LS Election 2024: लोकसभा चुनाव 2024 अब अपने आखिरी पड़ाव पर है। कुल 7 चरणों मे प्रस्तावित इस चुनाव में अब तक 6 चरणों का मतदान हो चुका है। अब बस आगामी 01 जून को आखिरी चरण में देश के 07 राज्यों के कुल 57 संसदीय क्षेत्रों में मतदान होना बाकी है।
बीते 06 चरणों के बाद यह कहा जा सकता है कि चुनाव के परिणाम चाहे जो भी आये, लेकिन इन चुनावों में जिसकी हार तय है वह है “राजनैतिक मर्यादाओं” की। यह कहना कतई अनुचित नहीं होगा कि चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं के द्वारा इस्तेमाल किये गए भाषाओं के गिरते स्तर के आगे चुनाव आयोग (Election Commission of India) और आचार संहिता (Model Code of Conduct-MCC) का पाठ धत्ता साबित हुआ है।
यह जरूर है कि भारत मे चुनावी सरगर्मी के बीच नेताओं का बड़बोलापन एक आम घटना बन गया है लेकिन इस बार मामला कुछ ज्यादा ही तल्खी भरा रहा है। कई बार नेताओं के बयान इतने आपत्तिजनक हो गए कि सफाई देने के बाद भी नुकसान की भरपाई करना मुश्किल रहा है।
ऐसा नहीं है कि इसमें कोई एक पक्ष या पार्टी जिम्मेदार है या फिर छोटे या मंझौले स्तर के नेता ही शामिल हैं; बल्कि इस सूची में देश के प्रधानमंत्री (PM Modi) से लेकर विपक्ष की प्रखर आवाज़ सुप्रिया श्रीनेत, बिहार के राजनीति के सिरमौर लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ, बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा आदि अनेकों छोटे बड़े नेता शामिल हैं।
सुप्रिया श्रीनेत द्वारा हिमाचल के मंडी लोकसभा सीट की प्रत्याशी कंगना रनौत के लिए सोशल मिडिया पर की गई टिप्पणी न सिर्फ़ राजनीतिक ओछापन का उदाहरण था बल्कि एक सूझबूझ वाली महिला द्वारा दूसरे महिला के लिए उसकी अस्मिता को ठेस पहुंचाने वाला बेहद घटिया वक्तव्य था। हालाँकि, इसके बाद सुप्रिया श्रीनेत ने सार्वजनिक माफ़ी भी मांगी थी।
देश के सबसे धुरंधर और चुनाव (LS Election 2024) में केंद्र-बिंदु प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने भाषणों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कई मौकों पर धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश की जो एक प्रधानमंत्री के पद पर बैठे व्यक्ति के हिसाब से निम्नस्तरीय ही था। विपक्ष पर मुसलमान हितैषी बताने या विपक्ष पर हमलावर होने के क्रम में “मुजरा करने” जैसे शब्दों का चयन निःसंदेह रूप से अमर्यादित भाषा स्तर को दर्शाता है।
#WATCH | PM Modi in Rajasthan’s Banswara, says, “Congress is trapped in the clutches of the Leftists and urban naxals. What Congress has said in its manifesto is serious and worrying. They have said that if they form a government then a survey of property belonging to every… pic.twitter.com/jqRys2y7QU
— ANI (@ANI) April 21, 2024
चुनाव में वोट मांगने के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण या ऐसे बयान आचार संहिता (Model Code of Conduct-MCC) का उलंघन माना जाता है और इसके लिए चुनाव आयोग (Election Commission of India-ECI) को कार्रवाई करने का अधिकार है। लेकिन प्रधानमंत्री के बयानों के मामले में तो चुनाव आयोग भी लाचार नजर आया जो न सिर्फ़ राजनीति के लिए बल्कि देश के लोकतंत्र के लिए भी शुभ संकेत नहीं माना जायेगा।
इसी दौरान बिहार के राजनीतिक सिरमौर लालू प्रसाद यादव प्रधानमंत्री मोदी के निजी जीवन पर टिप्पणी करते हुए नज़र आये तो वहाँ के वर्तमान मुख्यमंत्री और बीजेपी नेतृत्व वाली NDA में शामिल जनता दल यूनाइटेड के शीर्षस्थ नेता नीतीश कुमार ने लालू यादव के 9 बच्चों के पिता होने पर घटिया टिप्पणी की।
बीजेपी नेता और ओडिशा के पूरी लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार संबित पात्रा ने तो इन सबको पीछे से छोड़ते हुए यह तक कह दिया की भगवान जगन्नाथ भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुरीद हैं। फिर बाद में उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और इसे ज़ुबान फिसलने की घटना बताते हुए माफी भी मांग ली।
इस बार के चुनाव में फ़िसलती जुबान या आचार संहिता के नियमों की धज्जियाँ उड़ाने वाले नेताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है। बयानों के स्तर भी ऐसे मानो इन नेताओं में एक होड़ सी लगी है कि कौन कितना निचले स्तर तक गिर सकता है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर चुनाव आयोग (Election Commission of India) द्वारा जारी किए जाने वाले आचार संहिता (Model code of Conduct) का औचित्य क्या है अगर यह नेताओं को उनके कृत्यों से रोकने में नाकामयाब है? क्या अब वक्त आ गया है कि अचार संहिता (MCC) में बदलाव किए जाने की आवश्यकता है?
भारत के चुनाव आयोग से सभी को समान अवसर प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है ताकि उम्मीदवार, राजनीतिक दल और उनके प्रचारक धन और बाहुबल के अत्यधिक उपयोग या झूठ बोलकर मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव न डालें।
भारत के चुनाव आयोग से सभी को समान अवसर प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है ताकि उम्मीदवार, राजनीतिक दल और उनके प्रचारक धन और बाहुबल के अत्यधिक उपयोग या झूठ बोलकर मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव न डालें। परन्तु इस बार चुनाव के दौरान कई ऐसे मौके आये चुनाव आयोग का रवैये पर सवाल उठे हैं।
सवाल तो राजनेताओ से भी होने चाहिए कि क्या वे एक बड़े लोकतंत्र के जिम्मेदार प्रतिनिधि होने का आचरण नहीं दिखा सकते हैं? चुनाव आयोग आचार संहिता को “भारत में लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अद्वितीय योगदान” के रूप में वर्णित करता है। क्या राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को अपनी बात और मतलब में आदर्श आचरण नहीं दिखाना चाहिए?
कुछ लोगों का मानना है कि कुछ राजनीतिक नेताओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा की कठोरता उनके घृणित इरादे को उजागर करती है, जबकि अन्य सोचते हैं कि यह झगड़ा महज राजनीतिक खींचतान का एक हिस्सा है।
संहिता (MCC) में कहा गया है: “कोई भी पार्टी या उम्मीदवार ऐसी किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होगा – जो मौजूदा मतभेदों को बढ़ा सकता है या आपसी नफरत पैदा कर सकता है या विभिन्न जातियों और समुदायों, धार्मिक या भाषाई के बीच तनाव पैदा करता है” और “जाति या सांप्रदायिक भावनाओं के लिए कोई अपील नहीं की जाएगी” वोट सुरक्षित करना।”
वास्तव में, इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 123 (3 और 3 ए) और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 125 के तहत “भ्रष्ट आचरण” और “चुनावी अपराध” के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। हालाँकि, समस्या यह है कि किसी के लिए भी “धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा” के आधार पर अपील करना महज “भ्रष्ट आचरण” बन जाता है; जबकि इसका अर्थ “किसी भी व्यक्ति को वोट देना या वोट देने से बचना” होना चाहिए।
इसी तरह, वर्गों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना एक दंडनीय अपराध बन जाता है, जिसमें तीन साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं,लेकिन केवल अगर यह “चुनाव के संबंध में” हो। हालाँकि, यह साबित करना कि ऐसा बयान किसी चुनाव के संबंध में दिया गया था एक टेढ़ी खीर हो सकती है। कानूनी तौर पर इसका मतलब यह हो सकता है कि यह मतदान करने या मतदान से परहेज करने की स्पष्ट अपील होनी चाहिए।
अतः यह अवश्यक है कि देश और चुनाव आयोग (Election Commission of India) आचार संहिता (Model Code of Conduct) पर पुनर्विचार करें और अपनी अंतरात्मा को पुनः सक्रिय करें। इसे महज “मॉडल (Model)” नहीं बल्कि “मॉरल (Moral)” भी बनाये जाने की जरुरत है।
लोकतंत्र में चुनाव-और स्वच्छ चुनाव जिसमे सभी को समान अवसर प्रदान किया जाये-बेहद जरूरी है। इस दौरान लोगों और उनके नेताओं को अपनी नैतिक ताकत नहीं खोनी चाहिए। इससे नुकसान हो सकता है जो राजनीतिक चयन की आवधिक कवायद से परे हो सकता है।