नई दिल्ली, 24 मई (आईएएनएस)| हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड और दिल्ली से लेकर पश्चिम बंगाल और असम सहित संपूर्ण उत्तर और मध्य भारत में सभी गढ़ों को ध्वस्त करते हुए हिंदुत्व ने एक नए रूप, रंग और अर्थ में सामने आया है। यह अनवरत बजने वाली एक ऐसी आवाज है, जो हिंदुत्व के एक विस्तारित रूप की बात करती है, वंशवाद की निंदा करती है।
भारत में भय और आकांक्षा तेजी से बढ़ती जा रही है। तुष्टीकरण की राजनीति के कारण अधिक समावेशन के बजाए बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा मिला। कुल मिलाकर भारत 2019 में नए युग में प्रवेश कर रहा है, जब पहचान की राजनीति के युग का अंत हो चुका है।
सड़ांध और छल-कपट को कांटे से निकालकर बाहर फेंक दिया गया है। यह रणनीतिक बदलाव है, जिसके तहत गै्रंड ओल्ड पार्टी (जीओपी) को लगातार दूसरी बार नकार दिया गया है।
वक्त यह स्वीकार करने का है कि किसे राजनीतिक रूप से गलत समझा जाता है, क्योंकि इस गुणा-गणित और स्पष्टता के बीच एक महीन रेखा होती है। इन दोनों के बीच छोटा रास्ता छल से भरा होता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अनोखा जनवादी विकास मॉडल कल्याणकारी अर्थशास्त्र पर आधारित है, जिसमें सबसे निचले तबके के गरीबों में भी सबसे गरीबों को शामिल किया गया है। यह मॉडल उनके तरकस का एक अलग तीर है। लोगों को सशक्त बनाना और आर्थिक सुधारों का फल उन तक पहुंचाना ही मोदीनोमिक्स (मोदी का अर्थशास्त्र) है।
गरीबों को लक्ष्य करके बनाई गई कल्याणकारी योजनाओं की सूची का काम जमीनी स्तर पर स्पष्ट रूप से देखा गया है।
अगड़ी जातियों से लेकर एससी/एसटी और पिछड़ी जातियों तक सबमें मोदी की शख्सियत विशाल बन चुकी है।
हिंदू वोट बैंक के पुरोधा के रूप में नरेंद्र मोदी बहुसंख्यकवादी ताकतों को नई पहचान देने के लिए अचेतन संदेश का उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि
पिछले पांच सालों में चुनावी राजनीति में आने वालों में यह समा गया है।
नई हिंदू व्यवस्था तुष्टीकरण और अल्पसंख्यक विरोधी मत के आधार पर काम कर रही है। जातियों की दीवारों को ध्वस्त करते हुए हिंदू मतों का ध्रुवीकरण मोदी की जीत में लगातार मददगार रहा है।
पहली बार जब उन्होंने 2014 में उत्तर प्रदेश में 80 में से 73 सीटों (अपना दल समेत) पर जीत हासिल की। उसके बाद 2017 में प्रदेश के विधानसभा चुनाव में विपक्ष को बुरी तरह पराजित किया।
इस दौरान असम, जम्मू-कश्मीर के जम्मू संभाग में जीत हिंदू हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी की विजय थी, क्योंकि उनके पीछे हिंदू मतदाताओं का समूह उमड़ पड़ा।
तुष्टीकरण और लगातार मुस्लिम को खुश करने के विरुद्ध परोक्ष रूप से संदेश देकर अवचेतन को झकझोरा गया, जिससे हिंदू वोट बैंक बना और उसका ही यह परिणाम हुआ कि उत्तर प्रदेश में लगातार तीसरी बार जीत हासिल हुई।
प्रासंगिक रूप से यह घटनाक्रम मंदिर और अयोध्या से बढ़कर है, क्योंकि यह हिंदू अस्मिता का सवाल है। साथ ही अंध-देशभक्ति और मर्दानगी का सवाल है। इससे समाज के सभी वर्गो और राज्यों में हिंदू स्वर उभरा। इसके फलस्वरूप नग्न बहुसंख्यकवाद, इस्लाम के प्रति पूर्वाग्रह और मुसलमानों पर प्रहार और दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से मॉब लिंचिंग की घटनाएं देखने को मिलीं। हमारी सामूहिक राष्ट्रीय चेतना में गाय का स्थान अतिविशिष्ट बन गया।
तुष्टीकरण को लेकर पैदा हुए असंतोष के कारण हिंदू मतदाताओं में एकजुटता आई। मोदी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह जानते हैं कि भारत में बहुसंख्यकवाद का उत्कर्ष चरम पर है और यह अभी भी बढ़ रहा है।
बढ़ता हुआ बहुसंख्यकवाद कृत्रिम राष्ट्रवाद के समान है। यह बहुसंख्यकवाद राष्ट्रवाद में बदल रहा है, जोकि यह जाति के केंद्र से निकला है।
दक्षिण एशिया के अन्य पड़ोसी देशों के विपरीत भारत में धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों में समायोजन रहा है, लेकिन यह प्रवृत्ति नाटकीय ढंग से बदल रही है।
भारत में हिंदुत्व के बजाय हिंदू अति राष्ट्रीयता के पक्ष में लोगों की राय में अगोचर ढंग से बदलाव स्पष्ट दिख रहा है। हिंदू पहचान हिंदुत्व की सच्चाई बन गई है।
हिंदुत्व का अभिप्राय अब राम मंदिर और अयोध्या तक ही सीमित नहीं रह सकता है, बल्कि उन हिंदुओं द्वारा प्रदर्शित अधिक आक्रामक छवि बन गई है, जो अपनी पहचना का दावा करना चाहते हैं।
बहुसंख्यकवाद के आवेग से धार्मिक अल्पसंख्यकों और निचली जातियों के अपमान को चिनगारी मिली है जिससे भारत के ताने-बाने में दरार पैदा हुई है। यह दुर्गुण इतना बड़ा बन गया है कि राहुल गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने भी इसी प्रकार की नरम हिंदुत्व पहचान की राजनीति करने की कोशिश की।
लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेस स्थित स्कूल ऑफ ह्युमैनिटिजी एंड सोशल साइंसेस में समाजशास्त्र की प्रोफेसर निदा किरमानी का विचार कुछ दिन पहले डॉन में प्रकाशित हुआ था, जिसमें एक रोचक तथ्य प्रदान किया गया है। उनके अनुसार, “बहुसंख्यकवाद का बीज न सिर्फ खासतौर से दक्षिणपंथी भाजपा में मौजूद है, बल्कि कांग्रेस के बयान में भी मौजूद है। धार्मिक समुदायों के बीच सहयोग और मैत्री की गांठें भी असंतोष और अविश्वास की लड़ियां हैं, जो समय-समय पर धधकती हैं। मोदी ने हिंदू बहुसंख्यकवाद पैदा नहीं किया। उन्होंने दशकों से भारत की हुकूमत में सुलग रही चिंनगारी को सिर्फ हवा दी है।”