पिछले दिनों पाँच राज्यों यूपी, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनावों के तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग द्वारा कर दिया गया है। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे लोकतंत्र का यह उत्सव अपने चरम की ओर बढ़ रहा है, दिन व दिन देश मे कोरोना के नए मामले भी रोजाना बढ़ते जा रहे है। इधर चुनाव आयोग द्वारा तारीखों की घोषणा जिस दिन की गई, इन घोषणाओं के अगले दिन ही देश मे कोविड-19 (Covid-19) संक्रमण के 1.5 लाख से ज्यादा नए मामले एक दिन में दर्ज किए गए और उसके बाद से यह संख्या अमूमन बढ़ती ही जा रही है। हालांकि ये दोनों अलहदा बातें हैं पर क्या यह एक महज संयोग है या नियति का कुछ इशारा; इसका जवाब वक़्त के गर्भ में है।
कोरोना के लगातार बढ़ते मामले के संदर्भ में भारत के प्रमुख समाचार एजेंसी ANI से बात करते हुए स्वास्थ विशेषज्ञ डॉक्टर एससीएल गुप्ता (मेडिकल डायरेक्टर, बत्रा अस्पताल) ने कोरोना के तीसरे लहर की आशंका जताते हुए लोगों से सावधान रहने की अपील की है। साथ ही कई जानकारों जैसे IIT कानपुर के प्रोफेसर मनिंदर अग्रवाल ने भी ANI से कोविड 19 संक्रमण से जुड़े आंकड़ो के विश्लेषण के आधार पर बताया कि तीसरी लहर जनवरी महीने के अंत से अपने चरम की तरफ़ अग्रसर होगी। बता दें कि इन राज्यों में उसी दौरान चुनाव प्रचार भी अपने चरम पर चल रहा होगा। ज़ाहिर है कि यह पूरा चुनावी उत्सव कोरोना के इस तीसरे लहर के साये में होने वाला है। हालांकि इसको देखते हुए चुनाव आयोग ने आधिकारिक गाइड लाइन्स भी जारी किए हैं। मसलन रोड शो, पदयात्रा, साईकल-यात्रा आदि पर प्रतिबंध लगाने के साथ साथ सभी राजनीतिक दलों से अपील की गई है चुनाव प्रचार के लिए डिजिटल माध्यमों का प्रयोग अधिक से अधिक किया जाए। साथ ही साथ Door to Door कार्यक्रम में भी अधिकतम 5 लोगों की ही अनुमति दी गयी है। पर इन कागजी बातों को जमीन पर उतारना कितना मुश्किल काम है, यह सर्व-विदित है।
बीते साल कोरोना के दूसरे लहर के दौरान भी पश्चिम-बंगाल सहित 4 राज्यों में चुनाव करवाया गया था और उसके बाद संक्रमण की दर में ऐसी वृद्धि हुई कि हिंदुस्तान ने सदी की सबसे बड़ी त्रासदी का सामना किया। इसके बाद मद्रास हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने चुनाव आयोग पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा था- “चुनाव आयोग के अधिकारियों पर मर्डर केस का भी चार्ज लगे तो भी गलत नहीं होगा। ”
बहरहाल, कोरोना के तीसरे लहर की आशंका के बीच चुनाव में जाने का फैसला अपने साथ कई सवाल लेकर सामने आया है जिनके उत्तर आगामी कुछ हफ़्तों में ही सामने आएंगे। सबसे अव्वल तो यह कि क्या हम अपनी पुरानी गलती से इस बार कोई सीख सके हैं या पूरे लाव-लश्कर के साथ वही पुरानी गलती दुहराए जाने की तैयारी है।
एक सवाल यह भी है कि ऐसे में आख़िर समाधान क्या है? स्वस्थ लोकतंत्र के लिए चुनाव का करवाया जाना निःसंदेह निहायती तौर पर जरूरी है। पर क्या यह इतना जरूरी है कि जनता के स्वास्थ और जान को जोखिम में डालकर चुनाव करवाया जाए? इस संदर्भ में एक तो साधारण सोच ये हो सकती है कि स्वास्थ विशेषज्ञों के लगातार चेताये जाने के बाद तथा दूसरे लहर में कराये गए चुनावों के बाद मचे हाहाकार को ध्यान में रखते हुए इन चुनावों को अभी टाला जा सकता था। विदित हो कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकार को इस सुझाव पर विचार करने को भी कहा था।दूसरी सोच ये है कि लोकतंत्र में नियत समय पर चुनाव करवाना जरूरी है। कहीं ना कहीं इसी विचारधारा के समर्थन में चुनाव-आयोग ने तमाम वाद-प्रतिवाद के बीच चुनाव की तारीखों का एलान किया है। अब ऐसे में आयोग की ही जिम्मेदारी बनती है कि यह सुनिश्चित करे कि जो भी गाइडलाइंस जारी किए हैं, उसे कागजों और फ़ाइलों से इतर जमीन पर भी दिखना चाहिए।
चुनाव जिसे लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्योहार कहते हैं, उसे जनता के जान की कीमत पर नहीं मनाना चाहिए और निःसंदेह, इस संदर्भ में आयोग की भूमिका अतिमहत्वपूर्ण है। परंतु राजनीतिक पार्टियों और सरकारों की भी जिम्मेदारी उतनी ही महत्वपूर्ण है। अभी विगत कुछ दिन पहले तक, जहाँ एक तरफ़ देश में दिन-प्रतिदिन कोविड19 अपना सिर तेजी से उभार रहा था, उसी दौरान इन राज्यों में बड़ी-बड़ी राजनीतिक जन-सभाएं आयोजित की जा रही थीं। नैतिक तौर पर तो खुद को हर मंच से बढ़ चढ़कर जनता का सेवक साबित करने वाले इन राजनीतिक पार्टियों को उसी जनता-जनार्दन के बीच तेजी से फैलते संक्रमण को देखते हुए इन जनसभाओं को बहुत पहले ही निरस्त कर देना चाहिए था। जो बाद में कई पार्टियों ने किया भी परंतु यह फैसला लेने में सभी पार्टियों से कहीं देर तो नहीं हुई है, इसे लेकर तमाम तर्क वितर्क हो सकते हैं।
यह सच है कि राजनीतिक दलों और नेताओं की भी अपनी मज़बूरियां हैं। उन्हें अगर चुनाव में जाना है तो चुनाव प्रचार तो करना ही होगा, जो कि वाज़िब तर्क है। परंतु क्या ये राजनीतिक दल बॉलीवुड से कुछ सीख सकते हैं?? याद करिये जब सभी थिएटर और सिनेमाघरों पर अभी लॉकडाउन के दौरान ताला लगा दिया गया तो बडे से बड़े सुपरस्टार भी OTT पर फिल्में रिलीज़ कर के अपने प्रशंसकों से जुड़े रहे। पिछले साल OTT प्लेटफॉर्म के लिए नए गाइडलाइंस की घोषणा करते हुए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक बेहद महत्वपूर्ण आंकड़ा दिया था। प्रसाद के अनुसार उस वक़्त भारत मे व्हाट्सएप पर 53 करोड़ , यूट्यूब पर लगभग 45 करोड, फेसबुक पर 41 करोड़, इंस्टाग्राम पर 21 करोड जबकि ट्विटर पर 1.5 करोड अकाउंट सक्रिय थे। ऐसे में सूचना क्रांति के इस दौर में “ई-रैली” या डिजिटल प्लेटफॉर्म चुनाव प्रचार के लिए एक उचित वैकल्पिक माध्यम साबित हो सकते हैं।
इस विचार के भी पक्ष और विपक्ष में कई मत हो सकते हैं। मसलन, डिजिटल चुनाव प्रचार बीजेपी जैसी बड़ी पार्टियां जिनके पास भरपूर संसाधन और जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की एक विशाल फौज मौजूद है, उनके लिए साफ तौर पर फायदेमंद है। जबकि राज्यों के चुनाव में कई छोटे-छोटे राजनीतिक दल भी शामिल होते हैं और उनके लिए बीजेपी जैसी हर संसाधनों से सक्षम पार्टी के आगे डिजिटल प्रचार का मुकाबला करना मुश्किल होगा। परंतु ऐसे में जब पूरी दुनिया एक असाधारण दौर से गुज़र रही है और एक वैश्विक संक्रमण का सामना कर रही है, हमें अपने हर तरह के विकल्प तलाशने और तराशने होंगे।
बहरहाल, चुनाव का बिगुल फूंका जा चुका है। तारीखों की घोषणा के साथ ही इन राज्यों में आचार संहिता लागू हो चुकी है। अब जो भी हो, एक बात तो तय है कि इस वक़्त चुनाव करवाना एक जोख़िम से भरा फैसला है और यह फैसला चुनाव-आयोग और सरकारों की एक अग्निपरीक्षा साबित होने जा रहा है।ख़ैर, इन तमाम बातों के बीच मशहूर लेखक और व्यंग्यकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की पंक्तियां बड़ी जानदार मालूम पड़ती है:-
“लोकतंत्र को जूते की तरह
लाठी में लटकाए
भागे जा रहे हैं,
सभी सीना फुलाये….”
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