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    महामृत्युञ्जय मन्त्र या महामृत्युंजय मंत्र (“मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र”) जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है, यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गयी एक वन्दना है। इस मन्त्र में शिव को ‘मृत्यु को जीतने वाला’ बताया गया है। यह गायत्री मन्त्र के समकक्ष हिंदू धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है।

    इस मंत्र के कई नाम और रूप हैं। इसे शिव के उग्र पहलू की ओर संकेत करते हुए रुद्र मंत्र कहा जाता है; शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मंत्र और इसे कभी कभी मृत-संजीवनी मंत्र के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह कठोर तपस्या पूरी करने के बाद पुरातन ऋषि शुक्र को प्रदान की गई “जीवन बहाल” करने वाली विद्या का एक घटक है।

    ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का ह्रदय कहा है। चिंतन और ध्यान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है।

    महामृत्युञ्जय मन्त्र

    मंत्र इस प्रकार है –

    ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।
    यह त्रयम्बक “त्रिनेत्रों वाला”, रुद्र का विशेषण जिसे बाद में शिव के साथ जोड़ा गया, को संबोधित है।

    महामृत्युञ्जय मंत्र का अर्थ

    • त्र्यंबकम् = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक), तीनों कालों में हमारी रक्षा करने वाले भगवान को
    • यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय
    • सुगंधिम = मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)
    • पुष्टिः = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्* पुष्टिः = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
    • वर्धनम् = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली
      उर्वारुकम् = ककड़ी (कर्मका* उर्वारुकम् = ककड़ी (कर्मकारक)
    • इव = जैसे, इस तरह
    • बन्धनात् = तना (लौकी का); (“तने से” पंचम विभक्ति – वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित होती है)
    • मृत्योः = * मृत्योः = मृत्यु से
    • मुक्षीय = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
    • मा = नहीं वंचित होएं
    • अमृतात् = अमरता, मोक्ष के आनन्द से

    ~ इस महामत्रँ से लाभ निम्न है –

    • धन प्राप्त होता
    • जो आप सोच के जाप करते वह कार्य सफल होता
    • परिवार मे सुख सम्रद्बि रहती है
    • जीवन मे आगे बढते जाते है आप

    ~ जप करने कि विधि –

    सुबह और सायं काल में प्रायः अपेक्षित एकांत स्थान में बैठकर आंखों को बंद करके इस मंत्र का जाप (अपेक्षित दस-ग्यारह बार) करने से मन को शांति मिलती है और मृत्यु का भय दूर हो जाता है। आयु भी बढ़ती है।

    निम्नलिखित स्थितियों में इस मंत्र का जाप कराया जाता है:

    (1) ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने का योग है।

    (2) किसी महारोग से कोई पीड़ित होने पर।

    (3) जमीन-जायदाद के बंटवारे की संभावना हो।

    (4) हैजा-प्लेग आदि महामारी से लोग मर रहे हों।

    (5) राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा हो।

    (6) धन-हानि हो रही हो।

    (7) मेलापक में नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि आता हो।

    (8) राजभय हो।

    (9) मन धार्मिक कार्यों से विमुख हो गया हो।

    (10) राष्ट्र का विभाजन हो गया हो।

    (11) मनुष्यों में परस्पर घोर क्लेश हो रहा हो।

    (12) त्रिदोषवश रोग हो रहे हों।

    निम्न सावधानियां रखें:

    1. जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।

    2. एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।

    3. मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।

    4. जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।

    5. रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।

    6. माला को गौमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गौमुखी से बाहर न निकालें।

    7. जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।

    8. महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।

    9. जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।

    10. महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।

    11. जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।

    12. जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधर न भटकाएं।

    13. जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।

    14. मिथ्या बातें न करें।

    15. जपकाल में स्त्री सेवन न करें।

    16. जपकाल में मांसाहार त्याग दें।

    महामृत्युञ्जय मन्त्र का अर्थ

    हम त्रि-नेत्रीय वास्तविकता का चिंतन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है। ककड़ी की तरह हम इसके तने से अलग (“मुक्त”) हों, अमरत्व से नहीं बल्कि मृत्यु से हों।

    बड़ी तपस्या से ऋषि मृकण्ड के पुत्र हुआ। कितु ज्योतिर्विदों ने उस शिशु के लक्षण देखकर ऋषि के हर्ष को चिंता में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने कहा यह बालक अल्पायु है। इसकी आयु केवल बारह वर्ष है।

    मृकण्ड ऋषि ने अपनी पत्नी को आश्वत किया-देवी, चिंता मत करो। विधाता जीव के कर्मानुसार ही आयु दे सकते हैं, कितु मेरे स्वामी समर्थ हैं। भाग्यलिपि को स्वेच्छानुसार परिवर्तित कर देना भगवान शिव के लिए विनोद मात्र है।

    ऋषि मृकण्ड के पुत्र मार्कण्डेय बढऩे लगे। शैशव बीता और कुमारावस्था के प्रारंभ में ही पिता ने उन्हें शिव मंत्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी। पुत्र को उसका भविष्य बता•र समझा दिया कि त्रिपुरारी ही उसे मृत्यु से बचा सकते हैं। माता-पिता तो दिन गिन रहे थे। बारह वर्ष आज पूरे होंगे। मार्कण्डेय महादेव मंदिर (वाराणसी जिला में गंगा गोमती संगम पर स्थित ग्राम कैथी में यह मंदिर मार्कण्डेय महादेव के नाम से स्थापित है।) में बैठे थे। रात्रि से ही और उन्होंने मृत्युंजय मंत्र की शरण ले रखी है-

    त्र्यम्बक यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म।
    उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात्॥

    सप्रणव बीजत्रय-सम्पुटित महामृत्युंजय मंत्र चल रहा था। काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। यमराज के दूत समय पर आए और संयमनी लौट गए। उन्होंने अपने स्वामी यमराज से जाकर निवेदन किया- हम मार्•ण्डेय तक पहुंचने का साहस नहीं पाए। इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड को पुत्र को मैं स्वयं लाऊंगा। दण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हुए और क्षण भर में मार्कण्डेय के पास पहुंच गए। बालक मार्कण्डेय ने उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र पाशधारी को देखा तो सम्मुख की लिंगमूर्ति से लिपट गया।

    हुम्, एक अद्भुत अपूर्व हुंकार और मंदिर, दिशाएं जैसे प्रचण्ड प्रकाश से चकाचौंथ हो गईं। शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र गंगाधर चन्द्रशेखर प्रकट हो गए और उन्होंने त्रिशूल उठाकर यमराज से बोले,हे यमराज तुमने मेरे आश्रित पर पाश उठाने का साहस कैसे किया?। यमराज ने डांट पडऩे से पूर्व ही हाथ जोडक़र मस्तक झुका लिया था और कहा कि हे!त्रिनेत्र मैं आपका सेवक हूं। कर्मानुसार जीव को इस लोक से ले जाने का निष्ठुर कार्य प्रभु ने इस सेवक को दिया है।

    भगवान चंद्रशेखर ने कहा कि यह संयमनी नहीं जाएगा। इसे मैंने अमरत्व दिया है। मृत्युंजय प्रभु की आज्ञा को यमराज अस्वीकार कैसे कर सकते थे? यमराज खाली हाथ लौट गए। मार्कण्डेय ने यह देख कर भोलेनाथ को सिर झुकाए और उनकी स्तुति करने लगे।

    उर्वारुमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।

    वृन्तच्युत खरबूजे के समान मृत्यु के बन्धन से छुड़ाकर मुझे अमृतत्व प्रदान करें। मंत्र के द्वारा चाहा गया वरदान उस का सम्पूर्ण रूप से उसी समय मार्कण्डेय को प्राप्त हो गया।

    मन्त्र की उत्पत्ति

    एक किंवदंती के अनुसार, मार्कंडेय पृथ्वी पर एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जो इस मंत्र को जानता था। राजा दक्ष द्वारा शाप दिए जाने पर चंद्रमा एक बार संकट में था। मार्कण्डेय ने चंद्रमा के लिए दक्ष की बेटी सती को महामृत्युंजय मंत्र दिया। एक अन्य संस्करण के अनुसार यह ऋषि कहोला को बताया गया बीज मंत्र है जो भगवान शिव द्वारा ऋषि सुकराचार्य को दिया गया था, जिन्होंने इसे ऋषि दधीचि को सिखाया था, जिन्होंने इसे राजा क्षुव को दिया था, जिसके माध्यम से यह शिव पुराण में पहुंचा। [६]

    शिव के उग्र पहलू का जिक्र करते हुए इस मंत्र को रुद्र मंत्र भी कहा जाता है; शिव के तीन नेत्रों को देखते हुए, त्र्यंबकम मंत्र; और इसे कभी-कभी मृता-संजीवनी मंत्र के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह आदिम ऋषि सुकराचार्य को दी गई तपस्या की अवधि पूरी करने के बाद दी गई “जीवन-बहाली” अभ्यास का एक घटक है। इसके देवता (संरक्षक देवता) रुद्र हैं, अर्थात, शिव अपने भयंकर और सबसे विनाशकारी रूप या पहलू में।

    महामृत्युञ्जय मन्त्र का महत्व

    इसे मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए और मोक्ष मंत्र के रूप में फायदेमंद माना जाता है जो दीर्घायु और अमरता प्रदान करता है।

    कुछ पुराणों के अनुसार, महा मृत्युंजय मंत्र का प्रयोग कई ऋषियों के साथ-साथ सती ने भी किया है जब चंद्र प्रजापति दक्ष के श्राप से पीड़ित थे। इस मंत्र का पाठ करने से, दक्ष के श्राप का प्रभाव, जो उन्हें मर सकता था, धीमा कर दिया, और शिव ने फिर चंद्र को पकड़ लिया और उसे अपने सिर पर रखा।

    यह मंत्र शिव को असामयिक मृत्यु को दूर करने के लिए संबोधित किया जाता है। शरीर के विभिन्न हिस्सों पर विभूति का स्मरण करते हुए और जाप या होमा (हवन) में वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए इसका उपयोग करते हुए भी इसका जप किया जाता है। जबकि इसकी ऊर्जा अपनी गहरी और अधिक स्थायी प्रकृति के लिए एक मंत्र की पुन: लिंक चेतना की रक्षा और मार्गदर्शन करती है, और मंत्र के दोहराव से जाप का गठन होता है, जिसके अभ्यास से एकाग्रता विकसित होती है जिससे जागरूकता का परिवर्तन होता है। जहां गायत्री मंत्र शुद्धिकरण और आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए है, वहीं महामृत्युंजय मंत्र कायाकल्प और पोषण के लिए है।

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    By विकास सिंह

    विकास नें वाणिज्य में स्नातक किया है और उन्हें भाषा और खेल-कूद में काफी शौक है. दा इंडियन वायर के लिए विकास हिंदी व्याकरण एवं अन्य भाषाओं के बारे में लिख रहे हैं.

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