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    भारत में शिक्षा के गिरते स्तर का कारण

    भारत देश प्राचीन काल से ही अपनी विद्वता के लिए विश्वविख्यात रहा है। इस भूमि ने याज्ञवलक्य और गार्गी जैसे प्रकाण्ड शास्त्रार्थियों को जन्म दिया वहीं ये महात्मा बुद्ध, चाणक्य और स्वामी विवेकानन्द जैसे विद्वानों कि जननी भी रही। एक ओर जहाँ हमारे वेदों ने दुनिया को विज्ञान,तकनीकी और अनुसन्धान सिखाया वहीं दूसरी ओर हम सांस्कृतिक रूप से भी काफी समृद्ध रहे। यही वजह थी कि हमें “विश्वगुरु” का दर्जा मिला।

    गुजरते वक़्त के साथ हम अपना वजूद खोते गए और फिर विदेशी आक्रमणकारियों के शासन ने हमें अपनी संस्कृति से भी दूर कर दिया। पहले मुग़ल और फिर अंग्रेजों के शासनकाल ने हमारी जड़ों को खोखला किया और नतीजन आज हम पाश्चात्य संस्कृति की बेड़ियों में जकड़ कर रह गये हैं। हम भारत की सच्चाई और आत्मीयता भरी दुनिया से दूर दिखावे की दुनिया में जी रहे हैं जो हमें हमारे सुनहरे अतीत से और दूर कर रही है। आज हम तकनीकी और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ रहे हैं। शिक्षा के गिरते स्तर का मुख्य कारण हमारी शिक्षा पद्धति है। किसी भी देश का भविष्य और उसकी तरक्की उसके युवाओं पर निर्भर करती है और एक युवा अपनी शिक्षा के दम पर योग्य बनता है। किसी भी इंसान की सोच पर उसकी शिक्षा और वातावरण का गहरा प्रभाव होता है।

    भारत की शिक्षा प्रणाली

    देश की शिक्षा प्रणाली मुख्यतः 3 स्तरों में विभाजित है। पहला स्तर स्कूली शिक्षा का है जो दसवीं (हाईस्कूल) तक होता है। दूसरा स्तर जूनियर कॉलेज (इंटरमीडिएट) का होता है जो बारहवीं तक होता है। तीसरे स्तर पर उच्च शिक्षा (कॉलेज) होती है। देश में अधिकतर जगहों पर शिक्षा प्रणाली में 10+2+3 पैटर्न का प्रयोग होता है। शुरुआती 10 साल स्कूली शिक्षा फिर 2 साल जूनियर कॉलेज और अगले 3 साल तक उच्च शिक्षा।

    देश में स्कूली शिक्षा मुख्यतः 5 संस्थाओं द्वारा प्रदान की जाती है। ये संस्थाए है सीबीएसई, आईसीएसई, राज्यस्तरीय बोर्ड, ओपन स्कूलिंग और मदरसा बोर्ड। देश में शिक्षा के गिरते स्तर का एक मुख्य कारण इन शिक्षा प्रद्दत संस्थाओं का एक स्तर का ना होना है। इसके परिणामस्वरुप समान स्तर पर होते हुए भी इनके पाठ्यक्रमों में बदलाव होता है। यही कारण होता है कि दो अलग-अलग विद्यालयों के छात्रों की शिक्षा में अंतर आ जाता है और यह आरक्षण के लिए जिम्मेदार कारकों में से एक है।

    स्कूली शिक्षा

    तकनीकी शिक्षा और विश्वविद्यालयीय शिक्षा

    देश में तकनीकी शिक्षा को एआईसीटीई और विश्वविद्यालयीय शिक्षा को यूजीसी मान्यता प्रदान करता है। दोनों ही क्षेत्रों में इन संस्थाओं ने ऊँचे मापदण्ड स्थापित कर रखे है पर इनका पालन बमुश्किल कहीं होता है। शिक्षा के क्षेत्र में विभागीय और आधिकारिक स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार इन संस्थाओं के मापदण्डों पर सवाल उठाते है। यह बात अक्सर समझ से परे हो जाती है कि देश के युवाओं के भविष्य का निर्धारण करने वाले व्यक्ति कैसे इन भ्रष्टाचारों में लिप्त हो जाते है। क्या उन्हें एकबार भी देश और समाज के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी का एहसास नहीं होता। नतीजा यह होता है कि तय मानकों पर खरे ना उतरने वाले संस्थानों को भी मान्यता दे दी जाती है और कई बार तो जमीनी हकीकत से वाक़िफ़ हुए बिना ही उन्हें देश के सर्वोच्च संस्थानों की सूची में अग्रणी स्थान दे दिया जाता है। हाल के वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आये है जिनमें दक्षिण भारत के कई नामी संस्थानों का नाम ना केवल उछला है वरन उनपर आरोप भी सिद्ध हुए है।

    देश में कई संस्थान तो ऐसे है जो केवल कागजों पर है और उनका काम भी केवल की डिग्रियां देने तक ही सीमित है। देश में शिक्षा के गिरते स्तर का एक बड़ा कारण है, कि शिक्षा अब एक व्यवसाय बन चुकी है और शिक्षा-माफिया इसके सफेदपोश व्यवसायी। इन शिक्षा-माफियाओं में बड़ी संख्या में राजनेता, अधिकारी वर्ग के लोग और उद्योगपति शामिल है। दरअसल आजकल शिक्षा-प्रणाली एक उद्योग की तरह बर्ताव करने लगी है जिसमें शिक्षा संस्थान मशीनों का काम कर रहे है। छात्रों की फीस से मिला धन रॉ मैटेरियल है और 3-4 वर्षों बाद मिली डिग्री फाइनल प्रोडक्ट है। संस्थानों में अध्यापकों की भूमिका बस घर्षणरोधी शीतलक की तरह हो गई है जो हर हाल में मशीन को चालू अवस्था में रखने का कार्य कर रहे हैं। इस शिक्षा के बाद छात्रों का कोई भविष्य नहीं होता और ये संस्थान सिर्फ दाखिले के वक़्त पर ही रोजगार की बात करते हैं।

    उच्च शिक्षा

    सरकार कर रही बजट में उपेक्षा

    सरकार बात तो महाशक्ति बनने की करती है पर जब युवाओं को शिक्षित और दक्ष बनाने की बात सामने आती है तो आंकड़ें सारी कहानी बयान कर देते है। वर्ष 1999 में सरकार देश की जीडीपी का 4.4 फीसदी हिस्सा शिक्षा के मद पर खर्च करती थी जो आज घटकर 3.71 फीसदी हो चुका है। कोठारी शिक्षा समिति ने अपने सुझावों में देश की जीडीपी का 6 फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करने की बात कही थी और हम अभी उसके आस-पास भी नहीं पहुँचे है। शायद सरकार किसी तरह के टकराव से बचने के लिए “कृपया उचित दूरी बनाये रखे” के निर्देशों पर अमल कर रही हो।

    विश्वपटल को छोड़कर अगर ब्रिक्स देशों की भी बात करें तो भारत शिक्षा सुधार को लेकर उनमें सबसे पीछे नजर आता है। पेश है आंकड़ों पर एक नजर :

    ब्रिक्स देशों के आंकड़ों की तुलना

    इन बिंदुओं पर हो अमल

    देश को आजाद हुए 70 साल होने को है और हमारी शिक्षा प्रणाली अभी भी यथार्थता के परिदृश्य से दूर है। हम जनसंख्या के आधार पर विश्व में दूसरे स्थान पर है और क्षेत्रफल के आधार पर सातवें स्थान पर। पर अगर बात दक्ष तकनीकी की करें तो हमें इस सूची में खुद को तलाशना पड़ता है। हमसे बाद आजाद हुए कई मुल्क आज तरक्की और दक्षता की नई परिभाषा लिख रहे है और हम आज भी अपनी पुरानी समस्याओं को ढ़ोते फिर रहे हैं। सरकार को देश की अर्थव्यवस्था को स्थिरता देने के लिए शिक्षा प्रणाली में बदलाव करने की आवश्यकता है क्यूँकि शिक्षा ही वो आधार है जिसपर किसी भी देश के तकनीकी विकास की ईमारत खड़ी कि जा सकती है।

    पेश है इस व्यवस्था में सुधार लाने के लिए कुछ सुझाव :

    – पुरे देश की स्कूली शिक्षा एक ही पाठ्यक्रम पर आधारित होनी चाहिए।
    – सरकारी स्कूली शिक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिए और सभी सरकारी कर्मचारियों और राजनेताओं के बच्चों के लिए सरकारी शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिए।
    – सरकार को शिक्षा के क्षेत्र में खर्च होने वाले मद में बढ़ोत्तरी करनी होगी। इसके लिए कोठारी समिति की सिफारिशों पर अमल करना चाहिए।
    – देश को आजाद हुए 70 साल हो चुके है और आज भी हम आरक्षण का बोझ ढ़ो रहे हैं। सरकार को आरक्षण के भविष्य निर्धारण के लिए देशभर में युवाओं से खुली बहस करनी चाहिए क्यूँकि आरक्षण का सबसे बड़ा प्रभाव युवा वर्ग पर ही पड़ता है।
    – देश में तकनीकी गुणवत्ता सुधारने के लिए एक आयोग गठित होना चाहिए जो केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों पर नजर रखे और उनका दिशा-निर्देशन करे।
    – सभी उच्च शिक्षा संस्थानों में स्थापित मानकों का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए और मानकों की अनदेखी करने वाले संस्थानों को बंद कर देना चाहिए।
    – देश में अनुसन्धान और विकास के क्षेत्र में नए संस्थान खोलने चाहिए और पुराने संस्थानों की दशा सुधारनी चाहिए।
    – दुनिया के प्रतिष्ठित संस्थानों को देश में दूरस्थ शिक्षा केंद्र शुरू करने के लिए राजी करना चाहिए। यह उच्च शिक्षा के विकास के में अग्रणी कदम होगा।

    By पंकज सिंह चौहान

    पंकज दा इंडियन वायर के मुख्य संपादक हैं। वे राजनीति, व्यापार समेत कई क्षेत्रों के बारे में लिखते हैं।