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    बीत कुछ दिनों से जारी सियासी अटकलों को विराम देते हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। देहरादून में शुक्रवार देर रात सवा ग्यारह बजे राजभवन पहुंच कर राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को उन्होंने अपना इस्तीफा सौंप दिया। आज उत्तराखंड को फिर नया मुख्यमंत्री मिल सकता है, जिसके लिए विधायक दलों की आज बैठक होगी। तीरथ रावत ने बीती 10 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण की थी और इस तरह से रावत चार महीने का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाए और राह के रोड़े को हटाने में असफल रहे। बहरहाल, आज तीन बजे देहरादून में भाजपा विधायक दल की बैठक में नया नेता चुना जाएगा।

    त्रिवेंद्र सिंह रावत ने दिया था पहले इस्तीफा

    त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 9 मार्च को राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को अपना इस्तीफा सौंपा था। इसके बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा था: “मैं लंबे समय से राजनीति कर रहा हूं। चार वर्षों से पार्टी ने मुझे सीएम के रूप में सेवा का मौका दिया। मैं कभी सोच नहीं सकता था कि मैं कभी सीएम बन सकता हूं, लेकिन भाजपा ने मुझे सेवा करने का मौका दिया। पार्टी ने अब निर्णय लिया है कि सीएम के रूप में सेवा करने का अवसर अब किसी और को दिया जाना चाहिए।” हालांकि, जब इस्तीफा देने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा था कि यह जानने के लिए आपको दिल्ली जाना पड़ेगा।

    उस समय सूत्रों का कहना था कि भारतीय जनता पार्टी में विधायकों और कुछ मंत्रियों के बीच नाराजगी के चलते त्रिवेंद्र सिंह रावत को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। दरअसल, इन नेताओं की त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्री बने रहने पर नाराजगी जताई थी। विवाद सामने आने के बाद केंद्रीय नेतृत्व भी इस मसले पर मंथन कर रहा था, जिसके बाद रावत के इस्तीफे की अटकलें तेज हो गई थीं।

    गौरतलब है कि उत्तराखंड में मंत्रियों और विधायकों के एक धड़े ने मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने की मांग की थी। साथ ही, इस मामले की जानकारी केंद्रीय नेतृत्व को भी दी थी। उनका कहना था कि अगर मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बदला गया तो अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है।

    क्या रहीं तीरथ सिंह रावत की कमियां: फिसलती जुबान

    बतौर मुख्यमंत्री अपने पहले हफ्ते में ही तीरथ महिलाओं के पहनावे पर टिप्पणी कर राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गए। आखिरकार तीरथ को माफी मांगनी पड़ी। कुछ दिन बाद ही उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा लॉकडाउन में मुफ्त राशन देने की योजना को ज्यादा बच्चे पैदा करने से जोड़ डाला। इसके बाद तो उनकी टिप्पणियों को लेकर कई सही गलत वीडियो सामने आने लगे। इन टिप्पणियों के चलते न सिर्फ उनकी छवि को धक्का लगा बल्कि पार्टी को भी असहज स्थिति का सामना करना पड़ा।

    नहीं बदल पाए धारणा

    भाजपा आलाकमान द्वारा मार्च में सत्ता परिवर्तन के पीछे एक वजह तत्कालीन सरकार के प्रति नाराजगी दूर करने के साथ ही भाजपा कैडर को आगामी विधानसभा चुनाव के लिए तैयार करना भी था। इस क्रम में उन्होंने अपने विधायकों को भले ही मना लिया हो लेकिन जनता के बीच अपनी छवि और पार्टी की नीतियों को लेकर बन रही धारणा को वो नहीं सुधार पाए। इसके चलते भी भाजपा उनके नेतृत्व में विधानसभा चुनाव में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।

    लचर प्रशासन

    सीएम के तौर पर तीरथ अपने पूर्ववर्ती के मुकाबले लचर साबित हुए। उनके कार्यकाल में मंत्री-विधायक, दर्जाधारी खुलकर उलझते रहे। जबकि त्रिवेंद्र के राज में इस मामले में सख्त अनुशासन देखने को मिला था। मुख्यमंत्री से लेकर मंत्रियों में हर काम के लिए पूर्व सीएम त्रिवेंद्र रावत के कार्यकाल को दोषी ठहराने की होड़ मची रही। सियासी प्रतिद्वंद्विता के चलते तीरथ सरकार, त्रिवेंद्र सरकार के कार्यकाल में हुए अच्छे कार्यों के उल्लेख से भी बचती रही। इस का भी सरकार की छवि पर असर पड़ा।

    सियासी भूमि का अभाव

    मुख्यमंत्री बनने के बावजूद तीरथ सिंह रावत अपनी सियासी जमीन पुख्ता नहीं कर पाए। जब तीरथ सीएम बने उस वक्त सल्ट सीट रिक्त थी। इसके कुछ दिन बाद गंगोत्री भी रिक्त हो गई लेकिन दोनों निर्वाचन क्षेत्र अपरिचित होने के कारण तीरथ किसी का चयन नहीं कर पाए। देरी से उनके लिए हालात दिन-प्रतिदिन विपरीत होते चले गए। इस कारण उपचुनाव जीतकर राजनैतिक वैद्यता हासिल करने और आगामी विधानसभा चुनाव के लिए माहौल बनाने का मौका उन्होंने गंवा दिया।

    रावत के सामने क्या थी संवैधानिक समस्या

    संविधान के मुताबिक पौड़ी गढ़वाल से भाजपा सांसद तीरथ सिंह रावत को 6 महीने के भीतर विधानसभा उपचुनाव जीतना था। तभी वह मुख्यमंत्री रह पाते। यानी 10 सितंबर से पहले उन्हें विधायकी जीतनी थी। कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि तीरथ सिंह गंगोत्री से चुनाव लड़ेंगे। हालांकि, चुनाव आयोग द्वारा सितंबर से पहले उपचुनाव कराने से इनकार करने के बाद सीएम रावत के सामने विधायक बनने का संवैधानिक संकट खड़ा हो गया। सूत्रों ने बताया कि उत्तराखंड उपचुनाव को लेकर अभी भी चुनाव आयोग को फैसला करना बाकी है। सूत्र ने कहा कि ये चुनाव कोरोना संक्रमण के हालात पर ही निर्भर करते हैं।

    20 साल में 11 मुख्यमंत्री

    वर्ष 2000 में उत्तराखंड अलग राज्य बना था। हालांकि इस पहाड़ी राज्य में सियासी घटानाक्रम तेजी से बदलता रहा है। महज 20 साल के इतिहास में इस राज्य में 11 मुख्यमंत्रियों ने शपथ ली। रोचक बात यह है कि राज्य के गठन से लेकर अब तक इतिहास में केवल नारायण दत्त तिवारी ही ऐसे मुख्यमंत्री रहे, जिन्होंने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। बाकी किसी भी मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया। सबसे ज्यादा हरीश रावत ने तीन बार शपथ ली है।

    नए सीएम के दो दावेदार

    सूत्रों के अनुसार, भाजपा में भावी नेतृत्व के लिए जो नाम उभरे हैं, उनमें सतपाल महाराज और धन सिंह रावत के नामों की चर्चा है। इसके पहले दिल्ली से देहरादून रवाना होने से पहले तीरथ सिंह रावत ने कहा कि वह शीर्ष नेतृत्व के निर्देश पर काम करेंगे।

    By आदित्य सिंह

    दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास का छात्र। खासतौर पर इतिहास, साहित्य और राजनीति में रुचि।

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