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    ऑपरेटिंग सिस्टम के प्रकार types of operating system in hindi

    विषय-सूचि


    ऑपरेटिंग सिस्टम (operating system) फाइल, प्रोसेस और मेमोरी का प्रबंधन करने जैसे सारे मूलभूत कार्य करता है। इसीलिए ऑपरेटिंग सिस्टम सारे संसाधनों के प्रबंधक के तौर पर काम करता है।

    इसीलिए इसे हम रिसोर्स मेनेजर भी कह सकते हैं। इस से यही पता चलता है कि ऑपरेटिंग सिस्टम यूजर और मशीन के बीच का एक इंटरफ़ेस होता है।

    ऑपरेटिंग सिस्टम के प्रकार (types of operating systems in hindi)

    अब हम ऑपरेटिंग सिस्टम के कुछ प्रमुख टाइप्स को देखेंगे और उसकी परिभाषा, फायदे, खामियां इत्यादि को उसके फंक्शन के साथ समझेंगे।

    1. बैच ऑपरेटिंग सिस्टम (batch operating system in hindi)

    इस तरह के ऑपरेटिंग सिस्टम कंप्यूटर के साथ सीधा संवाद नहीं करते। एक ऑपरेटर होता है जो ऐसे समान जॉब्स लेता है जिनकी एक ही जरूरत हो और फिर उनको बैच में बाँट देता है।

    ये ऑपरेटर कि जिम्मेदारी होती है कि समान जरूरत वाले जॉब को एक साथ एकत्रित करे।

     

    बैच ऑपरेटिंग सिस्टम के फायदे:

    • किसी भी जॉब के पूरे होने में लगने वाले समय को जानना काफी मुश्किल होता है। बैच सिस्टम के प्रोसेसर ये जानते हैं कि कितने देर का जब है जब वो लाइन में लगे रहते हैं तो।
    • एक से ज्यादा यूजर भी बैच सिस्टम को साझा कर सकते हैं।
    • Tबैच सिस्टम में idle समय काफी कम होता है।
    • बड़े कार्यों को बार-बार मैनेज करने बैच सिस्टम में काफी आसान है।

    बैच ऑपरेटिंग सिस्टम की खामियां:

    • कंप्यूटर ऑपरेटर को बैच सिस्टम के बारे में सबकुछ पता होना चाहिए।
    • बैच सिस्टम को डिबग करना काफी मुश्किल है।
    • ये कभी-कभी महंगा भी होता है।
    • अगर कोई जॉब फ़ैल हो गया तो बांकी जॉब्स को एक अनिश्चित समय के लिए इन्तेजार करना पड़ेगा।

    बैच पर आधारित ऑपरेटिंग सिस्टम के उदाहरण: पेरोल सिस्टम,बैंक स्टेटमेंट  इत्यादि।

    2. टाइम शेयरिंग ऑपरेटिंग सिस्टम (time sharing operating system in hindi)

    प्रत्येक टास्क को एक्सीक्यूट होने के लिए कुछ समय दिया जाता है ताकि सारे टास्क अच्छी तरह से काम करें। हर यूजर CPU का समय पता है क्योंकि वो सिंगल सिस्टम का प्रयोग करते हैं। इन सिस्टम को मल्टीटास्किंग सिस्टम भी कहते हैं।

    ये टास्क किसी एक यूजर से भी हो सकते हैं या फिर किसी अलग यूजर से भी। हर एक टास्क को एक्सीक्यूट होने के लिए जो समय मिलता है उसे क्वांटम कहते हैं।

    जब उसकी समयावधि  खत्म हो जाती है तब ऑपरेटिंग सिस्टम अगले टास्क पर चला जाता है।

    टाइम शेयरिंग ऑपरेटिंग सिस्टम के फायदे:

    • हर टास्क को बराबर मौक़ा मिलता है।
    • सॉफ्टवेर के डुप्लीकेट होने के बहुत कम चांस होते हैं।
    • CPU idle समय को घटाया जा सकता है।

    टाइम शेयरिंग ऑपरेटिंग सिस्टम की खामियां:

    • रेलिअबिलिटी की समस्या।
    • यूजर प्रोग्राम और डाटा की सिक्यूरिटी और इंटीग्रिटी का ख्याल रखना जरूरी होता है।
    • डाटा संचार की समस्या।

    टाइम शेयरिंग ऑपरेटिंग सिस्टम के उदाहरण: Multics,उनिक्स इत्यादि।

    3. डिस्ट्रिब्यूटेड ऑपरेटिंग सिस्टम (distributed operating system in hindi)

    इस तरह के ऑपरेटिंग सिस्टम कंप्यूटर तकनीक में आजकल हो रहे नये-नये खोजों और तरक्की के परिणाम हैं। इसे पूरी दुनिया में बड़े स्टार पर स्वीकार किया जा रहा है औए वो भी काफी तेज गति से।

    बहुत सारे ऑटोनोमस कंप्यूटर एक साझा कम्युनिकेशन नेटवर्क का प्रयोग कर के एक-दूसरे से संवाद कर रहे हैं। स्वतंत्र य्स्तेम का अपना अलग मेमोरी यूनिट और CPU होता है।

    इसलिए इन्हें loosely coupled systems या डिस्ट्रिब्यूटेड सिस्टम भी कहा जाता है। इन सिस्टम के प्रोसेसर आकार और फंक्शन में अलग-अलग होते हैं।

    इस तरह के सिस्टम पर काम करने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि कोई यूजर किसी ऐसे फाइल, सॉफ्टवेर या कंटेंट को एक्सेस करता है जो असल में सिस्टम में उपस्थित नहीं रहते हैं बल्कि इसे नेटवर्क में कनेक्टेड किसी और सिस्टम में रहते हैं।

    इसे रिमोट एक्सेस भी कहते हैं जिसके द्वारा नेटवर्क में किसी और सिस्टम के फाइल को भी एक्सेस किया जा सकता है।

    डिस्ट्रिब्यूटेड ऑपरेटिंग सिस्टम के फायदे:

    • एक के खराब होने से दूसरे के नेटवर्क कम्युनिकेशन पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि सारे सिस्टम एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं।
    • इलेक्ट्रॉनिक मेल डाटा के आदान-प्रदान होने की गति को बढ़ा देते हैं।
    • चूँकि संसाधनों को शेयर किया जा रहा है, कम्प्यूटेशन काफी तेज और टिकाऊ होता है।
    • होस्ट कंप्यूटर पर आ रहा लोड कम हो जाता है।
    • ये सिस्टम आसानी से स्केल किये जा सकते हैं क्योंकि नेटवर्क में और भी सिस्टम को जोड़ने की प्रक्रिया बिलकुल आसान है।
    • डाटा प्रोसेसिंग में डिले कम होता है।

    डिस्ट्रिब्यूटेड ऑपरेटिंग सिस्टम की खामियां:

    • मैं नेटवर्क के फ़ैल होने की स्थिति में पूरा का पूरा कम्युनिकेशन रुक जाता है।
    • डिस्ट्रिब्यूटेड सिस्टम को स्थापित करने के लिए जिस लैंग्वेज का प्रयोग किया जाता है उसे अभी तक उतने अच्छे से परिभाषित नहीं किया जा सका है।
    • इस तरह के सिस्टम तुरंत नहीं मिलते क्योंकि ये काफी खर्चीले होते हैं। यही नही, इनके अंदर के सॉफ्टवेर भी काफी काम्प्लेक्स हैं और इन्हें अभी तक उतनी अच्छी तरह से नहीं समझा जा सका है।

    डिस्ट्रिब्यूटेड ऑपरेटिंग सिस्टम के उदाहरण हैं- LOCUS ..इत्यादि।

    4. नेटवर्क ऑपरेटिंग सिस्टम (network operating system in hindi)

    ऐसे सिस्टम एक सर्वर पर रन करते हैं और डाटा, यूजर, समूह, सिक्यूरिटी, एप्लीकेशन और अन्य नेटवर्किंग फंक्शन को मैनेज करने की क्षमता प्रदान करते हैं।

    ऐसे ऑपरेटिंग सिस्टम फाइल, प्रिंटर, सिक्यूरिटी, एप्लीकेशनऔर अन्य नेटवर्किंग फंक्शन को किसी छोटे प्राइवेट नेटवर्क में शेयर करने की अनुमति देते हैं।https://image.slidesharecdn.com/networkoperatingsystem-151216143210/95/network-operating-system-1-638.jpg?cb=1450276363

    नेटवर्क ऑपरेटिंग सिस्टम का एक शबे अच्छा पहलू यह है कि सभी उपयोगकर्ता इसके अंदर के कॉन्फ़िगरेशन, नेटवर्क के अंदर के सारे यूजर और उनके कनेक्शन इत्यादि से अच्छी तरह परिचित होते हैं।

    इसीलिए इन कंप्यूटर को tightly coupled systems भी कहा जाता है।

    नेटवर्क ऑपरेटिंग सिस्टम के फायदे:

    • काफी स्टेबल सेंट्रलाइज्ड सर्वर होता है।
    • सिक्यूरिटी की चिंताओं को सर्वर के प्रोग द्वारा ही हैंडल किया जाता है।
    • नये तकनीक और हार्डवेयर के अपग्रेड होने पर उसे आसानी से इसमें स्वीकृत किया जाता है।
    • अलग-अलग जगहों या अलग-अलग तरह से सिस्टम से सर्वर को एक्सेस करना आसान है।

    नेटवर्क ऑपरेटिंग सिस्टम की खामियां:

    • इसके सर्वर काफी महंगे आते हैं।
    • अधिकतर ऑपरेशन के लिए यूजर को सेंट्रल लोकेशन पर निर्भर रहना पड़ता है।
    • इसको लगातार मेन्टेन और अपग्रेड करते रहने की जरूरत होती है।

    नेटवर्क ऑपरेटिंग सिस्टम के उदाहरण: माइक्रोसॉफ्ट विंडोज सर्वर 2003, माइक्रोसॉफ्ट विंडोज सर्वर 2008, यूनिक्स, लिनक्स, मैकOS X, Novell NetWare, और BSD इत्यादि।

    5. रियल टाइम ऑपरेटिंग सिस्टम (real time operating system in hindi)

    इस टाइप के ऑपरेटिंग सिस्टम रियल टाइम पर काम करते हैं। इसमें इनपुट को प्रोसेस करने और रिस्पांस देने में जो समय लगता है वो काफी कम है। इसी समयावधि को रिस्पांस टाइम कहते हैं।

    रियल टाइम सिस्टम का प्रयोग तब होता है जब समय की काफी पाबंदी हो जैसे कि मिसाइल सिस्टम, एयर ट्रैफिक कण्ट्रोल सिस्टम, रोबोट्स इत्यादि।

    रियल टाइम ऑपरेटिंग सिस्टम के दो प्रकार होते हैं जो निम्नलिखित हैं:

    • हार्ड रियल टाइम सिस्टम:
      These OSs are meant for the applications where time constraints are very strict and even इन ऑपरेटिंग सिस्टम को वहाँ और उन एप्लीकेशन में प्रयोग में लाया जाता है जहां एक छोटे से समय की देरी भी भारी पड़ती हो। इन सिस्टम को जिंदगी बचाने जैसे कि आटोमेटिक पैराशूट या एयर बैग जिनकी जरूरत के समय उनका जल्द से जल्द उपयोग होना चाहिए नहीं (किसी एक्सीडेंट के होने पर)- इन सबमे प्रयोग किया जाता है। इन सिस्टम में वर्चुअल मेमोरी कभी नहीं होती।
    • सॉफ्ट रियल टाइम सिस्टम:
      ये ऑपरेटिंग सिस्टम ऐसे एप्लीकेशन के लिए होते हैं जहां समय की पाबंदी थोड़ी कम हो।

     

    RTOS के फायदे:

    • Maximum Consumption: डिवाइस और सिस्टम का अधिकतम उपयोग होता है और सभी संसाधनों से अधिक आउटपुट मिलता है।
    • Task Shifting: टास्क को शिफ्ट करने के लिए मिला समय इन सिस्टम में काफी कम होता है। उदाहरण के तौर पर पुराने सिस्टम में एक टास्क से दूसरे में शिफ्ट करने पर 10 माइक्रो सेकंड्स लगते the लेकिन अब 3 माइक्रो सेकंड्स ही लगते हैं।
    • Focus on Application: अभी जो एप्लीकेशन चल रहा है- पूरा का पूरा ध्यान उसी पर होता है और लाइन में लगे एप्लीकेशन को कम महत्त्व दिया जाता है।
    • Real time operating system in embedded system: चूँकि प्रोग्राम के आकार छोटे होते हैं, इसीलिए RTOSट्रांसपोर्ट जैसे एम्बेडेड सिस्टम में भी काफी उपयोगी साबित होते हैं।
    • Error Free:इस तरह के सिस्टम किसी एरर से युक्त नहीं होते।
    • Memory Allocation:इन तरह के सिस्टम में मेमोरी को काफी अच्छी तरह से प्रबंधन किया जाता है।

    RTOS की खामियां:

    • Limited Tasks: एक समय में काफी कम टास्क रन कर सकते हैं और कुछ एप्लीकेशन पर इनका ध्यान काफी कम रहता है, एरर से बचने के लिए।
    • Use heavy system resources: कभी-कभी सिस्टम के संसाधन उतने अच्छे नहीं होते और वो महंगे भी होते हैं।
    • Complex Algorithms: इसके अल्गोरिथम डिज़ाइनर के लिए लिखना काफी काम्प्लेक्स और कठिन होता है।
    • Device driver and interrupt signals: इंटरप्ट का जल्द से जल्द रिस्पांस देने के लिए इन्हें ख़ास डिवाइस ड्राईवर और इंटरप्ट सिग्नल की जरूरत पड़ती है।
    • Thread Priority:  थ्रेड प्रायोरिटी को सेट करना इसमें ठीक नहीं रहता क्योंकि टास्क को स्विच करने में ये सिस्टम काफी कमजोर होते हैं।

    रियल टाइम ऑपरेटिंग सिस्टम के उदाहरण: वैज्ञानिक परिक्षण या प्रयोग, मेडिकल इमेजिंग सिस्टम, इंडस्ट्रियल कण्ट्रोल सिस्टम, वेपन (Weapon) सिस्टम, रोबोट्स,एयर ट्रैफिक कण्ट्रोल सिस्टम इत्यादी।

    इस लेख से सम्बंधित यदि आपका कोई भी सवाल या सुझाव है, तो आप उसे नीचे कमेंट में लिख सकते हैं।

    By अनुपम कुमार सिंह

    बीआईटी मेसरा, रांची से कंप्यूटर साइंस और टेक्लॉनजी में स्नातक। गाँधी कि कर्मभूमि चम्पारण से हूँ। समसामयिकी पर कड़ी नजर और इतिहास से ख़ास लगाव। भारत के राजनितिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक इतिहास में दिलचस्पी ।

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