पांच साल के अंतराल के बाद श्रीलंका में राजपक्षे परिवार की सत्ता में वापसी ने एक ऐसे देश में प्रेस की आजादी और मानवाधिकारों को लेकर चिंताएं पैदा कर दी हैं जो अभी भी एक दशक पहले अपने 26 साल के गृहयुद्ध के अंत की ओर मानवता के खिलाफ अपराधों के आरोपों से जूझ रहा है।
समाचार एजेंसी सिन्हुआ के मुताबिक, पूर्व सैन्य प्रमुख, गोटबाया राजपक्षे ने ध्रुवीकरण अभियान के बाद देश के 16 नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल की, जिस दौरान उन्होंने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा को बेहतर बनाने का वादा किया, जिसने अप्रैल में इस्लामी चरमपंथियों द्वारा ईस्टर के मौके पर कई विस्फोटों का सामना किया। हमलों में 269 लोग मारे गए थे।
सत्ता में आने के 10 दिनों के बाद, राष्ट्रपति ने अपने भाई और पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री और वित्त मंत्रालय का प्रमुख नियुक्त कर दिया।
सबसे बड़े भाई, चामल को कृषि, सिंचाई, आंतरिक व्यापार और उपभोक्ता कल्याण मंत्रालय दिए गए, जिससे शासन की बागडोर लगभग पूरी तरह से राजपक्षे परिवार के हाथ में चली गई है जो 2009 में देश के गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद सबसे प्रमुख राजनीतिक परिवारों में से एक है।
2015 के चुनाव में हारने के बाद एक बार फिर राजपक्षे परिवार के हाथ में सत्ता होने से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को डर है कि महिंदा सरकार (2005-2015) के दौरान कथित रूप से लापता और एक्स्ट्रा जूडिशियल हत्याओं के मामलों की जांच में कोई प्रगति नहीं होगी, जब गोतबाया सैन्य प्रमुख थे और तमिल टाइगर गुरिल्लाओं के खिलाफ अंतिम लड़ाई की अगुवाई की थी।
श्रीलंका के लापता लोगों से संबंधित कार्यालय द्वारा प्राप्त शिकायतों के अनुसार, तमिल लड़ाकों के खिलाफ निर्णायक हमले के दौरान कम से कम 23,000 लोग गायब हो गए। लेकिन एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि गायब होने की संख्या 60,000 से 100,000 के बीच है।
मानवाधिकार प्रलेखन केंद्र के सलाहकार रूकी फर्नांडो ने कहा कि लापता लोगों के परिवार मामलों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं।
उन्होंने कहा, “गायब हुए मामलों के संबंध में 2009 के बाद से सत्ता में आई दोनों सरकारों से बहुत निराशाजनक प्रतिक्रिया मिली। अब, हमारे पास तीसरी सरकार है जो पहले की तरह है। लेकिन हम सबसे अच्छा होने की उम्मीद कर रहे हैं।”
फर्नांडो मैत्रिपाला सिरिसेना की पिछली सरकार का जिक्र कर रहे थे, जो राजपक्षे परिवार के 10 साल के शासन को समाप्त करने के बाद 2015 में सत्ता में आई थी।
हालांकि, सिरिसेना सरकार के दौरान कुछ मामले ही जांच के लिए आगे बढ़े।
उन्होंने कई हाई-प्रोफाइल मामलों को देखा जैसे कि पत्रकार प्रगीत एकनलीगोडा की गुमशुदगी और दूसरे पत्रकार लसंता विक्रमाटुंज की हत्या।
वूमेन इन एक्शन के लिए काम करने वाली मानवाधिकार प्रचारक श्रीन सरूर ने कहा कि देश में मौजूदा स्थिति बहुत ही चिंता का सबब है खासकर देश में अल्पसंख्यकों के विषय में।
सरूर ने कहा, “भले ही हम इसे पसंद करे या नहीं, अल्पसंख्यकों ने गोटाबाया का विरोध किया।” सरूर ने चुनाव के बारे में कहा जिसमें माना जाता है कि मुसलमानों और तमिल हिंदुओं ने गोताबया राजपक्षे के खिलाफ मतदान किया था।
सरूर ने कहा कि अल्पसंख्यकों को पहले से ही उत्तर और पूर्व में बड़े पैमाने पर सैन्यीकरण का डर सता रहा है, जहां बड़ी संख्या में तमिल और मुस्लिम रहते हैं।
सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट गामिनी वियांगोदा ने आरोप लगाया कि श्रीलंका में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की समाप्ति की शुरुआत पहले ही हो चुकी है क्योंकि मीडिया घरानों ने राजपक्षे परिवार का सामना करने से बचने के लिए कन्टेंट की सेल्फ-सेंसरिंग शुरू कर दी है।
इससे पहले स्तंभकार संजना हाटोटुवा नेआरोप लगाया था कि एक अखबार के संपादक ने राजपक्षे की जीत के बाद सोशल मीडिया पर व्यापक नस्लवादी टिप्पणियों के उनके एक लेख को खारिज कर दिया।
हाटोटुवा ने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा कि संपादक ने कहा कि उनके आलेख को प्रकाशित नहीं किया दा सकता क्योंकि ‘ऊपर से आदेश’ हैं।
देश को त्रस्त करने वाला एक और मुद्दा आर्थिक अस्थिरता है। ईस्टर के मौके पर हमले के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर भारी असर पड़ा क्योंकि पर्यटक अब श्रीलंका आने से डरते हैं।
जाफना विश्वविद्यालय के एक अर्थशास्त्री अहिलन कादिरगमार ने कहा कि नई सरकार सार्वजनिक ऋण का बोझ वहन करती है, जो कि वित्त मंत्रालय के अनुसार जीडीपी का 82.9 प्रतिशत है।
अर्थशास्त्री ने कहा कि सरकार ने ऋण को कम करने की योजना कैसे बनाई है, यह स्पष्ट नहीं है।
अपने घोषणापत्र में, राजपक्षे ने एक प्रगतिशील राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था बनाने का वादा किया, जहां युवाओं और स्थानीय उद्यमियों को हिंद महासागर के मोती के रूप में पहचाने जाने वाले द्वीप राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए अपने कौशल और प्रतिभा का उपयोग करने के लिए ‘नए अवसर’ दिए जाएंगे।