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    शिक्षक दिवस विशेष

    शिक्षक दिवस (05 सितम्बर) विशेष: एक और शिक्षक दिवस आ गया। निजि शिक्षण संस्थानों से लेकर बड़े बड़े महाविद्यालयों में सांस्कृतिक कार्यक्रम होंगे। शिक्षकों के योगदान को संस्कृत के श्लोकों और अन्य घिसे-पिटे शब्दों में सराहा जाएगा। कुछ शिक्षकों को राष्ट्रपति और राज्यपाल से पुरस्कृत भी करवाया जाएगा; अगले दिन समाचार-पत्रों में तस्वीरों को छाप कर फिर सोशल मीडिया पर शेयर करने वाला रस्म-अदायगी भी होगी.

    फिर अगले दिन से शिक्षकों को गुमनाम कर दिया जाएगा अगले 5 सितम्बर तक के लिए सबकुछ वैसा ही हो जाएगा जैसा कल तक था। शिक्षक जो हर दिन समाज का निर्माण करता है, उसे लेकर हमारा समाज महज़ प्रतीकात्मक समारोहों तक सीमित रह गए हैं।

    आये दिन किसी ना किसी राज्य में शिक्षकों को स्कूल के बजाए सड़कों पर अपनी तमाम समस्याओं के समाधान हेतू प्रदर्शन करते हुए देखा जा सकता है। कल ही छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में शिक्षकों ने धरना प्रदर्शन दिया है। महज़ पंद्रह दिन पहले बिहार में शिक्षक बहाली को लेकर करोड़ो युवा पटना में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे और पुलिस लाठियां बरसा रही थी।

    उस से कुछ और दिन पीछे जाएं तो दिल्ली में कॉलेज आदि के ऐड-हॉक प्रोफेसर वेतनमान, नियमित नौकरी आदि तमाम मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। उस से थोड़ा और पहले जाएं तो दिल्ली के बगल में ही राजस्थान में प्रगतिशील शिक्षक संघ राज्य के तमाम जिला कलेक्ट्रेट ऑफिस पर प्रदर्शन कर रहे थे।

    प्रदर्शन कर रहे है शिक्षकों पर लाठीचार्ज करती पुलिस
    पटना में नियोजन की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे है शिक्षकों पर लाठीचार्ज करती पुलिस (Image Source: Newsdrum)

    असल मे देश के हर राज्य में शिक्षकों की हालत लगभग एक जैसी है। एक प्राथमिक विद्यालय के मामूली शिक्षक से लेकर अच्छे विश्विद्यालय तक के प्रोफेसर तक लगभग एक सी समस्या से जूझ रहे हैं।

    उदाहरण के लिए, मैं जिस राज्य बिहार से आता हूँ, वहाँ शिक्षकों की मासिक वेतन समय पर नहीं मिलता, नतीजतन वे निजी ट्यूशन आदि पर निर्भर होते हैं। फिर इस वजह से स्कूल में अध्यापन कार्य से मोहभंग हो जाता है जिसका खामियाजा गरीब तबके के बच्चों को भुगतना पड़ता है। कभी यदा-कदा किसी शिक्षा अधिकारी के जाँच में दोषी पाए भी जाते हैं तो इन शिक्षकों को पता है कि “कारण बताओ नोटिस” के जवाब और हज़ार-दो हजार का चढ़ावा (घूस) से काम बन जायेगा।

    अब यह एक बिहार की घटना हो सकती है लेकिन यही हाल लगभग पूरे देश का है। फिर इन्हीं शिक्षकों को समाज निर्माण (पठन-पाठन) के जगह समाज कल्याण के अन्य कार्य जैसे जनसंख्या गणना, मतदान ड्यूटी, आदि में भी लगा दिया जाता है। बिहार में तो इन्हें नशेड़ी और मवालियों तक पर नज़र रखने की जिम्मेदारी वाली बात सामने आती है।

    अगर विश्विद्यालय स्तर पर बात की जाए तो शिक्षक भर्ती की एक नई प्रणाली “ऐड-हॉक” ज्यादा लोकप्रिय है। अब यह नाम आकर्षक है लेकिन इसकी कहानी इस से जुदा है। दरअसल भारत के अधिकांश विश्विद्यालय बजट की कमी झेल रहे होते है। ऐसे में वित्तीय दवाबो के चलते स्थायी शिक्षक को रखने के बजाए इन अस्थायी ऐड हॉक शिक्षकों को रखना पसंद करते हैं। अस्थायी शिक्षक को न तो अन्य बुनियादी सुविधाओं को देने की बाध्यता होती है ना ही ये शिक्षक हड़ताल या विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं।

    अब विश्विद्यालयों की इस व्यवस्था का खामियाजा समाज भुगत रहा होता है। क्योंकि जॉब-सिक्योरिटी के बिना ये शिक्षक अपना श्रेष्ठ देने के बजाए खानापूर्ति करते हैं। फिर इन सबके बाद भी उनका मानदेय/वेतन समय पर नहीं आता। असल मे कामचलाउ व्यवस्था और शिक्षा के प्रति सरकारों की बजटीय उदासीनता  ने पूरे सिस्टम को एक ऐसे मुकाम पर ला खड़ा किया है जहाँ से वापस आना अब मुश्किल है।

    शिक्षक और शिक्षा से एक बात और भी है जिसे स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। बीते दशकों में शिक्षा लगातार महंगा हुआ है लेकिन इसके ठीक उलट वहीं शिक्षकों की गुणवत्ता में स्पष्ट गिरावट दर्ज हुई है। ऐसा नहीं है कि अच्छे शिक्षक अब नहीं हैं लेकिन सिस्टम के तमाम खामियों ने समाज को इस परिपाटी पर समझौता करने पर मजबूर किया है।

    सोशल मीडिया पर आए दिन दोनों तरह के वीडियो वायरल होते हैं। कहीं शिक्षक के स्थानांतरण पर पूरा स्कूल उस से लिपटकर रोता है तो किसी स्कूल में शिक्षकों को भारत के प्रधानमंत्री का नाम भी मालूम नहीं होता। परंतु सच यही है कि वैसे शिक्षक अब कम ही हैं जिसे छात्र अपना आदर्श माने और जीवन के हर उड़ान में स्मरण करें।

    तमाम राज्यो से शिक्षक भर्ती घोटाले की बात सामने आती है लेकिन शासन प्रशासन के दवाब के आगे सब दबा दिया जाता है। उदाहरण के लिए फिर से उसी बिहार में चलते हैं जहाँ पिछले दो शिक्षक बहाली प्रक्रिया को देखा जा सकता है। मैं बार-बार बिहार की व्यवस्था को इस लिए उदाहरण को ले रहा हूँ क्योंकि शिक्षा के मामले में बिहार पूरे देश मे फिसड्डी माना जाता है।

    वहाँ के स्थानीय निवासी बताते हैं कि अमुक व्यक्ति में दो लाख दिया, तो अमुक ने चार लाख और शिक्षक बन गये। हालांकि इस तथ्य में कितनी सच्चाई है, हम द इंडियन वायर  इसकी पुष्टि नहीं करते परंतु आम जनों में यह एक अवधारणा जरूर है।

    ऐसे में शिक्षकों की गुणवत्ता कम होना स्वाभाविक है जिसका सीधा असर वहाँ के शिक्षा व्यवस्था और छात्रों के साथ-साथ राज्य के भविष्य पर भी पड़ता है।
    ऐसा नही है कि सारे शिक्षक लापरवाह, बेकार हैं और सिफारिशों के बदौलत ही अपने नौकरी में हैं। कर्मबद्ध और प्रतिबद्धता से लबरेज़ शिक्षकों की भी एक बड़ी जमात इस देश मे है; पर यह वे शिक्षक हैं जो सम्पूर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ कुछ मानवीय जिजीविषा के विजेता हैं।

    निजी संस्थानों में शिक्षकों की समस्या और जुदा है। एक तो उनके कार्य के बदले मिलने वाला मेहनताना अपेक्षाकृत कम है पर कार्य अपेक्षाकृत ज्यादा; ऐसे में इस क्षेत्र में कैरियर बनाने के पहले एक व्यक्ति कई दफा सोचने पर मजबूर होता है।

    कुल मिलाकर एक शिक्षक की व्यथा अनंत है। एक घटिया व्यवस्था में अच्छे शिक्षक का बने रहना अपने आप मे बड़ी चुनौती है इसलिये कर्मबद्ध और जिम्मेदार शिक्षकों की संख्या घटती जा रही है। हर वर्ष 05 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाने और शिक्षकों के योगदान को रेखांकित करने का काम स्वागतयोग्य है पर यह प्रतीकात्मक नहीं होना चाहिए। समाज और सरकार को शिक्षकों के हृदय तक पहुंचना होगा।

    प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों को नियामित वेतन देने से लेकर विश्विद्यालय को उचित फंड उपलब्ध कराने तक के लिए सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। अन्य दूसरे जरूरी संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी ताकि अध्यापन फिर से समाज को “Greater Return” देने वाला विकल्प बन सके।

    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

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