राजस्थान में तीन सीटों पर हुए उपचुनावों में कांग्रेस की जीत से बीजेपी पार्टी को कड़ा झटका लगा है। अजमेर व अलवर लोकसभा क्षेत्रों व मांडलगढ़ विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस ने भारी मतों से जीत हासिल की है। बीजेपी की हार को मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की हार माना जा रहा है।
राजे ने उपचुनावों मे जीत के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन जनता ने बीजेपी को चार साल के कामकाज का ब्यौरा इन चुनावों से बता दिया है। तीनो क्षेत्रों में विधानसभा क्षेत्रों की कुल संख्या 17 है। 17 जगहों से कांग्रेस ने बढ़त बनाते हुए जीत हासिल की है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भाजपा ने 17 प्रतिशत वोट खो दिए है।
उपचुनाव के फैसले से स्पष्ट रूप से राजस्थान के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव का संकेत दिख रहा है। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की लोकप्रियता में आई भारी गिरावट के कई कारण है। भाजपा ने साल 2013 में राजे के नेतृत्व में चुनाव लडा और शानदार जीत हासिल की थी। लेकिन ये तो सभी जानते है कि उस समय देश में मोदी लहर थी।
मोदी लहर की वजह से राज्य में जीती थी बीजेपी
राजस्थान में बीजेपी का सत्ता में आना मोदी लहर की बदौलत ही मानी जाती है। जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब भी राजस्थान में उनकी बहुत लोकप्रियता थी।
वसुंधरा राजे जब से सत्ता पर काबिज हुई है तब से व्यापक रूप से अभिमानी हो गई है। राजे ने मोदी लहर को नकारते हुए खुद को जीत के लिए उत्तरदायी माना था। वर्तमान में राजे के कठोर निर्णयों व कामकाज की शैली से खुध बीजेपी के कुछ नेता व आरएसएस नाराज नजर आ रहे है। आरएसएस व राजे के बीच में असहज समीकरण रहा है। वसुंधरा राजे का कथित अहंकार उनके विरोधियों की संख्या लगातार बढा रहा है।
राजे के खिलाफ शिकायतों की लंबी सूची में निम्न तथ्य शामिल किए जा सकते हैः
- वसुंधरा राजे के पास अपने मंत्रियों व विधायकों से भी मिलने का समय नहीं रहता है।
- जनता को महसूस होता है कि पीएम मोदी व राजे के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। जिसका नुकसान जनता को भुगतना पड़ रहा है।
- राज्य के सभी अहम फैसले खास नौकरशाहों के हवाले है क्योंकि शायद राजे जयपुर में बमुश्किल से रहती है।
- केन्द्र व राज्य के बीच समन्वय की कमी से योजनाओं का कार्यान्वयन कागजों पर ही है।
- मेट्रो के दौरान प्रमुख हिंदु मंदिरों को हटाने पर हिंदू समूह राजे के खिलाफ हो गए। हिंदू की जगह राजे मुसलमानों के प्रति दयालु नजर आई। राजे के सबसे करीबी मंत्री भी युनूस खान माने जाते है। जबकि जाट, ब्राह्मण, राजपूतों और गुर्जर जैसे उनके प्रभावशाली जाति के समूहों को राजे ने खुद से अलग ही कर रखा है।
- राज्य में प्रशासन की पूरी बागडोर मुख्यमंत्री आवास में ही केन्द्रीकृत है। लगभग 50 भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के पास कोई काम नहीं है। इसके विपरीत एक दर्जन से अधिक सीएम ऑफिस के अधिकारियों पर इतना अधिक बोझ है कि वे शायद ही अपने कार्य को बखूबी से कर सकते है।
- शीर्ष नौकरशाही की बार-बार फेरबदल भी राजे के हाथों में ही रहती है।
- जो नेता राजे को भगवान समझ कर उनकी चापलूसी करते हुए नजर आते है, उनकी बात राजे जरूर सुनती है। बाकि विधायकों की समस्याओं पर चर्चा करना उन्हें असंभव लगता है।
2013 के चुनावों से पहले किरीट सोमैया के नेतृत्व में बीजेपी उच्चायुक्त ने एक टास्क फोर्स का गठन किया था। उन्होंने अशोक गहलोत सरकार के कामकाज व भ्रष्ट सौदों पर प्रकाश डाला। सिंधिया के तहत, पिछले शासन के विभिन्न सौदों में कथित अनियमितताओं की जांच का प्रयास बीजेपी ने अभी तक नहीं किया है।
ऐसा लगता है कि राजनीतिक प्रचार अभियान मीडिया के लिए तैयार किए गए हैं, न कि जनता के लिए। राजे प्रदेश के उन्हीं जिलों की यात्रा पर निकलती है जहां शाही महल हो।
बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व को लेना होगा राजे पर अहम फैसला
राजस्थान की जनता भले ही राजे से खुश न हो लेकिन मोदी सरकार की नीतियों से बेहद संतुष्ट है। राजस्थान में अगर बीजेपी को सत्ता में दोबारा आना है तो केन्द्रीय नेतृत्व को अहम फैसले लेने पडेंगे। वसुंधरा राजे को राज्य की जनता अब सीएम पद पर नहीं देखना चाहती है।
ऐसे में मोदी व अमित शाह को सबसे पहले सिंधिया को हटाने का फैसला करना चाहिए। लेकिन डर ये भी है कि सिंधिया को हटाने पर कई क्षेत्रीय नेता अलग हो सकते है। ऐसे में वसुंधरा राजे के लिए मोदी नेतृत्व को गंभीर चिंतन के बाद ही फैसला लेना चाहिए।
इस लेख को स्वराज नामक वेबसाइट से अनुवादन किया गया है। सभी विचार और तर्क सम्बंधित वेबसाइट के हैं।