हिंदू धर्म में अघोर पंथ या अघोर संप्रदाय के अनुयायियों को अघोरी कहा जाता है। इस पंथ के प्रवर्तक भगवान शिव माने जाते हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद में भगवान शिव के रूद्र मूर्ति को अघोरा या मंगलमयी कहा गया है। मुख्यतया इसकी तीन शाखाएं हैं-औघर , सरभंगी और घुरे। इस पंथ को साधारणतः लोग ‘औघढ़पंथ’ भी कहते हैं। शव के जरिए श्मसान साधना करना, मुर्दे का मांस खाना, खोपड़ी में मदिरा पान करना अघोरी की दिनचर्या में शामिल है।
अघोर की परिभाषा
अ+घोर से मिलकर बना शब्द ‘अघोर’ का मतलब होता है, जो डरावना नहीं हो, सरल हो, जिसके मन में किसी के लिए भेदभाव ना हो। बिल्कुल सरल बनने के लिए अघोरी को कठोर श्मसान साधना करनी पड़ती है। अघोरी बनने की पहली शर्त यह है कि मन में घृणा का भाव ना हो। असली अघोरी वो है जिसके मन से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईर्ष्या-मोह के सारे भाव मिट जाए।
जिन चीजों से समाज घृणा करता है, वही काम अघोरी करता है। श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस, कफन आदि से नफरत करते हैं, लेकिन एक अघोरी इसे ही अपनाता है। अघोर विद्या में लोक कल्याण की भावना निहित होती है।
श्मसान साधना के लिए ऐसे मुर्दें लाते हैं अघोरी
हिंदू धर्म में आत्महत्या वाले शवों, 5 साल से कम आयु के बच्चों तथा सांप काटे हुए व्यक्ति को लोग जलाते नहीं बल्कि गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। शव प्रवाह के कुछ घंटे बाद मुर्दे हल्के होकर पानी के उपर तैरने लगते हैं। अघोरी इन्ही शवों को खींचकर पानी से बाहर निकाल लाते हैं और रात्रि के वक्त सुनसान श्मशान पर अपनी तांत्रिक साधना पूरी करते हैं।
श्मशान घाट पर तंत्र सिद्धि करने की असली वजह
अघोरी केवल श्मशान घाटों पर ही अपनी तांत्रिक सिद्धि पाने के लिए साधना करते हैं। अघोरी श्मशान घाट पर तांत्रिक साधना इसलिए करते हैं, क्योंकि रात में श्मशान घाट पर कोई नहीं जाता है और साधना में किसी प्रकार की विघ्न-बाधा नहीं पड़ती है। अघोरी लोग गाय मांस छोड़कर सबकुछ खाते हैं, साधना के वक्त प्यास लगने पर कभी-कभी वो अपना मूूत्र तक पी जाते हैं।
कहा जाता है कि श्मसान साधना करते समय अघोरी मुर्दों से बात तक करते हैं, लेकिन उनके इस तथ्य को चुनौती नहीं दी जा सकती है। अघोरी बात के बड़े पक्के होते हैं, एक बार जो ठान लेते हैं उसे पूरा करके ही छोड़ते हैं।
काशी के मर्णिकर्णिका घाट पर अघोरी ऐसे करते हैं महादेव की पूजा
काशी एक मात्र ऐसी नगरी है जहां श्मशान घाटों पर अघोरी महादेव की पूजा करते हैं। अपनी तामसिक क्रिया पूरी करने के लिए अघोरी नंर मुंडों में खप्पर भरकर 40 मिनट तक भगवान महोदव की पूजा करते हैं। तामसिक सिद्धि प्राप्त करने वाले अघोरी को चत्मकारी शक्त्यिां प्राप्त होती हैं। तंत्र साधना के दौरान अघोरी महाकाली तथा शक्ति का भी आहवान करते हैं। ऐसी मान्यता है कि मर्णिकर्णिका का श्मशान घाट महादेव का निवास स्थान है।
आदि काल से ही दिपावली की पूरी रात मर्णिकर्णिका श्मशान घाट पर अघोरी लोग अपनी तांत्रिक साधना पूरी करते हैं। इसके औघड़ संत जलती चिताओं के बीच बैठकर विभिन्न तामसिक भोगों के साथ 11 मानव खोपड़ी में शराब भरकर अपनी तांत्रिक सिद्धि प्राप्त करते हैं। कहते हैं इसी घाट पर भगवान शिव ने विष्णु से संसार संचालन करने का वादा किया था और इसी घाट पर महादेव ने मोक्ष देने की प्रतिज्ञा की थी।
अघोरी भस्म का इसलिए करते हैं इस्तेमाल
चूंकि भगवान शिव का प्रमुख वस्त्र भस्म ही है, इसलिए अघोरी श्मशान घाट के भस्म को अपने शरीर में लगाते हैं। यहीं नहीं कभी-कभी जब इन्हें भूख लगती है तो ये भस्म को घोलकर पी जाते हैं। औघड़ लोग श्मसान साधना के लिए भस्म को सबसे पवित्र वस्तु मानते हैं।
भस्म की वैज्ञानिक विशेषता यह है कि इससे शरीर के राम छिद्र पूरी तरह से बंद हो जाते हैं।
इससे शरीर को सर्दी और गर्मी नहीं लगती है। भस्म त्वचा संबंधी रोगों को भी दूर करती है। भस्म लगाने वाले शिव ने यही संदेश दिया कि हर परिस्थिति के अनुसार मनुष्य को ढलना चाहिए, यही मानव का सबसे गुण है। एक अन्य तर्क यह है कि भगवान शिव कैलाश पर्वत पर विराजते हैं, जहां का तापमान काफी ठंडा होता है, ऐसे में भगवान भोलेनाथ अपने शरीर पर भस्म लगाते हैं।
मुर्दों के जरिए पिशाच सिद्धि
कहते हैं जो अघोरी पिशाच सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, उनके सामने पिशाच मित्र के रूप में चौबीसो घंटे अदृश्य रूप में विराजमान रहता है। जीवन चाहे कितने भी शत्रु हों, अथवा धन प्राप्ति में पिशाच सिद्धि अत्यंत सर्वोत्तम होती है। इसके लिए साधक अपने शरीर में भस्म लगाकर श्मशान घाट पर रात में लगातार तीन दिन तक साधना करते हैं।