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    अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के मद्देनजर काबुल का पतन इस क्षेत्र और इसकी भूराजनीति के भविष्य के आकार के लिए एक निर्णायक क्षण साबित होगा। यह 1979 में सोवियत हस्तक्षेप और 2001 में अमेरिकी हस्तक्षेप के रूप में परिभाषित करने जैसा होगा। जबकि आने वाले महीनों में घरेलू और साथ ही दक्षिणी और पश्चिमी एशियाई भू-राजनीतिक बदलाव बहुत कुछ तालिबान के वास्तविक आचरण पर निर्भर करते हैं। नई दिल्ली के लिए भी काबुल का पतन एक पुनर्विचार का क्षण है। भारत को अब अपनी क्षेत्रीय रणनीतियों और विकल्पों पर नया खाका तैयार करना चाहिए।

    एक खतरनाक खालीपन

    अमेरिका के इस बेतरतीब तरीके से अफ़ग़ानिस्तान को छोड़ के निकलने से यूरेशियन हार्टलैंड में क्षेत्रीय शक्ति के नाम पर बस एक शून्यता मात्र रह गयी है। इसके संभावित प्रभाव अभी से देखने को मिल रहे हैं। चीन, पाकिस्तान, रूस और तालिबान जैसी क्षेत्रीय शक्तियों की धुरी ने पहले से ही इस शक्ति शून्य को भरना शुरू कर दिया है जिससे उनके व्यक्तिगत और सामान्य हितों के आधार पर क्षेत्र की भू-राजनीति की रूपरेखा तैयार हो गई है। चीनी नेतृत्व के तहत ईरान भी इस अवसरवादी समूह में कूद सकता है जिसकी सीढ़ी वजह अमेरिका के उसके ख़राब रिश्तों को माना जा रहा है।

    यहां पर नई दिल्ली को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह दक्षिण-पश्चिमी एशियाई भू-राजनीतिक शतरंज की बिसात पर हार न जाए। अमेरिका भी अब किसी तरह इस क्षेत्र की राजनीति में अपने आप को प्रासंगिक बनाये रखने की कोशिश करेगा। साथ ही उसकी कोशिश होगी की बाह यहाँ चीन, रूस और ईरान का प्रभुत्व बढ़ने न दे।

    चीन को हुआ है सबसे अधिक फायदा

    इस क्षेत्र में अमेरिका के हटने के बाद पैदा हुए शक्ति शून्य से मुख्य रूप से चीन और इस क्षेत्र के लिए उसकी भव्य रणनीतिक योजनाओं को सबसे अधिक फायदा मिलेगा। बीजिंग भारत को छोड़कर इस क्षेत्र के हर देश को चीनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव बैंडवागन पर लाने के अपने प्रयासों को और मजबूत करेगा जिससे इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक नींव बदलने की पूरी सम्भावना है।

    इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि भारत का बहुचर्चित चीनी घेरा और अधिक स्पष्ट हो जाएगा। अमेरिका की वापसी और इस क्षेत्र पर अपने अधिकार पर मुहर लगाने से और उत्साहित होने के बाद बीजिंग के वास्तविक नियंत्रण रेखा सहित भारत के प्रति कम उदार होने की संभावना है। व्यापार में भी कोरोना के बाद की भारतीय अर्थव्यवस्था की दयनीय स्थिति को देखते हुए भारत को चीन के साथ दूसरे तरीके से व्यापार की अधिक आवश्यकता है। जब तक नई दिल्ली चीन के साथ मेल-मिलाप सुनिश्चित करने के तरीके नहीं खोज लेती उसे उम्मीद करनी चाहिए कि बीजिंग अवसर पर भारत को चुनौती देगा।

    आतंकी चुनौती से करना होगा भारत को सामना

    हालांकि भारत के लिए बड़ी चुनौती इस क्षेत्र में आतंकवाद और उग्रवाद में लगभग निश्चित वृद्धि होगी। अफगानिस्तान में अमेरिका की उपस्थिति, तालिबान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव और पाकिस्तान में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की चिंताओं का क्षेत्र के आतंकी पारिस्थितिकी तंत्र पर अपेक्षाकृत प्रभाव पड़ा था। लेकिन तालिबान के अब काबुल में वापस आने से चीजें बदलनी तय हैं। तालिबान द्वारा अफगान जेलों से आतंकवादियों को रिहा करने के दृश्य क्षेत्र में उनके साथी यात्रियों, आकाओं और सहानुभूति रखने वालों को एक शक्तिशाली संदेश देंगे।

    पड़ोसी देश भी अफगानिस्तान से उत्पन्न होने वाले आतंकवाद से चिंतित हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि वे तालिबान के साथ अपने निजी समझौते करने में व्यस्त हैं ताकि तालिबान उन्हें लक्ष्य बनाने वाले आतंकवादी संगठनों की मेजबानी न करे। तालिबान के नेतृत्व वाले अफगानिस्तान से आतंकवाद को रोकने के लिए क्षेत्रीय दृष्टिकोण के लिए बहुत कम सहमति है। यह तालिबान को वहां मौजूद आतंकी संगठनों या उनके साथ संबंध रखने वाले के प्रति चयनात्मक व्यवहार करने में सक्षम बनाता है। इसके अलावा यह देखते हुए कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के पास तालिबान शासन को मान्यता देने के अलावा कोई विकल्प नहीं हो सकता है – चीन और रूस जैसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने पहले ही ऐसा करने के अपने इरादे का संकेत दिया है – इसका मतलब यह भी होगा कि तालिबान के पास आतंक के सवाल सौदेबाजी करने की अधिक शक्ति होगी।

    पकिस्तान एक नयी समस्या बन के उभरा

    अफगानिस्तान के घटनाक्रम पाकिस्तान के साथ शांति नहीं तो स्थिरता की तलाश करने के लिए नई दिल्ली को प्रेरित कर सकते हैं। जबकि अभी तक नई दिल्ली में पाकिस्तान के साथ व्यापक आधार वाली वार्ता प्रक्रिया को फिर से खोलने की बहुत कम इच्छा थी लेकिन अब यहां तक कि एक ‘ठंडी शांति’ भी भारत के हित में होगी। पाकिस्तान के लिए भी इस तरह की शांति उसे अफगानिस्तान में अपने हितों और लाभ को मजबूत करने पर अपनी ऊर्जा केंद्रित करने में मदद करेगी।

    नतीजतन दोनों पक्ष प्रतिस्पर्धी जोखिम लेने से बच सकते हैं तब तक कि जब तक कि कुछ नाटकीय न हो जो हमेशा दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच एक संभावना हो। भारत और पाकिस्तान के बीच स्थिरता बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि कश्मीर में राजनीति कैसे चलती है और क्या नई दिल्ली घाटी में पीड़ित वर्गों को शांत करने में सक्षम है।

    इन घटनाक्रमों के मद्देनजर भारत के लिए सबक स्पष्ट है: उसे अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। इसलिए इसे बुद्धिमानी से दुश्मन बनाना चाहिए, दोस्तों को सावधानी से चुनना चाहिए, धुंधली पड़ी और भूली बिसरी दोस्ती को फिर से जगाना चाहिए और जब तक संभव हो शांति बनाना चाहिए।

    By आदित्य सिंह

    दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास का छात्र। खासतौर पर इतिहास, साहित्य और राजनीति में रुचि।

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