हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने वर्ष 2020 के दिल्ली दंगों में कथित भूमिका के लिये तीन कार्यकर्त्ताओं को जमानत दी। ज्ञातव्य है कि ये आरोपी बिना किसी मुकदमे के एक वर्ष से अधिक समय से जेल में थे।
यह निर्णय इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उपर्युक्त आरोप गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम, 1967 के तहत लगाए गए थे। नागरिक समाज द्वारा यूएपीए की आलोचना की जाती है। उनका तर्क है कि यह संविधान द्वारा प्राप्त असहमति की स्वतंत्रता, विधि के शासन और निष्पक्ष परीक्षण के विरुद्ध है।
यूएपीए कानून
मूल रूप से यूएपीए को वर्ष 1967 में लागू किया गया था। इसे वर्ष 2004 और वर्ष 2008 में आतंकवाद विरोधी कानून के रूप में संशोधित किया गया था। अगस्त 2019 में संसद ने कुछ आधारों पर व्यक्तियों को आतंकवादी के रूप में नामित करने के लिये यूएपीए (संशोधन) बिल, 2019 को मंजूरी दी। आतंकवाद से संबंधित अपराधों से निपटने के लिये यह सामान्य कानूनी प्रक्रियाओं से अलग होता है और इसके नियम सामान्य अपराधों के नियमों से अलग हैं। जहाँ अभियुक्तों के संवैधानिक सुरक्षा उपायों को कम कर दिया जाता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा प्रकाशित एक आँकड़े के अनुसार, वर्ष 2016 एवं वर्ष 2019 के मध्य (जिस अवधि के लिये यूएपीए के आँकड़े प्रकाशित किये गए हैं। ) यूएपीए की विभिन्न धाराओं के तहत कुल 4,231 प्राथमिकी दर्ज की गईं, जिनमें से 112 मामलों में अपराध सिद्ध हुआ है।
यूएपीए के तहत लगातार आवेदन इंगित करता है कि भारत में अतीत में अन्य आतंकवाद विरोधी कानूनों जैसे पोटा (आतंकवाद रोकथाम अधिनियम) और टाडा (आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम) की तरह इसका अक्सर दुरुपयोग किया जाता है।
यूएपीए से संबंधित मुद्दे
यूएपीए के तहत “आतंकवादी गतिविधि” की परिभाषा आतंकवाद का मुकाबला करते हुए मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता के संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के विशेष प्रतिवेदक द्वारा प्रचारित परिभाषा से काफी भिन्न है। किसी अपराध को “आतंकवादी कृत्य” कहने के लिये विशेष प्रतिवेदक के अनुसार, तीन तत्वों का एक साथ होना आवश्यक है: आपराधिक कृत्य में उपयोग किये गए साधन घातक होने चाहिये; कृत्य के पीछे की मंशा समाज के लोगों में भय पैदा करना या किसी सरकार या अंतर्राष्ट्रीय संगठन को कुछ करने या कुछ करने से परहेज करने के लिये मजबूर करना होना चाहिये; तथा उद्देश्य एक वैचारिक लक्ष्य को आगे बढ़ाना होना चाहिये।
दूसरी ओर, यूएपीए “आतंकवादी गतिविधियों” की व्यापक और अस्पष्ट परिभाषा प्रदान करता है जिसमें किसी व्यक्ति की मृत्यु या चोट लगना, किसी भी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना आदि भी शामिल है।
यूएपीए के साथ बड़ी समस्या इसकी धारा 43 (डी) (5) में निहित है। यदि पुलिस किसी व्यक्ति के लिये यूएपीए के अंतर्गत आरोप पत्र दायर करती है एवं यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि प्रथम दृष्टया आरोप सत्य है तो व्यक्ति को जमानत मिलना मुश्किल होता है जबकि, जमानत स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार की सुरक्षा और गारंटी है।
भारत में न्याय वितरण प्रणाली की स्थिति को देखते हुए, लंबित मुकदमे की दर औसतन 95.5 प्रतिशत है। इसका मतलब यह है कि हर साल 5 प्रतिशत से कम मामलों में मुकदमा पूरा चलाया जाता है, जिस कारण आरोपियों को लंबे समय तक कारावास में रहना पड़ता है।
इसमें “धमकी देने की भावना” या “लोगों में आतंक का डर पैदा करने” जैसा कोई भी कार्य शामिल है, जो सरकार को इन कृत्यों के आधार पर किसी भी सामान्य नागरिक या कार्यकर्त्ता को आतंकवादी साबित करने के लिये असीमित शक्ति प्रदान करता है। यह राज्य प्राधिकरण को अप्रत्यक्ष रूप से उन व्यक्तियों को हिरासत में लेने और गिरफ्तार करने की शक्ति देता है, जिनके बारे में यह मानता है कि वे आतंकवादी गतिविधियों में शामिल थे। इस प्रकार राज्य खुद को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत व्यक्तिगत स्वतंत्रता की तुलना में अधिक अधिकार देता है।
यह देखते हुए कि ‘पुलिस’ भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत राज्य का विषय है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह संघीय ढाँचे के खिलाफ है क्योंकि यह आतंकवाद के मामलों में राज्य पुलिस के अधिकार की उपेक्षा करता है।
फैसले का महत्त्व
अदालत के फैसले में कहा गया है कि चूकि यूएपीए आतंकवादी अपराधों से निपटने के लिये है, इसलिये इसके अंतर्गत आरोप पत्र उन कृत्यों तक ही सीमित होना चाहिये जो “आतंकवाद” की व्यावहारिक समझ के भीतर उचित रूप से शामिल होते हैं।
इस वर्ष की शुरुआत में, भारत संघ बनाम के. ए. नजीब (2021) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यूएपीए के तहत जमानत पर प्रतिबंध के बावजूद, संवैधानिक अदालतें अभी भी इस आधार पर जमानत दे सकती हैं कि अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया है। न्यायालय ने कहा कि यूएपीए जमानत पर प्रतिबंधों के प्रावधान की कठोरता “जहाँ उचित समय के भीतर सुनवाई पूरी होने की कोई संभावना नहीं है” वहाँ कम हो जाएगी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस तर्क को एक कदम आगे बढ़ाते हुए कहा कि अदालतों के लिये यह वांछनीय नहीं होगा कि वे तब तक प्रतीक्षा करें जब तक कि अभियुक्तों के शीघ्र मुकदमे के अधिकार पूरी तरह से समाप्त न हो जाएं, इससे पहले उन्हें स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।
निष्कर्ष
‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ और राज्य द्वारा ‘सुरक्षा प्रदान करने’ के दायित्व के मध्य रेखा खींचना दुष्कर कार्य है। संवैधानिक स्वतंत्रता एवं आतंकवाद विरोधी गतिविधियों के विरुद्ध कार्रवाई संतुलन बनाना राज्य, न्यायपालिका एवं नागरिक समाज पर निर्भर है।