राजस्थान में बिछी चुनावी बिसात में जातीय समीकरणों में जो परिवर्तन के संकेत दिख रहे हैं वो स्वतंत्रता के बाद से चुनावी परिणामों को प्रभावित करने वाले सामाजिक गठजोड़ को तोड़ सकते हैं।
विकल्प की राजनीति के केंद्र में राजपूत वोटरों के मन में बैठा असंतोष भाजपा को स्पष्ट हार की ओर धकेलता दिखाई दे रहा है। प्रदेश का राजपूत समुदाय जनसंघ के दिनों से ही भाजपा का कोर वोटर रहा है।
1952 के पहले विधानसभा चुनाव में जब जनसंघ कोई ताकत नहीं थी तब राजपूत समुदाय और उनके नेता ‘अखिल भारतीय राम राज्य परिषद्’ के साथ चले गये थे और तब इस पार्टी ने लोकसभा में 3 और विधानसभा में 24 सीटें हासिल की थी।
पहले विधानसभा चुनाव में विभिन्न पार्टियों से 50 राजपूत नेता जीत कर आये थे जो राज्य की राजनीति पर राजपूतों की पकड़ को साबित करता है।
राम राज्य पार्टी का बाद में भारतीय जनसंघ के साथ विलय हो गया और आने वाले चुनावों में राजपूतों ने जनसंघ, हिन्दू महासभा और स्वतंत्र पार्टी को समर्थन देना शुरू कर दिया।
जब जनता दल की गठबंधन सरकार का अप्रयोग विफल हुआ तो राजपूत वोट भाजपा की ओर शिफ्ट हो गया और राजपूतों के नए नेता भैरो सिंह शेखावत का उदय हुआ जो तीन बार राजस्थान की गद्दी पर बैठे। वर्तमान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया भी इसी सामाजिक समीकरण के दम पर दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री बनी।
इस बार के हालात ने कांग्रेस को प्रोत्साहित किया है कि वो भाजपा के परंपरागत राजपूत वोटबैंक में सेंध लगा सके।
एक वरिष्ठ भाजपा नेता के अनुसार इस बार जमीनी हालत बहुत खराब है। वोटर से लेकर पार्टी कार्यकर्ता तक में निराशा है।
राजपूतों और भाजपा के रिश्ते खराब होने के कई कारण है। लम्बे समय से दबा हुआ गुस्सा अब उभर सामने आया है और राजपूत इस बार खुलकर भाजपा की मुखालफत कर रह हैं।
भाजपा ने 2014 में बारमेर से वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह को टिकट देने के बजाये कांग्रेस से भाजपा में आये कर्नल सोनाराम को टिकट दिया जो चुनाव के वक़्त ही कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आये थे।
जसवंत सिंह एक राष्ट्रीय नेता थे जो बाद में किनारे लगा दिए गए। मारवाड़ राजपूत सभा के मेंबर विक्रम सिंह टपरवाड़ा कहते हैं कि जसवंत भले ही बहुत बड़े जनप्रतिनिधि नहीं थे लेकिन उनके अपमान ने राजपूतों का दिल दुखाया।
जसवंत के पुत्र मानवेन्द्र सिंह ने पिछले महीने भाजपा छोड़ कर कांग्रेस ज्वाइन कर लिया। मानवेन्द्र सीओ से भाजपा के टिकट पर विधायक बने थे।
वर्तमान विधानसभा में भाजपा के पास 27 राजपूत विधायक हैं। कांग्रेस के पास 2 और बसपा के पास 1 राजपूत विधायक हैं। राजपूत मतदाता भले ही बहुत ज्यादा न हो लेकिन इतने हैं कि चुनाव को प्रभावित कर सकें।
राजपूत वोटर करीब 7 से 8 प्रतिशत हैं। लेकिन उन्हें वोट बैंक के रूप में नहीं मापा जा सकता है। उनके प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिए। यदि गांव में एक राजपूत घर है, तो वे पूरे गांव के वोटों को प्रभावित कर सकते हैं।
राजपूत लगातार भाजपा पर अपनी अनदेखी का आरोप लगते रहे हैं। अभी हाल ही में राज्य भाजपा अध्यक्ष पद पर मदन लाल सैनी को नियुक्त किया गया। अपने बिरादरी के नेता गजेंद्र सिंह शेखावत की अनदेखी ने राजपूतों का गुस्सा और बढ़ा दिया। शेखावत को अध्यक्ष बनाने की बात थी लेकिन सैनी को वसुंधरा के करीबी होने का फायदा मिला।
गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के एन्काउंटर ने आग में घी डालने का काम किया। अपने समुदाय में आनंदपाल की इमेज रॉबिनहुड की थी। इसके अलावा जिस प्रकार वसुंधरा सरकार ने पद्मावती विवाद को संभाला वो राजपूतों को रास नहीं आया।
राजपूतों की भाजपा से नाराजगी तब देखने को मिली जब फ़रवरी में अजमेर और अलवर लोकसभा के उपचुनाव कांग्रेस जीत गई। दोनों सीट भाजपा के पास थी। अलवर में तो कांग्रेस के जीत का अंतर करीब 2 लाख वोटों का रहा।
मांडलगढ़ विधानसभा उपचुनाव में भाजपा ने राजपूत उम्मीदवार को मैदान में उतारा लेकिन नाराज राजपूतों ने या तो वोट ही नहीं दिया या फिर कांग्रेस के गैर राजपूत उम्मीदवार को वोट दिए। नतीजा कांग्रेस वहां भी जीत गई।
सुमेरपुर से भाजपा विधायक मदन राठौर कहते हैं कि राजपूतों के मन में भाजपा के लिए ग़लतफ़हमी बैठ गई है। लेकिन मदन इस बात का अभी दावा करते हैं कि ‘राजपूत वोट भाजपा को ही मिलेगा क्योंकि हम आपस में परिवार हैं। हर परिवार में मनमुटाव होते हैं। परिवार के सदस्यों को परिवार के मुखिया के सामने अपनी बात रखनी चाहिए लेकिन उन्हें परिवार में ही रहना चाहिए।’