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    पटना, 1 जुलाई (आईएएनएस)| बिहार के उत्तरी हिस्से के मुजफ्फरपुर सहित कई जिलों में फैले एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के कारणों की जांच के लिए देश के विशेषज्ञों की टीम मुजफ्फरपुर पहुंचकर जांच कर रही है। यह टीम जुबानी अंत:परीक्षण (वर्बल ऑटोप्सी) के जरिए एईएस के कारणों की जांच करेगी।

    जांच टीम यहां के अस्पतालों में चमकी बुखार या एईस से पीड़ित भर्ती बच्चों के पंजीकरण, बीमारी के लक्षण, उपचार के तरीके और अस्पताल से छुट्टी के डेटा संग्रह कर पूरी जानकारी ले रही है। इनमें वे पीड़ित बच्चे भी शामिल होंगे, जिनकी इस बीमारी से मौत हो गई है।

    विशेषज्ञों की टीम का नेतृत्व कर रहे राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के सलाहकार डॉ़ अरुण कुमार सिन्हा इस पूरी प्रक्रिया को ‘वर्बल ऑटोप्सी’ कहते हैं।

    उन्होंने कहा, “मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेमोरियल कॉलेज अस्पताल (एसकेएमसीएच) और केजरीवाल मातृसदन से कम से कम 100 पीड़ित बच्चों की बीमारी का अध्ययन किया गया है। पूरी जांच वर्बल ऑटोप्सी के जरिए की जा रही है।”

    उन्होंने कहा, “प्रारंभिक जांच में बच्चों में मेटाबोलिज्म सही ढंग से काम नहीं करने की बात सामने आई है। इससे शरीर में सेल (कोशिका) का माइटोकांड्रिया (कोशिका का ऊर्जा गृह) सही ढंग से काम नहीं कर रहा है। इन बच्चों के मल्टीर्अगस फेल हो रहे हैं। इसी कड़ी में लीवर भी सही ढंग से काम करना बंद कर दे रहा है, जिससे शरीर में बनने वाला अमोनिया डिटक्सीफाई (विष विहीन) नहीं हो पा रहा है।”

    विशेषज्ञों का मानना है कि यही अमोनिया ब्रेन तक पहुंचकर बच्चों को हैप्टिक इंसेफेलोपैथी का शिकार बना रहा है।

    उल्लेखनीय है कि माइटोकान्ड्रिया किसी भी कोशिका के अंदर पाया जाता है, जिसका मुख्य काम कोशिका के हर हिस्से में ऊर्जा पहुंचाना होता है। इसी कारण माइटोकांड्रिया को कोशिका का पॉवर हाउस (उर्जा गृह) भी कहा जाता है।

    टीम के एक चिकित्सक ने बताया कि कुछ विशेषज्ञों को आशंका है कि बच्चों में कुछ अनुवांशिकी कारणों से भी यह बीमारी हो रही है। उन्होंने बताया कि माइटोकांड्रिया को देखकर जब इलाज की दिशा बदली गई तो कई पीड़ित बच्चों की जान बच गई।

    एसकेएमसीएच के अधीक्षक डॉ़ एस़ क़े शाही ने सोमवार को बताया कि माइटोकांड्रिया की बात सामने आने के बाद बच्चों का डीएनए टेस्ट भी संभव है। इसके लिए पहल हो चुकी है।

    उन्होंने कहा कि “पहली बार इलाज के दौरान बच्चों के सभी आर्गन की पैथोलॉजिकल जांच कराई गई है, यही कारण है कि माइटोकांड्रिया जैसी समस्या सामने आई। इस बार सेंटर फॉर डीएनए फिंगर प्रिंटिंग एवं निदान संस्थान (सीडीएफएन) हैदराबाद को मसल्स के सैंपल भेजे हैं। कई बच्चों के सैंपल की दिल्ली में बायोप्सी कराई गई है।”

    चिकित्सकों का कहना है कि पीड़ित बच्चे यदि बीमारी के तुरंत बाद अस्पताल पहुंचते हैं, तो पीड़ित की जान बचाई जा सकती है।

    गौरतलब है कि 15 वर्ष तक की उम्र के बच्चे इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं, और मरने वाले बच्चों में से अधिकांश की उम्र एक से सात साल के बीच है।

    इस वर्ष अब तक 165 से ज्यादा बच्चों की मौत एईएस से हो चुकी है। इस साल अब तक एईएस से पीड़ित करीब 750 बच्चे इलाज के लिए अस्पताल पहुंचे हैं, जिसमें कई बच्चे स्वस्थ होकर भी वापस लौटे हैं।

    उल्लेखनीय है कि मुजफ्फरपुर में एईएस का पहला मामला 1995 में प्रकाश में आया था। इस बीमारी को लेकर अब तक कोई निश्चित कारण सामने नहीं आए हैं, परंतु उच्च तापमान और वातावरण में नमी (आद्र्रता) के बढ़े सालों में इस बीमारी का कहर ज्यादा दिखाई देता है।

    इससे पहले के वर्षो में दिल्ली के नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के विशेषज्ञों की टीम तथा पुणे के नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) की टीम भी यहां इस बीमारी का अध्ययन कर चुकी है।

    By पंकज सिंह चौहान

    पंकज दा इंडियन वायर के मुख्य संपादक हैं। वे राजनीति, व्यापार समेत कई क्षेत्रों के बारे में लिखते हैं।

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