संसद में जारी शीतकालीन सत्र के दौरान जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2023 (Jammu & Kashmir Reorganization Amendment Bill 2023) को पेश करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह (MoHA Amit Shah) ने आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) पर जोरदार हमला करते हुए उन्हें वर्तमान कश्मीर समस्या के लिए जिम्मेदार बताया।
Lok Sabha passes two bills on J-K; Amit Shah targets Congress, talks of Nehru’s ‘blunders’
अमित शाह ने संसद के पटल पर अपने भाषण के दौरान कहा कि, “मैं पूरी जिम्मेदारी से यह कहता हूँ कि कश्मीर जिस समस्या से जूझ रहा है उसके लिए नेहरू के द्वारा की गई दो गलतियां जिम्मेदार हैं। पहला यह कि सीजफायर (संदर्भ: 1948 भारत पाकिस्तान युद्ध) की घोषणा उस वक़्त हुई जब भारतीय सेना युद्ध जीत रही थी…हम पूरा कश्मीर जीत सकते थे। दूसरी गलती उन्होंने इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाकर किया था।”
हालांकि यह पहली बार नहीं है कि सत्तारूढ़ भाजपा के तरफ़ से कोई नेता नेहरू के ऊपर हमला किया है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और प्रवक्ताओं पर अक्सर ही यह आरोप लगते रहता है कि मोदी सरकार के दोनों कार्यकाल की हर छोटी बड़ी विफलताओं के लिए ‘नेहरू’ जिम्मेदार हैं।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है जब पिछले 10 सालों में पंडित नेहरू (Pt. Nehru) और गाँधी पर जमकर वैचारिक हमला किया गया है। ये हमले वैचारिक मतभेद या विचारधारा की लड़ाई तक सीमित नहीं रहते, बल्कि एक ख़ास विचारधारा के लोग नेहरू के चरित्र से लेकर उनके ‘तथाकथित विलासितापूर्ण’ आदि को खूब मिर्च मसाले के साथ पेश करते रहे हैं।
तो क्या अमित शाह के द्वारा संसद में नेहरू को कश्मीर की समस्या (Kashmir Issue) का जिम्मेदार बताने वाले बयान को इसी सिलसिले में देखा जाए? तो इसका स्पष्ट जवाब है- बिल्कुल नहीं…. और ऐसा इसलिए क्योंकि अमित शाह एक राजनीतिक दल के अव्वल दर्जे के नेता हैं, बल्कि वे देश के गृह मंत्री (Home Minister) हैं और संसद में कही गयी उनकी बात तथ्यों पर सही ही होना चाहिए।
नेहरू, पटेल और कश्मीर सहित रियासतों का भारत मे मिलन
भारत जब अंग्रेजी हुक़ूमत से आज़ाद हुआ तो उस वक़्त भारत कई रियासतों में बंटा हुआ था। इन रियासतों को 3 तीन विकल्प दिए गए जिसके अधीन उन्हें भारत या पाकिस्तान में से किसी एक पक्ष को चुनने अथवा स्वतंत्र राज्य बनकर रहने की आज़ादी ढ़ी गयी थी।
इन तमाम रियासतों में से ज्यादातर ने भारत या पाकिस्तान को चुन लिए थे, परंतु कुछ रियासतों ने स्वतंत्र रहने का फैसला लिया था। इनमें सबसे प्रमुख 3 बड़े रियासत जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर थे जिन्होंने भारत या पाकिस्तान किसी भी पक्ष को नहीं चुना था।
जम्मू व कश्मीर रियासत, जिसकी सीमाएं तब के पश्चिमी पाकिस्तान से मिलती थीं, वह एक मुस्लिम बाहुल्य रियासत थी जिसका शासक एक हिन्दू राजा था। जबकि जूनागढ़ और हैदराबाद की स्थिति कश्मीर के ठीक उलट थी। वहां की अवाम हिन्दू बाहुल्य थी जबकि शासक मुस्लिम था।
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि कश्मीर को भारत का हिस्सा होना चाहिए जबकि तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल (sardar Patel) हैदराबाद को भारत के हिस्सा किसी भी कीमत पर बनाना चाहते थे। पटेल का मानना था कि मुस्लिम शासक के अंदर हिन्दू बाहुल्य आवाम वाला हैदराबाद भविष्य में भारतीय भूमि के लिए एक कैंसर के तरह साबित हो सकता है।
इसी संदर्भ में वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह के द्वारा कश्मीर की समस्या के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराए जाने के बाद प्रत्युत्तर में कांग्रेस नेता अधीर-रंजन चौधरी ने कहा कि सरदार पटेल ने तो हैदरबाद को भारत मे शामिल करने के बदले कश्मीर को पाकिस्तान में जाने देना चाहते थे।
प्रख्यात अंग्रेज लेखिका और इतिहासकार विक्टोरिया स्कॉफील्ड (Victoria Schofield) ने अपनी किताब “कश्मीर इन कंफ्लिक्ट (Kashmir in Conflict) ” में भी कुछ ऐसा ही जिक्र किया है जो नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने कहा है। उनके इस किताब में जिक्र है कि माउन्टबेटन (Lord Mountbatten) के राजनैतिक सलाहकार सर कॉनराड कॉरफील्ड (Sir Conrod Corfield) ने भी कश्मीर के बदले हैदराबाद के अदला-बदली जैसी व्यवस्था (Barter System) की वकालत की थी लेकिन इसका पंडित नेहरू के कश्मीर को भारत मे शामिल करने के दृढनिश्चय के आगे कोई वजन नहीं था।
जाहिर है, कश्मीर के संदर्भ में उन तमाम बातों को जिसका जिक्र गृहमंत्री (Amit Shah) ने संसद में किया है – जैसे मसलन कश्मीर का भारत मे विलय, या युद्ध जीतने की स्थिति में होने के बावजूद सीजफायर की घोषणा या फिर इस मामले को UN में लेकर जाना आदि- को समझने के लिए तत्कालीन परिस्थितियों को समझना जरूरी है। कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के अड़ियल रुख में जूनागढ़ और हैदराबाद का भारत मे विलय काकितना योगदान है, इसे समझना भी अतिमहत्वपूर्ण है।
जूनागढ़ का भारत मे विलय (Accession of Junagarh)
जूनागढ़ रियासत तत्कालीन गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में स्थित था, जहाँ नवाब मोहम्मद महाबत खान जी तृतीय का शासन था। नवाब ने पहले तो जूनागढ़ का भारत मे विलय करने के संकेत दिए थे लेकिन आज़ादी के ठीक कुछ महीने पहले बने जूनागढ़ के नए प्रधनमंत्री सर शाह नवाज़ भुट्टो के कहने पर नवाब ने 14 अगस्त 1947 को अपने राज्य का पाकिस्तान में विलय करने की घोषणा कर दी।
यद्यपि कि जूनागढ़ की पूरी आबादी का 90% हिस्सा हिन्दू लोगों का था, फिर भी नवाब में इस राज्य को धर्म के आधार पर बने नए मुस्लिम बाहुल्य देश पाकिस्तान में विलय करने का फैसला कर लिया। उधर पाकिस्तान ने नवाब के इस फैसले को तुरंत ही स्वीकार भी कर लिया था जबकि जूनागढ़ का कोई भी भूभाग पाकिस्तान से सीमा भी साझा नहीं करता था।
नवाब के इस फैसले के बाद जूनागढ़ के दो छोटे सहयोगी भाग में विरोध और अशांति फैल गयी। भारत ने इसे शांत करने के लिए सेना भेज दी। इसके बाद नवाब के फैसले के विरोध की चिंगारी पूरे जूनागढ़ में फैल गई जिसके बाद नवाब पाकिस्तान भाग गए और उनके प्रधानमंत्री भुट्टो के आग्रह पर जूनागढ़ को भारत मे मिला दिया गया। बाद में जनमत संग्रह भी करवाया गया जिसमें जूनागढ़ की 91% से ज्यादा आबादी ने भारत के पक्ष में मत दिए।
हैदराबाद का भारत मे विलय (Accession of Hyderabad)
हैदराबाद की भौगोलिक स्थिति और राज्य में हिन्दू बाहुल्य आबादी का होना – ये दो ऐसे वजहें थीं जिसके कारण हैदराबाद के पाकिस्तान में विलय करने की बात निहायत ही अव्यवहारिक थी। सरदार पटेल ने हैदराबाद के निज़ाम मीर उस्मान अली को अपना फैसला लेने के लिए भरपूर वक़्त दिया। पटेल ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि निज़ाम का मुस्लिम दुनिया मे काफ़ी इज्जत और रसूख थी।
भारत की आज़ादी के 3 महीने बाद तक स्थिति ज्यों की त्यों बनी थी और हैदराबाद अभी भी एक स्वतंत्र राज्य था। लेकिन हैदराबाद के बाहर पूरे देश मे बदलते हालातों का फर्क हैदराबाद के भीतर भी पड़ रहा था। निज़ाम के ख़िलाफ़ विरोध के सुर उठने लगे थे। हैदराबाद की आम जनता भी लोकतंत्र की मांग कर रही थी। बड़े जमींदारों का विरोध होने लगा था। साथ ही बंधुआ मजदूरी और अनियमित भारी कर आदि इस विरोध की अन्य वजहें थी।
इस अशांति के कारण 13 सितम्बर 1948 को भारत सरकार ने अपनी सेना हैदराबाद के अंदर भेज दी। इस सैन्य कार्रवाई को ऑपरेशन पोलो (Operation Polo) का नाम दिया गया जिसमें 3 दिन के भीतर ही निज़ाम की सेना ने भारतीय सेना के आगे घुटने टेक दिए और हैदराबाद भारत का हिस्सा बन गया।
जम्मू-कश्मीर का भारत मे विलय (Accession of Jammu & Kashmir)
जब देश का विभाजन हुआ, उस वक़्त जम्मू-कश्मीर के राजा महाराजा हरि सिंह (Maharaja Hari Singh) ने भारत और पाकिस्तान दोनों में से किसी को चुनने के बजाए एक स्वतंत्र राज्य के रूप में बने रहने का विकल्प चुना था। लेकिन कुछ ही दिनों के भीतर सितंबर 1947 में जम्मू-कश्मीर में आने वाली पेट्रोल, चीनी, नमक, कपड़े आदि से भरी गाड़ियों को सीमा के उस पार पाकिस्तान में रोक लिया गया।
यह शायद पाकिस्तान के तरफ से जम्मू-कश्मीर पर विलय करने को दवाब बनाने के लिए किया गया था। उसी वक़्त जम्मू कश्मीर के पूंछ में महाराजा हरिसिंह के ख़िलाफ़ विरोध आंदोलन भड़क गया।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा (Ramchandra Guha) अपनी किताब “इंडिया आफ्टर गाँधी (India After Gandhi)” में कहते है- “नेहरू, सरदार पटेल को पत्र लिखते हैं कि जम्मू-कश्मीर के हालात खतरनाक और लगातार ख़राब होते जा रहे थे।”
ब्रिटिश इतिहासकार विक्टोरिया स्कॉफील्ड ने अपनी किताब (Kashmir in Conflict) में लिखा है कि नेहरू को पूरा भरोसा था कि “पाकिस्तान ने सर्दियों के पहले कश्मीर में घुसपैठ करने की पूरी योजना बना ली थी क्योंकि सर्दियों में बर्फ पड़ने के कारण देश से कट जाता है और पाकिस्तान इसी स्थिति का फायदा उठाना चाहता है। इसलिए जल्दी ही कोई कार्रवाई करने की जरूरत है।”
हुआ भी ऐसा ही था। पाकिस्तानी घुसपैठियों का झुंड अक्टूबर में ही कश्मीर पर कबायली फ़ौज के भेष में आक्रमण कर दिया था। इन कबायली फ़ौज में पाकिस्तान सेना के जवान भी अपनी असली पहचान को छुपाकर मिले हुए थे।
जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह (Maharaja Hari Singh) ने इस आक्रमण के बाद भारत से मदद माँगी और कश्मीर का भारत मे विलय कर दिया। इसके बाद भारतीय सेना ने घुसपैठियों को श्रीनगर और कश्मीर के अलग अलग भागों से खदेड़ना शुरू किया और कश्मीर के अधिकांश हिस्सों को उनके नियंत्रण से मुक्त करा लिया था।
कश्मीर पर नेहरू की ‘गलती’ ?
अमित शाह ने इसी कबाइली हमलों पर भारत के कार्रवाई को लेकर नेहरू के फैसलों को उनकी गलती बताई है कि जब हमारी सेना जीत रही थी तो अचानक नेहरू इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में क्यों लेकर चले गए?
इतिहास के पन्नो को खंगाल कर उस वक़्त के हालात के मद्देनजर देखा जाए तो नेहरू या उनकी सरकार का कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nation Organization) में लेकर जाने का फैसले के पीछे तत्कालीन हालात कई वजहें थीं।
सर्वप्रथम तो यह कि नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) में इस मुद्दे को लेकर जाने का फैसला ब्रिटिश सरकार और तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउन्टबेटन (Lord Mountbatten) के दवाब में किया था। हमें यह नही भूलना चाहिए कि उस वक़्त दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध से कुछ साल पहले ही निकला था। तब भारत विश्वपटल पर एक नए देश के रूप में उभरा ही था और दो ध्रुवों में बंटी दुनिया में से किसी भी पक्ष में नहीं शामिल हुआ था। ऐसे में भारत पर युद्ध को रोकने का अंतरराष्ट्रीय दवाब था।
दूसरा, इस युद्ध के जवाब में कश्मीर के बाहर भी देश के अन्य हिस्से जैसे पंजाब, बंगाल आदि में भी युद्ध जैसा माहौल पैदा होने का खतरा था।ये वह राज्य थे जहाँ बंटवारे के बाद विस्थापन के दौरान उभरी अराजकता के माहौल का दंश सबसे ज्यादा झेल रहे थे।
तीसरा, यह युद्ध भारत के लिए आर्थिक रूप से भी बेहद नुकसानदेह हो रहा था। पटेल स्वयं ने दिल्ली के भीतर एक सार्वजनिक पुस्तकालय के उद्घाटन के दौरान कहा था कि, “आपको यह जानना चाहिए कि उस युद्ध पर हर रोज़ 4 लाख रुपया प्रतिदिन खर्च हो रहे है।”
चौथी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि हमें उस वक़्त के विश्व-राजनीति का माहौल देखना चाहिए। 15 अगस्त 1947 को भारत एक नया मुल्क बना था। उसके कुछ साल पहले ही संयुक्त राष्ट्र संघ (UN) का भी जन्म हुआ था जिसकी प्रमुख जिम्मेदारी निष्पक्षता के साथ युद्धों को रोकना और दो राष्ट्रों के बीच के मतभेद को निपटाना था।
यही वजह थी कि वह भारत सरकार ने कश्मीर के मुद्दे को यूएन में ले जाना उचित समझा। इस कदम का मक़सद बड़ा स्पष्ट था कि एक निष्पक्ष संस्था (UN) के फैसलों के तहत कश्मीर की समस्या को एक बार मे हमेशा के लिए सुलझाने की कोशिश थी।
परंतु संयुक्त राष्ट्र संघ (UN) से भारत को निराशा हाँथ लगी। कश्मीर मुद्दे पर ब्रिटेन और अमेरिका का रवैया भारत के लिये सबसे चौंकाने वाला था। ब्रिटेन द्वारा फिलिस्तीन को दो भागों में बाँटने के बाद पाकिस्तान जैसे किसी मुस्लिम राष्ट्र का विरोध नहीं करना चाहता था। उधर अमेरिका पाकिस्तान को तत्कालीन सोवियत यूनियन के ख़िलाफ़ एक महत्वपूर्ण मोहरा मानता था।
इसके बाद जल्दी ही, नेहरू खुद ही निराशा जाहिर करते हुए माउंटबेटन को कहा था, “संयुक्त राष्ट्र संघ को ‘शक्ति की राजनीति और अनैतिकता (Power Politics and Not Ethics)’ चला रही है जो पूरी तरह से अमेरिका द्वारा चलाया जा रहा है।” (संदर्भ: यूएन के रवैये पर- रामचंद्र गुहा की किताब India After Gandhi).
एक और महत्वपूर्ण बात जिसे गृह मंत्री अमित शाह ने उठाया, वह है- नेहरू सरकार का सीजफायर का फैसला जबकि उस वक़्त भारतीय फ़ौज जीतते हुए आगे बढ़ रही थी।
दरअसल, सीजफायर का फैसला संयुक्त राष्ट्र संघ (UN) के फैसले के तहत लिया गया था। भारत में कुछ लोग इसे उस सरकार द्वारा एक मौका चूक जाने और आज के पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) के लिए जिम्मेदार मानते हैं। पाकिस्तान में भी इस फैसले को भारत के पक्ष में होना माना जाता है।
पाकिस्तान के पूर्व कर्नल अब्दुल हक़ मिर्जा (जिन्होंने 1948 के युद्ध मे हिस्सा लिया था) के हवाले से विक्टोरिया स्कॉफील्ड ने अपनी किताब में लिखा है कि सीजफायर की घोषणा उंस वक़्त हुई जब हालात पाकिस्तान के लिए बेहतर होने वाले थे।
कुलमिलाकर अमित शाह द्वारा यह कहना कि कश्मीर की समस्या के लिए तत्कालीन नेहरू सरकार जिम्मेदार हैं, शायद उस वक़्त के हालात का अतिसरलीकरण है। यह बात पूरे संदर्भ के साथ देखी जाए तो शायद कश्मीर की समस्या की जड़ उस वक़्त की विश्व-राजनीति और भारत के हालात थें जिसके कारण नेहरू सरकार दिल पर पत्थर रखकर कुछ फैसले लेने पर मजबूर थी। फिर इन फैसलों के लिए अकेले नेहरू-एक व्यक्ति जिम्मेदार नहीं है, बल्कि पूरी कैबिनेट ने मिलकर यह फैसले किये थे।
| For me, Writing is a Passion more than the Profession! |
| Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; |
||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||
2 thoughts on “कश्मीर, नेहरू और संसद में गृह मंत्री अमित शाह का अर्धसत्य”
बहुत खूब सर।।।आशा है आपका ये आर्टिकल अमित शाह और उनके अनुयाईयों तक पहुचे।।जिससे उन्हे अपने आधे अधूरे और गलत ज्ञान को पुरा और सही करने में मदद मिले।।।।।
बहुत खूब सर।।।आशा है आपका ये आर्टिकल अमित शाह और उनके अनुयाईयों तक पहुचे।।जिससे उन्हे अपने आधे अधूरे और गलत ज्ञान को पुरा और सही करने में मदद मिले।।।।।
लेख मे तत्कालीन परिस्थितियों का आसान शब्दों मे सविस्तार वर्णन किया है……