाकर मत्था टेका और माथे पर त्रिपुण्ड-तिलक लगाए नजर आए। सियासी गलियारों में उनका यह अवतार चर्चा का विषय बना रहा। भाजपा ने दो दशक पहले इसी हिंदुत्व मुद्दे को आधार बनाकर कांग्रेस को गुजरात की सत्ता से बेदखल किया था और कांग्रेस इसी हिंदुत्व हितैषी छवि का सहारा लेकर गुजरात की सत्ता तक पहुँचने की कोशिश में लगी थी। राहुल गाँधी चुनाव प्रचार भले गुजरात में कर रहे थे पर उनकी नजर दिल्ली पर थी। राहुल की छवि को चमकाने का काम भी अशोक गहलोत कर रहे हैं ताकि 2019 में वह विपक्षी मोर्चे के लिए पीएम नरेन्द्र मोदी का विकल्प बनकर उभरे।

    राजस्थान में अशोक गहलोत की साख आज भी घटी नहीं है और कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा आज भी उनका हितैषी है। गहलोत के मार्गदर्शन में गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन में आए हुए सुधार को देखकर राजस्थान कांग्रेस में गुटबाजी की आशंका बढ़ गई है। कांग्रेस के सामने आज देश में अपना सियासी अस्तित्व बचाने का संकट खड़ा है और अशोक गहलोत राजस्थान में कांग्रेस को नई राह दिखा सकते हैं। राजस्थान की जनता बार-बारी से भाजपा और कांग्रेस को आजमाती आई है और अशोक गहलोत 2 बार राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। सियासी तजुर्बे से लेकर जन लोकप्रियता तक में फिलहाल राजस्थान कांग्रेस में उनका कोई सानी नहीं है।

    अगर बात करें राजस्थान के वर्तमान कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट की तो युवा वर्ग में उनकी लोकप्रियता पर किसी को संदेह नहीं है। ना केवल राजस्थान कांग्रेस वरन भाजपा में भी उनके कद का कोई गुर्जर नेता नहीं है। सचिन पायलट के पिता और पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय राजेश पायलट एक मँझे हुए राजनीतिज्ञ रह चुके हैं और इस वजह से सचिन पायलट की दावेदारी मजबूत है। नेताओं के एक खास वर्ग में सचिन पायलट की गहरी पैठ है और वह कहीं खिसकने वाली नहीं है। सचिन पायलट पर कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गाँधी का हाथ है।

    कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गाँधी के काम करने का तरीका थोड़ा अलग है और वह तजुर्बेगार राजनेताओं की जगह युवाओं को तरजीह देने के लिए जाने जाते हैं। पर राजस्थान में कांग्रेस के चहरे का चुनाव करना उनके लिए काफी कठिन होगा क्योंकि एक ओर जहाँ अशोक गहलोत उनके सियासी मार्गदर्शक हैं वहीं दूसरे ओर सचिन पायलट उनके खासमखास है। ऐसे में वह किसी को भी नाराज नहीं कर सकते हैं। इन सबसे परे राहुल गाँधी को राजस्थान में पार्टी कार्यकर्ताओं की बात सुननी होगी जो दो खेमों में बँटते जा रहे हैं। उनके एक गलत निर्णय से कांग्रेस को राजस्थान में भी खेमेबाजी का सामना करना पड़ सकता है और पार्टी प्रदेश इकाई में बगावती सुर उठ सकते हैं।

    अटकलें लगाईं जा रही हैं कि इस खेमेबाजी से बचने के लिए कांग्रेस अशोक गहलोत को राज्यसभा भेज सकती है या फिर उन्हें पार्टी संगठन में किसी बड़े ओहदे से नवाजा जा सकता है। राजस्थान में कांग्रेस का चेहरा सचिन पायलट ही होंगे और अशोक गहलोत को बड़ी राष्ट्रीय भूमिका देकर उन्हें राहुल गाँधी का सियासी मार्गदर्शक बनाया जाएगा। अशोक गहलोत राजस्थान की मरुधरा के वह विशाल वृक्ष हैं जिसके कटने का असर आस-पड़ोस के छोटे पेड़-पौधों पर तो होगा ही पर साथ ही कांग्रेस की सियासी राह पर भी रेत का गुबार छा जाएगा। ऐसे में अशोक गहलोत की भूमिका निर्धारण को लेकर कांग्रेस को सावधानी बरतनी जरुरी है वरना राजस्थान में उनको दरकिनार करना कांग्रेस को काफी भारी पड़ सकता है।

    By हिमांशु पांडेय

    हिमांशु पाण्डेय दा इंडियन वायर के हिंदी संस्करण पर राजनीति संपादक की भूमिका में कार्यरत है। भारत की राजनीति के केंद्र बिंदु माने जाने वाले उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले हिमांशु भारत की राजनीतिक उठापटक से पूर्णतया वाकिफ है।मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक करने के बाद, राजनीति और लेखन में उनके रुझान ने उन्हें पत्रकारिता की तरफ आकर्षित किया। हिमांशु दा इंडियन वायर के माध्यम से ताजातरीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपने विचारों को आम जन तक पहुंचाते हैं।