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    स्कूली बच्चे

    आज भारत में कई भाषाओं की स्थिति काफी दयनीय हो चुकी है। काफी समय पहले भबानी प्रसाद मजुमदार ने बंगाली मां का मजाक उड़ाते हुए एक कविता लिखी थी जिसमें इस तथ्य को महसूस किया गया कि उसका बेटा मातृभाषा बंगाली नहीं बोल सकता है। मजुमदार ने इस कविता के जरिए यह बताने का प्रयास किया कि आज हर कोई अपनी मातृभाषा को भूलकर अन्य भाषाओं के पीछे जाना चाहता है।

    आप कितनी भी भाषा सीख सकते है उसमें कोई परेशानी नहीं है। लेकिन जो आपने पहला शब्द जिस भाषा में कहा था आज उससे कितने वास्तव में जुडे हुए है वो सबसे महत्वपूर्ण है। लेखक-पत्रकार सिर्शो बंदोपाध्याय ने इस बारे में अपने विचार रखे है।

    बंदोपाध्याय की बेटी के जन्म के दो साल बाद उन्होंने जर्मनी से काम छोडकर भारत लौटने का फैसला किया। इनकी वापसी की मुख्य वजह इनकी बेटी रैना थी जिसे वह बंगाली परिवेश में पालना चाहते थे। वो चाहते थे कि बेटी अपनी मातृभाषा सीखे और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की सही समझ हो।

    उन्हें लगता है कि एक बच्चे को मातृभाषा जानना चाहिए क्योंकि यह विशेष रूप से सांस्कृतिक जड़ों के लिए आवश्यक है। अब बेटी रैना 18 साल से अधिक उम्र की हो चुकी है जब वो बंगाली भाषा बोलती है और किताब व संगीत सुनती है तो उन्हें काफी गर्व महसूस होता है।

    लेकिन वर्तमान में माता-पिता अपने बच्चों को मातृभाषा छोडकर अंग्रेजी व अन्य भाषा सीखाना चाहते है ताकि वे जीवन में आगे बढ़ सके। यूनेस्को द्वारा तैयार की गई एक सूची के मुताबिक, भारत में 40 भाषाएं है जो आने वाले समय में लुप्त होने के कगार पर है।

    क्षेत्र के हिसाब से लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा की जगह अब अन्य का प्रयोग किया जाता है। भाषाविदों को उनके दस्तावेज़ों को बनाए रखने और संरक्षित करने के लिए संघर्ष करते हुए भाषाओं को बचाने के लिए सरकार से बहुत कम प्रयास किया गया है।

    मातृभाषा के विलुप्त होने की मुख्य वजह यह है कि माता-पिता अब अपने बच्चों को अपनी मूल भाषाएं सिखाने की परवाह नहीं करते है। शहरी माता-पिता अपने बच्चों की वैश्विक नागरिक बनने की आकांक्षा रखते है। उन्हें अंग्रेजी व अंतरराष्ट्रीय भाषा सीखाना चाहते है। आजकल के बच्चे तो अपनी मातृभाषा को बोल तक नहीं पा रहे है।

    नई पीढी अब इंटरनेट की वजह से दुनिया से तो जुड़ रहे है लेकिन साथ ही में अपनी विरासत और परंपराओं से अलग हो रहे है। अधिकांश मध्यम वर्ग और कम आय वाले वर्ग के माता-पिता के लिए उनका  पहला बच्चा आर्थिक रूप से व्यावहारिक भविष्य को सुरक्षित करने के लिए होता है।

    अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान करने में सक्षम होने के नाते उनके भविष्य के लिए स्थिरता हासिल करने के लिए वे उन्हें अंग्रेजी भाषा सिखाना चाहते है। कई उदाहरण देखने को मिलते है कि माता-पिता दिन रात मेहनत करने पर्याप्त धन की व्यवस्था अपने बच्चों को इंग्लिश स्कूल में पढ़ाने के लिए करते है। सबकी पहली कोशिश बच्चों को इंग्लिश भाषा सीखाने की होती है।

    भाषाविज्ञान और अल्पसंख्यक भाषाओं के विद्वानों की माने तो बच्चों को सबसे पहले अपनी मातृभाषा को सीखना चाहिए उसके बाद वे जो भाषा चाहे उसे भी सीख सकते है। आदिवासी माताओं को हिंदी में बात न करने के लिए अपने बच्चों को डांटते हुए भी देखा जा सकता है।

    भाषाविज्ञान विभाग के एक प्रोफेसर के मुताबिक कई समुदाय और जनजातियां अपनी भाषा से खुद को अलग करना चाहते है क्योंकि वे अपनी भाषाओं के बारे में नकारात्मक धारणाओं के जुडे हुए है। कुछ जनजातियां केवल अपनी भाषाओं को छोड़ ही नहीं बल्कि अपनी सांस्कृतिक पहचान को छोड़ने के लिए बहुत दबाव में है। मध्य भारत में तो अधिकतर हिंदी भाषा बोली जाती है।

    भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को आधिकारिक मान्यता प्राप्त का दर्जा दिया गया है। भारत में 1,600 से अधिक मातृभाषाएं है और यह उन सभी को संरक्षित करने के लिए आसान काम नहीं है। जो धन आदिवासी भाषाओं के लिए सुरक्षित किया गया है उसका भी उपयोग नहीं हो पाता है। हमारी भाषाई विरासत को बचाने के लिए सरकार के पक्ष में कोई सहयोगी प्रयास नहीं हुआ है।

    एनसीईआरटी के दिशानिर्देशों का सुझाव है कि बच्चों की मातृभाषाओं में प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। यदि बच्चे अपनी भाषा सीखते हैं तो सामाजिक विज्ञान में उनकी समझ बेहतर होती है।

    यूजीसी ने विभिन्न विश्वविद्यालयो की पहचान की है जहां लुप्तप्राय भाषाओं का अध्ययन किया जा रहा है। सीआईआईएल के पास लुप्तप्राय भाषाओं के संरक्षण पर चल रही एक परियोजना है। ये सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर काम कर रहे है।

    आज हम अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का जश्न मना रहे है हम मानते है कि भारत एक बहुलवादी, बहुभाषी संस्कृति है। लेकिन भारत की कई भाषाएं लुप्त होती जा रही है। सभी भाषाओं को समृद्ध करने के लिए हमे प्रोत्साहित करना होगा।

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