दो नोड के बीच डाटा के ट्रांसमिशन के लिए डाटा लिंक लेयर जिम्मेदार होता है। इसके प्रमुख फंक्शन निम्नलिखित हैं:
डाटा लिंक कण्ट्रोल, और
मल्टीपल एक्सेस कण्ट्रोल
डाटा लिंक कण्ट्रोल (data link control in hindi)
डाटा लिंक कण्ट्रोल ट्रांसमिशन चैनल में डाटा के रिलाएबल ट्रांसमिशन के लिए जिम्मेदार होता है। ये इसके लिए फ्रेमिंग, एरर कण्ट्रोल और फ्लो कण्ट्रोल जैसे तकनीक का प्रयोग करता है।
मल्टीपल एक्सेस कण्ट्रोल (multiple access control in hindi)
अगर संदर और रिसीवर के बीच एक डेडिकेटेड लिंक है तो डाटा लिंक लेयर पर्याप्त है लेकिन अगर ऐसा नही है तो एक से ज्यादा स्टेशन उस रिसीवर को एक साथ एक्सेस कर सकते हैं।
इसीलिए किसी भी प्रकार के टकराव जिन्हें हम collison कहते हैं और crosstalk से बचने के लिए मल्टीपल एक्सेस प्रोटोकॉल्स कि जरूरत पड़ती है।
उदहारण के तौर पर एक क्लासरूम (नेटवर्क) को ले लीजिये जहां शिक्षक छात्रों (ढेर सारे स्टेशन)से कोई सवाल पूछता है और सभी छात्र एक साथ जवाब देना शुरू कर देते हैं (एक ही समय पर बहुत सरे डाटा का जाना) तो हो-हल्ला वाली स्थित आ जाती है (collision यानी टकराव और crosstalk या डाटा ओवरलैप). ऐसी स्थिति में ये शिक्षक (मल्टीप्ल एक्सेस प्रोटोकॉल्स) कि जिम्मेदारी बनती है कि कि छात्रों को मैनेज करे जिस से एक बार में एक छात्र ही जवाब दे।
मल्टीपल एक्सेस प्रोटोकॉल्स के प्रकार (types of multiple access protocol in hindi)
इसीलिए नॉन-डेडिकेटेड चैनल में डाटा को शेयर करने के लिए इन प्रोटोकॉल्स कि जरूरत होती है। मल्टीपल एक्सेस प्रोटोकॉल्स को इन भागों में विभाजित किया गया है:
इसमें जितने भी स्टेशन होते हैं उन सब का समान समान कद होता है जिसका मतलब किसी भी स्टेशन को एक दूसरे के उपर प्रायोरिटी नहीं दी जाती।
यहाँ माध्यम की स्थिति (स्थिर या व्यस्त) कोड एखते हुए कोई भी स्टेशन डाटा को भेजने का काम कर सकता है। इसके दो फीचर निम्न हैं:
डाटा भेजने के लिए कोई निर्धारित समय कि बंदिश नहीं है।
डाटा भेजने के लिए स्टेशन का कोई भी क्रम या सीक्वेंस नही है।
रैंडम एक्सेस प्रोटोकॉल को भी चार भागों में विभाजित कियी गया है जिन सब की चर्चा हम एक-एक कर के करेंगे:
a. ALOHA
इसे वायरलेस LAN के लिए डिजाईन किया गया था लेकिन ये शेयर्ड माध्यम में भी प्रभावी है। इसमें एक से ज्यादा स्टेशन समान समय पर डाटा का ट्रांसमिशन कर सकते हैं जिस से उनके टकराने और खोने का डर रहता है।
प्योर अलोहा
जब कोई स्टेशन डाटा भेजता है तो वो फिर acknowledgement का इन्तजार करता है जिसका मतलब हुआ वह रिसीवर्स इ यह जानना चाहता है कि पूरा डाटा अच्छी तरह से पहुंचा या नहीं।
जब acknowledgement समय पर नही आता तब सेंडर कुछ समय तक उसका इन्तजार करता है। इस समय को बैक-ऑफ समय (Tb)कहते हैं जिसके बाद सेंडर फिर से डाटा भेजता है।
चूंकि विभिन्न स्टेशन अलग-अलग समय तक इन्तजार करते हैं इसीलिए डाटा के टकराने की सम्भावना कम हो जाती है।
Vulnerable Time = 2* Frame transmission time
Throughput = G exp{-2*G}
Maximum throughput = 0.184 for G=0.5
Slotted ALOHA
ये प्योर अलोहा के समान ही है लेकिन इसमें समय को विभिन्न स्लॉट में विभाजित कर दिया जाता है उस स्लॉट के शुरू होने पर ही डाटा को भेजने कि अनुमति रहती है। अगर किसी स्टेशन ने स्लॉट के शुरू होते ही डाटा नही भेजा और देरी कर दी तो उसे अब अगले स्लॉट के लिए इन्तजार करना पड़ता है।
Vulnerable Time = Frame transmission time
Throughput = G exp{-*G}
Maximum throughput = 0.368 for G=1
b. CSMA/CA
इसका फुल फॉर्म हुआ Career Sense Multiple Access With Collision Avoidance. इसमें टकराव को डिटेक्ट करने कि प्रक्रिया में सेंडर के acknowledgement प्राप्त करने का कार्य भी शामिल है।
अगर एक ही सिग्नल है तो ये समझा जाता है कि डाटा सफलतापुर्वक भेज दिया गया है वहीं अगर दो सिग्नल हो तो (एक इसका अपना और एक जिसके साथ टकराव या collision हुआ है) तो ये समझा जाता है कि collision हुआ है।
इन दोनों स्थितियों में अंतर पता चलने के लिए collision का दोनों ही सिग्नल पर प्रभाव पड़ना जरूरी होता है। लेकिन वायर्ड नेटवर्क में ऐसा नही होता जिस कारण यहाँ CSMA/CA का इस्तेमाल किया जाता है।
CSMA/CA collision को निम्न तरीकों से बचाता है:
इंटरफ्रेम स्पेस– स्टेशन माध्यम के स्थिर होने का इन्तजार करता है और जब माध्यम idle हो जाता है तब ये तुरंत डाटा नहीं भेजता (propagation delay कि वजह से होने वाले collision को रोकने के लिए) बल्कि ये कुछ समय के लिए इन्तजार करता है जिसे इंटरफ्रेम स्पेस या IFS कहते हैं। इस समयावधि के बाद ये फिर से माध्यम के idle होने कि जांच करता है। IFS अवधि स्टेशन कि प्रायोरिटी पर निर्भर करता है।
Contention विंडो– ये एक समय कि मात्र है जिसे दो स्लॉट में विभाजित किया गया है। अगर सेंडर डाटा भेजने के लिए तैयार है तो ये इन्तीज कि अवधि के तौर पर स्लॉट कि रैंडम संख्या चुनता है जो जब-जब माध्यम इदेले नही मिलता तब दोगुना होता चला जाता है। अगर माध्यम व्यस्त है तो ये पूरी प्रक्रिया को फिर से शुरू नहीं करता बल्कि ये एक टाइमर को फिर से शुरू कर देता है जब माध्यम फिर से idle मिले तब से।
acknowledgement– अगर टाइम-आउट से पहले acknowledgement नही आया तो सेंडर डाटा को फिर से ट्रांसमिट करता है।
2. कंट्रोल्ड एक्सेस (controlled access)
इसमें डाटा को उसी स्टेशन को भेजने कि अनुमति दी जाती है जिसे सारे स्टेशन ने मिल कर चुना हो।
3. Channelisation
इस प्रक्रिया में लिंक का उपलब्ध bandwidth को समय, फ्रीक्वेंसी और कोड में मल्टीपल स्टेशन से एक्सेस स्टेशन तक शेयर कर दिया जाता है।
फ्रीक्वेंसी डिवीज़न मल्टीपल एक्सेस (FDMA)– इसमें उपलब्ध bandwidth को बराबर बाँट दिया जाता है ताकि सभी स्टेशन को अपना अलग बैंड मिले। गार्ड बैंड भी बनाये जाते हैं जो डाटा के collision और crosstalk को रोकते हैं।
टाइम डिवीज़न मल्टीपल एक्सेस– इसमें bandwidth को बहुत सारे स्टेशन के साथ शेयर किया जाता है। collision को रोकने के लिए समय को स्लॉट में विभाजित किया जाता है और सभी स्टेशन को डाटा ट्रांसमिट करने के लिए अलग स्लॉट उपलब्ध कराए जाते हैं। हर एक स्लॉट को सिंक्रोनाइजेशन बिट दिया जाता है ताकि सभी स्टेशन अपना स्लॉट पहचान सके। propagation delay को गार्ड बैंड्स द्वारा हल किया जाता है।
कोड डिवीज़न मल्टीपल एक्सेस– इसमें एक चैनल सारा ट्रांसमिशन एक साथ करता है।इसमें ना तो bandwidth को बांटा जाता है और ना ही समय को। उदाहरण के तौर पर मान लीजिये अगर किसी कमरे में बहुत सारे लोग एक साथ बोल रहे हों तब भी दो लोग एक दूसरे को समझ सकते हैं अगर वो समान भाषा में बात कर रहे हों तो। इसी तरह अलग-अलग कोड भाषा में अलग-अलग स्टेशन के डाटा को ट्रांसमिट किया जा सकता है।
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बीआईटी मेसरा, रांची से कंप्यूटर साइंस और टेक्लॉनजी में स्नातक। गाँधी कि कर्मभूमि चम्पारण से हूँ। समसामयिकी पर कड़ी नजर और इतिहास से ख़ास लगाव। भारत के राजनितिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक इतिहास में दिलचस्पी ।