क्या राष्ट्रमंडल खेल आज के संदर्भ में भारत के लिए वाकई अनुपयोगी हो गए हैं? यह एक बड़ा सवाल है और इसका उत्तर खोजने के लिए कई परतों को खंगालना होगा। इस सवाल के जवाब के लिए कई ऐसी बातों की तह में जाना होगा, जो खिलाड़ियों और यहां तक की खेल प्रशासकों से जुड़ी हैं। इनमें कुछ हालातजन्य कारण भी शामिल हैं।
31 जुलाई, 2014 को ब्रिटेन के समाचार पत्र ‘द गार्जियन’ में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक विश्व के महानतम धावक माने जाने वाले जमैका के उसैन बोल्ट ने समाचार पत्र ‘द टाइम्स’ को दिए साक्षात्कार में राष्ट्रमंडल खेलों को ‘ए बिग शिट’ (बकवास) करार दिया था। बोल्ट ने हालांकि बाद में इसका खंडन किया था लेकिन टाइम्स ने स्पष्ट कर दिया था कि बोल्ट अपने बयान से पलट रहे हैं।
बोल्ट खेलों के बहुत बड़े दूत हैं। उनका राष्ट्रमंडल खेलों को बकवास कहना बहुत बड़ी बात थी। बोल्ट के लिए राष्ट्रमंडल खेल सही मायने में बकवास थे। यही कारण है कि बोल्ट ने अपने करियर में सिर्फ एक बार ग्लासगो-2014 में इन खेलों में हिस्सा लिया था और वह भी 4 गुणा 400 मीटर रिले में। वह अपने सिंग्नेचर 100 और 200 मीटर दौड़ में नहीं उतरे थे।
बोल्ट दुनिया भर के खिलाड़ियों के दूत रहे हैं। उनका यह कथन राष्ट्रमंडल खेलों की महत्ता और अहमियत को परिभाषित करता है। दुनिया भर के चैम्पियन खिलाड़ियों के लिए राष्ट्रमंडल खेल कभी भी उनके वार्षिक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं रहे हैं। राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के कारण कई खिलाड़ी इसमें हिस्सा लेने के लिए बाध्य हुए लेकिन हर बार कइयों ने अलग-अलग कारणों से इन खेलों से खुद को दूर रखा।
अब अगर 2010 में भारत की मेजबानी में पहली बार आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों की बात की जाए तो उस साल बोल्ट के अलावा आसाफा पावेल, ओलंपिक साइकलिस्ट चैम्पियन गेराएंट थॉमस, इंग्लैंड की मैराथन धाविका पॉउला रेडक्लिफ, जेनिफर मिडोज, नताशा डेनवर्स, क्रिस होए, ब्रेडली विगिंस, विक्टोरिया पेडेल्टन और बेथ ट्वीडल जैसे खिलाड़ियों ने अलग-अलग कारणों से भारत आना जरूरी नहीं समझा था। आस्ट्रेलिया के लिए तीन बार ओलंपिक स्वर्ण जीत चुके तैराक डॉन फ्रेजर ने तो यह कहकर दिल्ली आने से इंकार कर दिया था कि यहां म्यूनिख ओलंपिक जैसा नरसंहार होने की आशंका है।
राष्ट्रमंडल खेलों का उपयोगी या अनुपयोगी होने की चर्चा भारत में इन दिनों काफी गरमाई हुई है। अभी कुछ दिन पहले ही भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) के महासचिव राजीव मेहता ने यह कहा था कि भारत 2026 में इन खेलों की मेजबानी कर सकता है लेकिन इसके एक दिन बाद ही आईओए के अध्यक्ष नरेंद्र बत्रा ने इसका खंडन करते हुए कहा था कि इसका सवाल ही नहीं उठता। बत्रा इन दिनों बर्मिघम-2022 राष्ट्रमंडल खेलों से निशानेबाजी को हटाए जाने से नाराज हैं और वह चाहते हैं कि भारत बर्मिघम खेलों का बहिष्कार करे।
बत्रा ने सितम्बर में बेंगलुरू में यहां तक कह दिया था कि राष्ट्रमंडल खेलों की अब कोई उपयोगिता नहीं रह गई है और अब भारत को एशियाई और ओलंपिक खेलों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। बत्रा ने दबे शब्दों में राष्ट्रमंडल खेलों को बकवास करार दिया था। इस लिहाज से वह तथा बोल्ट एक ही प्लेटफार्म पर दिखाई दे रहे हैं। बोल्ट के ऐसा कहने पर इंग्लिश मीडिया ने काफी हो-हंगामा किया था लेकिन भारत में बत्रा के बयान को लेकर हो-हल्ला नहीं हुआ क्योंकि निशानेबाजी हमेशा से भारत के लिए एक बड़ा इवेंट रहा है और भारत ने इसकी बदौलत राष्ट्रमंडल खेलों, एशियाई खेलों और यहां तक की ओलंपिक में कई पदक जीते हैं। भारत का एकमात्र व्यक्तिगत ओलंपिक स्वर्ण निशानेबाजी में ही आया था।
आंकड़ों पर गौर करें तो राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का प्रदर्शन हमेशा चमकदार रहा है। 2002 के बाद से भारत हमेशा पदक तालिका में टॉप-5 में रहा है। 2010 में तो भारत ने 38 स्वर्ण सहित कुल 101 पदकों के साथ दूसरा स्थान हासिल किया था। ग्लासगो में भारत को 64 पदक हासिल हुए थे और वह पांचवें स्थान पर रहा था। भारत ने हालांकि गोल्ड कोस्ट (आस्ट्रेलिया) में अपना प्रदर्शन सुधारते हुए 26 स्वर्ण सहित कुल 66 पदकों के साथ तीसरा स्थान हासिल किया था। भारत राष्ट्रमंडल खेलों में 1930 से लेकर अब तक कुल 504 पदक जीत चुका है और सर्वकालिक तालिका में चौथे स्थान पर है।
इससे इतर अगर वैश्विक स्तर पर भारत के प्रदर्शन को देखा जाए तो पदक बड़ी मुश्किल से आते हैं। अभी दोहा में हाल ही में समाप्त विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में भारत को एक भी पदक नहीं मिल सका था। इसी तरह रियो ओलंपिक में भारत को सिर्फ दो पदक मिले जबकि लंदन में दो रजत सहित कुल छह पदक जीते थे। 2008 के बीजिंग ओलंपिक में भारत को अपना अब तक का एकमात्र स्वर्ण निशानेबाजी में मिला था। वैसे भारत ने 96 साल के अपने ओलंपिक इतिहास में कुल 28 पदक जीते हैं जिनमें नौ स्वर्ण हैं। इनमें से 8 स्वर्ण भारत ने हॉकी में जीते हैं।
तो क्या भारतीय खिलाड़ी राष्ट्रमंडल खेलों के प्रदर्शन को एशियाई खेलों या फिर ओलंपिक में दोहरा नहीं पाते या फिर राष्ट्रमंडल खेलों का स्तर शुरुआत से ही दोयम है। यही कारण है कि इन खेलों से खिलाड़ियों को अभ्यास के इतर और कोई फायदा नहीं मिलता। हां, पदक जीतने पर भारत में खिलाड़ियों को करोड़ों की आमदनी जरूर हो जाती है।
एशियाई खेलों की बात करें तो भारत ने 1951 से लेकर 2018 तक कुल 671 पदक जीते हैं, जिनमें 154 स्वर्ण, 202 रजत और 315 कांस्य हैं। भारत को एथलेटिक्स में सबसे अधिक 253 पदक मिले हैं लेकिन ओलंपिक की बारी आती है तो भारतीय खिलाड़ी फिसड्डी रहते हैं। चीन, जापान और कोरिया की भागीदारी के कारण एशियाई खेलों का फिर भी एक स्तर रहता है लेकिन राष्टमंडल खेलों का इस लिहाज से कोई स्टैंडर्ड नहीं रह जाता। कुश्ती (59), निशानेबाजी (58) और मुक्केबाजी (57) में भारत ने एशियाई खेलों में अच्छी संख्या में पदक जीते हैं। इन तीनों खेलों में से हालांकि भारत को ओलंपिक में सबसे अधिक पदक आए हैं।
लेकिन एथलेटिक्स, तैराकी और साइकिलिंग ऐसे इवेंट्स हैं, जहां राष्ट्रमंडल खेलों में हिस्सा लेने वाले देश बाजी मार जाते हैं। 2019 विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में राष्ट्रमंडल देशों ने 149 में से 42 पदक अपने नाम किए जबकि एशियाई देशों के नाम 17 पदक रहे। तैराकी में 111 में से 36 पदक राष्ट्रमंडल देशों के नाम रहे और इनमें से 13 पदक एशियाई देशों ने जीते। साइकिलिंग में 54 में से 17 पदक राष्ट्रमंडल देशों और तीन एशियाई देशों ने जीते।
एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों में भारत द्वारी जीते गए पदकों की संख्या को उसके ‘फेस वैल्यू’ के तौर पर नहीं लिया जा सकता क्योंकि वैश्विक स्तर पर भारत का प्रदर्शन बिल्कुल उलट जाता है। भारत के लिहाज से यह सही होगा कि किसी सम्पूर्ण आयोजन की उपयोगिता पर बहस न करके इस बात पर बहस किया जाए कि ऐसे आयोजनों से भारत को व्यक्तिगत स्पर्धाओं में कितना फायदा हो रहा है। इसका कारण यह है कि कई ऐसे भारतीय खिलाड़ी रहे हैं, जिन्होंने राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों में अपनी चमक दिखाने के बाद ओलंपिक में भी पदक जीते हैं।