बाबरी मस्जिद विध्वंश मामले में सुप्रीम कोर्ट से राममंदिर के पक्ष में फैसला आने के बाद अब अचानक मथुरा, काशी (Gyanwapi Survey) व आगरा (Tajmahal) में इन दिनों उठे विभिन्न मांगों ने इतिहास के पन्नों को फिर से पलटने व उसकी पटकथा को कई अन्य कसौटियों पर तौलने की बहस को फिर सब हवा दी है।
एक तरफ़ ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे, कोर्ट के फैसले के बाद करवाया जा रहा है जिसमें यह विवाद जुड़ा है कि यह मस्जिद भी मंदिर को तोड़कर बनाया गया है। वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ताजमहल के 22 तहख़ानों के ताले खुलवाने की मांग को सिरे से ख़ारिज करते हुए याचिकाकर्ता को जमकर खरी खोटी सुनाई है।
The Allahabad High Court on Thursday dismissed a petition seeking the constitution of a fact-finding committee to research on the “real history” behind #TajMahal Petitioner disputed that Taj Mahal was a Mughal structure.
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चूंकि ये सारे विवाद धर्म और आस्था से जुड़े हैं तो बेहतर है कि इसे अदालत के फैसलों और धर्म के जानकारों के लिए छोड़ देना चाहिए।
परंतु यह सत्य है कि इन दिनों देश मे इतिहास को लेकर एक नई तरह की दिलचस्पी पैदा हो गयी है या बेहतर कहें कि यह दिलचस्पी पैदा करवाई जा रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस इतिहास की नई दिलचस्पी के पीछे धार्मिक विवाद है, राजनीतिक नफा नुकसान है और साम्प्रदायिक सौहार्द है।
इतिहास का एक सिरा जब धार्मिक आस्था से जुड़ जाए तो तर्कों की गुंजाइश थोड़ी कम रह जाती है क्योंकि इस स्थिति में भावनाएं तर्क और किताबी सिद्धांतो पर हावी हो जाती है।
इन विवादों के सहारे इतिहास और समाजशास्त्र में रुचि रखने वालों के आगे कुछ सवाल सामने आ रहे हैं।
जैसे- क्या इस देश का इतिहास लिखते समय राजनीतिक नफे नुकसान को ध्यान में रखा गया और उसके हिसाब से ही पठन-पाठन की किताबों में इतिहास को समेटा गया? या फिर “सेक्युलर जोड़” की आड़ में या उसे बनाये रखने की जद्दोजहद में तमाम क्रूर ऐतिहासिक सत्यों को दरकिनार किया गया?
इसके उलट यह कि क्या हमें अतीत के इन विवादों से संवाद करते हुए हमें वापस मस्जिद के जगह मंदिर बनाने की कवायद करनी चाहिए? क्या जब हम आजादी के अमृतकाल में है तो बेहतर यह नहीं कि अतीत की लड़ाइयों को भुलाकर भविष्य पर नज़र रखी जाए?
इन सब सवालों के जवाब टटोलने के पहले हमें कुछ बात तय करनी होगी कि हम इतिहास में कहाँ तक जाकर उसे सही करना चाहते हैं? एक प्रबुद्ध नागरिक होने के नाते हमें यह समझ भी होनी चाहिए कि हमें एक भारतीय के तौर पर अपने इतिहास से कैसे नजर मिलाना है?
निजी तौर पर मेरे मन मे हमेशा एक द्वंद रहा है- एक तरफ़ साइंटिफिक टेम्परामेंट-जो भविष्य की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है, और दूसरी तरफ़ टूटे हुए नालंदा विश्वविद्यालय या बिखरते खजुराहो के मंदिरों की शिलाएं- ऐसा अतीत जो आज वर्तमान में अपनी विरासत और आभा को खो चुका है या उसका निरंतर क्षरण हो रहा है।
मैं इतिहास प्रसिद्ध मगध क्षेत्र से ताल्लुक रखता हूँ। जाहिर है नालंदा विश्वविद्यालय का नाम लेते ही बाँछे खिल उठती हैं। जब भी कभी जाने का मौका मिला बस यही सवाल कौंधा कि कैसा महामूर्ख रहा होगा वह शख्स जिसने महज़ अपनी जिद्द और हठ के लिए इतने बड़े पुस्तकालय को और विश्विद्यालय को जला दिया होगा?
उसके बाद एक और सवाल कौंधता है कि हम मस्जिदों को तोड़कर मंदिर तो बना लेते हैं क्योंकि अतीत में वहां कथित तौर पर मंदिर ही था (सन्दर्भ राम मंदिर निर्माण); पर लाख कोशिशों के बावजूद नालंदा विश्वविद्यालय को वही पुराना गौरव नहीं दिला सके। अब ये कोशिशें अधूरी थीं या इन कोशिशों के पीछे की मंशा अधूरी थी, यह एक अलग सवाल है।
अव्वल तो यह कि जिस देश ने पूरी दुनिया को ज्ञान दिया, आज उसके विश्विद्यालय विश्व के टॉप 50 में भी नहीं आते। और यहीं से इस बहस को और हवा मिलती है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी हमें मंदिर और मस्जिद चाहिए या फिर नालंदा विश्वविद्यालय जैसा कुछ बड़े ज्ञान केंद्र?
इतिहास की व्याख्या या परख कैसे की जाये?
जैसा कि ऊपर कहा है कि धर्म के आते ही सारे वैज्ञानिक तर्क कमजोर पड़ने लगती हैं और भावनाओं की आड़ में फैक्ट्स छुपने लगते हैं। ऐसे में कोई इतिहास को किस नजरिये से परखे कि बाद में इतिहास में उस व्यक्ति विशेष को उसके निजी इतिहास में बेहतर तरीके से परखा जाए।
मेरा मानना है कि हमें पहले एक सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों को समझना होगा। जैसे भारत की सभ्यता या सनातन धर्म के विकास की बात करें तो इसमें भी कई चरण हैं।
सनातन धर्म के पुराने पद्धति फिर वेदों की रचना फिर उपनिषदों की रचना, मूर्ति पूजा, धार्मिक अनुष्ठान के नाम पर बलि, जातिवाद, वर्ण-विभेद आदि तमाम अच्छे बुरे पहलुओं का समावेश इन चरणों मे मिलता है।
फिर बुद्ध का प्रादुर्भाव और उसके बाद बौद्ध धर्म का हिन्दू धर्म पर हावी हो जाना.. उसके बाद वापिस हिन्दू धर्म का पुनरोत्थान होना… इसके बाद भारतीय समाज मे इस्लाम का आना और फिर इस्लाम मानने वाले बाहरी अक्रांतकारी लोगों का आना… अंग्रेजी शासन… फिर आज़ादी… आजादी के लिए हुए बलिदान… देश विभाजन…आदि इन तमाम बातों का चरणबद्ध तरीके से समाज-निर्माण के संदर्भ में समझने की जरूरत है।
कैसे तय किया जाए कि कब तक का इतिहास पुनर्स्थापित करना है
फिर बात आती है अपने इतिहास जो वापिस हासिल करने की। इसमें भी यह कैसे तय किया जाए कि कब तक का इतिहास पुनर्स्थापित करना है।
मान लीजिए आज हम लड़ रहे हैं कि हमें उन मंदिरों को वापिस हासिल करना है जिसे मुगलों ने तोड़ा। जरा गौर से सोचिए सिर्फ मुगल या मुसलमान शासक ही क्यो? क्या आपको इस तर्क में राजनीति की बू नहीं आती?
अगर ऐसा ही है तो क्या हम शेरशाह सूरी (सुन्नी इस्लाम) के बनवाये GT रोड जिसे इतिहास में अशोक (बौद्ध धर्म का संरक्षक) ने बनवाया था, उसको तोड़ देंगे?
ऐसा नहीं चलेगा ना कि अकबर के नाम पर सड़क नही चाहिए क्योंकि वह मुस्लिम था; पर उसी के सेनापति मानसिंह के नाम पर होटल और सड़क चलेगा? अगर राजा अक्रांतकारी रहा होगा तो निश्चित ही सेनापति भी वैसा ही रहा होगा?
अगर इसे सोचेंगे तो मिलेगा कि यह लड़ाई ना इतिहास को हासिल करने का है, ना ही उसे पुनर्जीवित करने का… बल्कि इसे समाज को हिन्दू मुस्लिम में तोड़कर 2024 के चुनाव की परिपाटी तैयार की जा रही है।
दूसरा तर्क, कि मान लीजिये आज हमने मंदिरों को वापस हासिल कर वही लिया जिसे तोड़कर मुस्लिम शासकों ने मस्जिदें बनवा दी तो क्या कल को सांची के बौद्ध स्तूप और बोधगया के महाबोधि मंदिर को भी तोड़कर विष्णु मंदिर या कोई और भगवान का मन्दिर बनाएंगे?
आखिर बौद्ध धर्म भी तो हिन्दू धर्म से ही बना होगा? राजा तो उस जमाने मे भी बौद्ध और जैन धर्म का संरक्षण देकर हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करते रहे??
इसलिए मेरी नज़र में तो इतिहास को आज के साम्प्रदायिक सौहार्द की तिलांजलि देकर इतिहास की विरासतों को हासिल करने की कवायद बेवकूफी है। बेहतर यह है कि एक ही स्थल पर मंदिर की घंटी भी बजे तो बगल में अज़ान भी पढ़ा जाए ताकि मिल-जुलकर इस देश को आगे बढ़ाया जाए।
वरना इतिहास की लड़ाई ना कोई जीत सका है ना जीत सकेगा। इतिहास की सही व्याख्या ना कोई कर पाया है ना करेगा। इतिहास को लेकर चलने वाली ये बहसें ना आज शुरू हुई है, ना आज खत्म।
“All History is contemporary history”
प्रसिद्ध इतिहासकार एच. कार ने अपने क़िताब What is History में कहा है कि “All history is contemporary history”; क्योंकि हर इतिहास लिखने वाला इतिहास के तथ्यों को अपनी जरूरतों और सुविधाओं से उठाकर उसे अपने विचारधारा के साथ समाहित करता है
इसलिये इसमें उठने वाली बहसें एक निरंतर प्रक्रिया है। भावनाएं चाहे धार्मिक हो या कुछ भी, कभी भी इतिहास की व्याख्या करने की इकाई नहीं हो सकती है।
अगर इतिहासकारों ने सामाजिक और सेक्युलर तर्कों के लिए कुछ तथ्यों को दरकिनार भी किया है तो बस इसलिए कि समाज जो एक सही दिशा दी जाए।
NCERT के इतिहास के किताबों के लेखकों पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने बामपंथी विचारधारा के सत्ता प्रभाव के कारण हिन्दू इतिहास के कई बातों को छुपा दिया है और मुस्लिम शासकों से जुड़ी कई बातों को महिमामंडन किया है।
ध्यान रहे जब पहली बार NCERT की इतिहास की किताबें लिखी गई होंगी तब इतिहासकारों के पास समाज को गढ़ने की भी चुनौती रही होगी। देश धर्म के आधार पर बंटा था, हमें यह नही भूलना चाहिए। ऐसे में फिर से एक धर्म को दूसरे के सामने खड़ा कर देने का खतरा मोल नहीं लिया जा सकता है।
फिर हमें एक हिन्दू के तौर पर अपने मुकम्मल इतिहास को स्वीकार करना चाहिए। सिर्फ यह नहीं कि मुस्लिम शासकों ने 500 सालों तक जुल्म किया या कुछ ऐसा… हम यह क्यों भूल जाते हैं कि उसके पहले 2500 सालों तक हिन्दू ब्राम्हणों ने भी जाति और छुआछूत के नाम पर शूद्रों के साथ भेदभाव किया था और एक हद्द तक आज भी करते हैं।
हम दलितों के इतिहास को क्यों खत्म करना चाहते हैं? क्यों इस देश मे ब्राह्मण सतपथ से लेकर तमाम किताबें लिखी गयी लेकिन कोई ढंग की दलित इतिहास वाली किताब उपलब्ध नहीं है?
इन तमाम तर्क वितर्क या फिर कुतर्क जो भी कहें आप, सबको साथ रखकर देखिये। जवाब मिलेगा कि ज्ञानवापी, मथुरा, आगरा… सब इतिहास की बात है।
इन तथ्यों को जानना जरूरी है पर भावनाओं को दरकिनार कर के जानिये वरना इतिहास में जिस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाया गया, फिर अब उसे फिर से मंदिर बना देने से कुछ हासिल नहीं होगा।
ग़रीबी, बेरोजगारी और लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने की जरूरत है। और फिर सबसे जरूरी है कि इतिहास को जानने के लिए उसे पहले पढ़िए, फिर बांचिये ज्ञान।