अमेरिका ने रविवार को ओमान के साथ रणनीतिक बंदरगाह समझौते को अंतिम रूप दे दिया है। रायटर्स नें बताया, अमेरिकी अधिकारीयों के मुताबिक “यह समझौता अमेरिकी सेना को खाड़ी क्षेत्र में बेहतर पंहुच की अनुमति देगा और होर्मुज जलमार्ग से जहाजों को भेजने की संख्या को भी कम कर देगा।”
ओमान में स्थित अमेरिकी दूतावास ने कहा कि “समझौता अमेरिका को सुविधाओं तक पंहुचायेगा और दुक़्म बंदरगाह व सालाह बंदरगाह तक भी पंहुच देगा। साथ ही दोनों राष्ट्रों के संयुक्त सुरक्षा लक्ष्यों की प्रतिबद्धता को साबित करता हैं।” ओमान के यह समझौता अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है क्योंकि वह दुक़्म बंदरगाह को विकसित करना चाहता है। मध्य पूर्व की राजनीति और कूटनीति में ओमान स्विटरज़रलैंड की तरह तटस्थ भूमिका निभाता है।
ईरान द्वारा मिसाइल कार्यक्रमों के विस्तार से अमेरिका की चिंताएं तीव्रता से बढ़ रही है। अमेरिकी अधिकारी ने कहा कि “यह समझौता बंदरगाह तक आसान पंहुच के लिए सार्थक है, जो एक व्यापक क्षेत्र को सड़क से जोड़ेगी।”
तेहरान ने इससे पूर्व अमेरिका द्वारा शत्रुतापूर्ण कार्रवाई के प्रतिकार में होर्मुज जलमार्ग को बंद करने की धमकी दी थी। यह खाड़ी का सबसे प्रमुख तेल निर्यात मार्ग है। प्रतिबंधों के कारण ईरानी तेल के निर्यात में काफी कमी आयी है।
अमेरिकी अधिकारी ने कहा कि “इस क्षेत्र में संकट के समय में अमेरिकी सेना के पास विकल्प अधिक हो जायेंगे। यह बंदरगाह बेहद आकर्षित है और इसकी भूरणनीतिक स्थिति बेहद आकर्षित है। इस बाबत वार्ता ओबामा प्रशासन के दौरान शुरू हुई थी।”
ओमान तेल और गैस के निर्यात के आलावा कई क्षेत्रों में अपनी अर्थव्यवस्था में इजाफा कर सकता है। चीन के प्रभुत्व से प्रतिद्वंदता के लिए अमेरिका इस समझौते की इच्छा रखता था। एक बार चीन की कंपनियों ने दुक़्म बंदरगाह पर 10.7 अरब डॉलर निवेश करना की इच्छा जताई थी।
चीन ने साल 2017 में अफ्रीकी राष्ट्र जिबौती पर पहला मिलिट्री बेस स्थापित किया था। इससे कुछ मीलों की दूरी पर अमेरिकी बेस पहले से ही स्थित है। जो अलकायदा, इस्लामिक स्टेट और अन्य चरमपंथी समूहों से निपटने के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
अमेरिका और ईरान के तीखे सम्बन्ध
अमेरिका में ट्रम्प प्रशासन के अंतर्गत दोनों देशों के सम्बन्ध बहुत सही नहीं थे, लेकिन वैश्विक तौर पर दोनों देशों में दुश्मनी नहीं थी।
डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार बनने के बाद दोनों देश एक दुसरे के दुश्मन बन गए थे।
सबसे पहले डोनाल्ड ट्रम्प नें 27 जनवरी, 2017 को एक आदेश पार करते हुए ईरान के नागरिकों को अमेरिका में घुसने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
इसके अलावा ट्रम्प सरकार नें इजराइल, सऊदी अरब और अन्य सुन्नी बहुल देशों से रिश्ते मजबूत कर लिए, जिससे ईरान से दुश्मनी और बढ़ गयी थी।
मई 2018 में डोनाल्ड ट्रम्प नें अमेरिका और ईरान के बीच हुई परमाणु संधि को तोड़ दिया और ईरान पर प्रतिबन्ध लगा दिए थे। इसके बाद से दोनों देश खुलकर एक दुसरे के विरुद्ध आ गए थे।
डोनाल्ड ट्रम्प के आर्थिक प्रतिबन्ध से परेशां होकर ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी नें होरमुज़ जलसन्धि को तोड़ने की धमकी दी।
13 अगस्त 2018 को ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खमनी नें अमेरिका से वार्ता करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। सुप्रीम लीडर नें अपने भाषण में कहा था, “ना हम जंग लड़ेंगे और ना ही अमेरिका से समझौता करेंगे।”
इसके बाद से दोनों देश एक दुसरे पर लगातार शब्दों के जरिये जंग छेड़ते नजर आते हैं।
अमेरिका नें ईरान पर अधिक दबाव डालने के लिए विश्व के अन्य देशों से गुहार लगाईं कि वे ईरान से तेल नहीं खरीदें।
भारत नें हालाँकि इन आदेशों का पालन पूरी तरह से नहीं किया, क्योंकि अमेरिका और ईरान दोनों ही भारत से सहयोगी देश हैं।
भारत नें कुछ हद तक तेल आयत पर रोक लगाईं, लेकिन उसके बावजूद ईरान भारत के लिए सबसे जरूरी देशों में से एक है।