“सन 1970-80 के दशक में तिहाड़ जेल में कैदियों के हाथों में पड़ी हथकड़ियों और पांवों में बेड़ियों की आवाजें आज भी कान में गूंजती हैं। तिहाड़ सिर्फ जेल नहीं, एक मायावी और तिलिस्मी दुनिया है। इसकी ऊंची डरावनी चार-दिवारी के भीतर मैंने अच्छे-अच्छों को खुद के पांवों पर खड़े-खड़े ही जमीन पर गिरते-पड़ते, हांफते अपनी आंखों से देखा।
उनका दर्द अपने कानों से सुना। तिहाड़ से डरावने कैद-खाने में मुजरिमों ने जिंदगी काटी सो काटी। मैं तो मगर मुजरिम नहीं था। मैं यहां कारिंदा कहिये या सरकारी मुलाजिम था।”
“तिहाड़ जेल है, आईंदा भी जेल ही रहेगी। वक्त के साथ होने वाले परिवर्तनों में आने वाली पीढ़ियां संभव है कि तिहाड़ का नाम बदलकर कुछ और रख दें। तिहाड़ से जुड़ी मगर मेरी जिंदगी का हर लम्हा तर-ओ-ताजा ही बना रहेगा। जीवन के अंतिम सफर पर कूच करते वक्त भी इसके खट्टे-मीठे अनुभव मेरे जेहन मेरी यादों से धूमिल नहीं हो पाएंगे।
तिहाड़ में नए-नए मुजरिम और मुलाजिमान का आना-जाना बदस्तूर जारी रहेगा। हां, किसी का भी ‘ब्लैक-वारंट’ एक ही बार जारी होता है। वो ब्लैक-वारंट, जो किसी को भी अहसास कराता है ‘तिहाड़’ के ‘जेल’ होने का। मैंने इसी तिलिस्म में जिंदगी के 35 साल गुजारे हैं। बहैसियत मुजरिम नहीं बतौर सरकारी मुलाजिम।”
जी हां यह हॉलीवुड या फिर बॉलीवुड की किसी हॉरर फिल्म की लुभावनी पटकथा नहीं है। यह सब है तो सच मगर है रूह कंपा देने वाला सच। वो सच जो जमाने में सिर्फ वही जान सकता है जिसने, कभी तिहाड़ जेल की बदबूदार और बेहद संकरी काल-कोठरियों में रात-दिन गुजारे हैं। तिहाड़ के तिलिस्म यानी इसके अंदर की मायावी दुनिया के सच को पहली बार जमाने के सामने बेखौफ उजागर करने का ही नाम है ‘ब्लैक-वारंट।” नियमानुसार ‘ब्लैक-वारंट’ अदालत द्वारा उस सजायाफ्ता मुजरिम के नाम फरमान होता है, जिसे अगले ही दिन या फिर चंद घंटों की मोहलत के बाद फांसी के फंदे पर लटकाया जाना होता है।
तिहाड़ या फिर हिंदुस्तानी जेलों के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब, “ब्लैक-वारंट” के जरिये किसी को फांसी पर नहीं लटकाया जाएगा। हां, यह ब्लैक-वारंट फांसी पर लटकाए जा चुके तमाम मुजरिमों की दिल दहला देने वाली दास्तां जरूर हू-ब-हू बयान करेगा। यह दास्तां ‘ब्लैक-वारंट’ में एक-एक अल्फाज को पिरोकर लिखी है तिहाड़ जेल में 35 साल नौकरी कर चुके सुनील गुप्ता ने।
वही सुनील गुप्ता जो 1970 के दशक के अंत में कभी भारतीय रेलवे में कानून-अफसर-कर्मचारी की नौकरी किया करते थे। सन 1981 में तिहाड़ जेल के डिप्टी-सुपरिंटेंडेंट के पद पर तैनात होने वाले सुनील गुप्ता। जोकि सन 2016 में तिहाड़ जेल के कानून-अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं।
नाम भले ही “ब्लैक-वारंट” यानी काला-फरमान हो, मगर इसमें जेल के तिलिस्म को खोलती कई सच्ची आंखों देखी और कानों सुनी कहानियों को सुनील गुप्ता ने अपनी सहयोगी लेखक सुनेत्रा चौधरी के सहयोग से सजा-संवारकर जमाने के सामने लाने की कोशिश की है। रोली पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित इस खास ‘ब्लैक-वारंट’ को 26 नवंबर को दुनिया के हवाले करके ‘आम’ कर दिया जाएगा।
ब्लैक-वारंट के जरिये ही जमाने को पता चलेगा कि कैसे, क्यों और कब तिहाड़ जेल के कैदियों के पांवों में पड़ी बेड़ियों और हाथों में मौजूद हथकड़ियों का वजन हल्का हो पाया था। कैसे तिहाड़ जेल के नरक से किसी दबंग आईपीएस महिला अधिकारी ने दिलाई थी कैदियों को मुक्ति। ब्लैक-वारंट ही पदार्फाश होगा कि 1977 में आखिर क्यों और कैसे जनता पार्टी की जन्म-स्थली कहलाई या बनी थी तिहाड़ जेल?
ब्लैक-वारंट से ही उजागर होगा कि तिहाड़ में अंडरवल्र्ड दुनिया के खूंखार नाम छोटा राजन को पकड़ कर लाए जाने के बाद ही आखिर क्यों दी थी, छोटा शकील ने किसी जेल अफसर को धमकी? जिसमें कहा गया था, “तुम छोटा राजन को दो-तीन दिन से ज्यादा जिंदा नहीं रख पाओगे।” कौन था वो सजायाफ्ता मुजरिम जिसके जुर्म ने हिला दी थी दुनिया, मगर जेल में यही मुजरिम मानने लगा था सबका कहना।
ब्लैक-वारंट में ही लिखा मिलेगा, दुनिया के सबसे कुख्यात अपराधी चार्ल्स शोभराज को देखते ही क्यों घिघ्घी बंध जाती थी जेल अफसर-कर्मचारियों की? इन सबसे बड़ा खुलासा भी ब्लैक-वारंट ही करेगा कि आखिर अंडरवल्र्ड डॉन छोटा शकील ने तिहाड़ जेल के जिस अफसर को धमकाया था, क्यों जेल महानिदेशक ने तुरंत हटवा दी थी उसकी सुरक्षा और छीनकर जमा करा दिया था उसका सरकारी रिवॉल्वर? इसी ब्लैक-वारंट में दर्ज है 35 साल तिहाड़ की जेल की नौकरी के दौरान लेखक ने कैसे देखा 8 जिंदा मुजरिमों को फांसी के तख्ते पर झूलते हुए। मतलब एक ‘ब्लैक-वारंट’ में होंगे तिहाड़ के तिलिस्म को तार-तार करते सौ-सौ सच्चे किस्से। जो आज से पहले हमने-आपने सिर्फ और सिर्फ सोचे होंगे, सुने-पढ़े कभी नहीं होंगे।