कामाख्या नारायण सिंह की फिल्म ‘भोर’ की स्क्रीनिंग हाल ही में इंडोजर्मन फिल्मवीक में की गई है। बेबीलोन में आयोजित इस फिल्म वीक में चयनित 40 से भी ज्यादा फिल्मों में ‘भोर’ भी शामिल थी। फिल्म को मिली अपार सफलता को निर्देशक बहुत ही विनम्र तरीके से अपनी शुरुआत बताते हैं।
कामाख्या नारायण अपनी फिल्म की सफलता का श्रेय अपनी टीम को देते हैं और कहते हैं कि सभी को इस परियोजना में विश्वास था। एक्टर्स के बारे में उन्होंने कहा कि वे अभिनय तो ठीक से कर लेते थे पर बॉडी लैंग्वेज और दिखने में वे वहां के लोगों की तरह नहीं लगते थे, जिसे अचीव करना टीम का सबसे बड़ा टास्क था और सभी ने इसपर मेहनत की।
निर्देशक और पूरी टीम ने गांव में रहकर मुसहर बस्ती के लोगों के बीच अपना काम किया और कपड़े भी उन्होंने नए नहीं बनवाए बल्कि वहीं के लोगों से मांग कर इस्तेमाल किये।
उन्होंने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में कई बनाई हैं लेकिन यह उनकी पहली फ़ीचर फिल्म थी और इससे जुड़े कई दिलचस्प तथ्यों और फिल्म बनाने की उनकी यात्रा के बारे में और भी ज्यादा जानने के लिए द इंडियनवायर ने उनसे संपर्क किया।
यहाँ प्रस्तुत हैं उनसे खास बातचीत के कुछ अंश:
‘कबीर सिंह’ जैसी फ़िल्में आज 250 करोड़ क्लब में जा रही हैं वहीं ऐसा माना जाता है कि मीनिंगफुल सिनेमा के बहुत सिमित दर्शक होते हैं और साथ ही ऐसी फिल्मों से निर्माता को आर्थिक रूप से भी कोई खास लाभ नहीं होता ऐसे में ‘भोर’ जैसी फिल्म बनाने की प्रेरणा कहाँ से मिली?
पहले तो मैं यह नहीं कहूंगा कि ‘कबीर सिंह’ कोई ख़राब फिल्म है। यह अपनी तरह की फिल्म है और ‘भोर’ अपनी तरह की फिल्म है। हर तरह की फिल्में बनती रहनी चाहिए और हर तरह की फिल्म के अपने दर्शक होते हैं…’भोर’ के भी अपने दर्शक हैं।
आप खुद को एक्सीडेंटल फिल्ममेकर कहते हैं तो क्या आप शुरू से फ़िल्में नहीं बनाना चाहते थे?
एक्सीडेंटल फिल्ममेकर इसलिए कहता हूँ क्योंकि शुरू से ही एक्टिविस्ट ज्यादा रहा हूँ। हाँ फिल्में बनाने की तम्मना थी मन में लेकिन ज्यादातर ट्रेवल करता रहा और डॉक्युमेंट्री बनाता रहा और सामाजिक कार्यों में भी मन ज्यादा लगा।
‘भोर’ ज़िन्दगी और प्रेम के छोटे-छोटे पहलुंओं को उजागर करती है और साथ ही इसमें सामाजिक मुद्दे भी उठाए गए हैं। इन सभी चीज़ों को एक फिल्म में पिरोने का आईडिया कहाँ से आया?
मैं बिहार का रहने वाला हूँ और बचपन में वहां घूमने जाता था तो खेतों में काम करते लोगों को देखा, उनकी परेशानियों को देखा, जीवन जीने के उनके तरीके को बहुत नज़दीक से जाना। मैं हमेशा से दिखाना चाहता था कि वे किस तरह रहते हैं।
अपने निजी जीवन के बारे में कुछ बताएं?
निजी जीवन है….निजी ही रहने दिया जाए।
‘भोर’ की शूटिंग आपने रियल सेट्स और रियल लोकेशंस पर की है। उस दौरान आपको और आपकी टीम की किन समस्याओं का सामना करना पड़ा?
किसी भी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। वहां के लोग बड़े ही प्यारे और सहयोगी रहे थे। हमारे जो सहलेखक थे, वह उन्ही का गावं था तो कोई भी समस्या नहीं आई।
फिल्म के एक्टर्स वाकई शानदार हैं और उन्होंने अपना काम बखूबी किया है। कास्टिंग आपने किस तरह से की थी ?
कास्टिंग के लिए हमने भी साधारण प्रक्रिया ही अपनाई थी। ऑडिशन लिए कई स्थानों पर जाकर, पर फिल्म की कास्टिंग पर हमें सबसे ज्यादा मेहनत करनी पड़ी। हमारे कास्टिंग डायरेक्टर दिलीप शंकर ने जिन्होंने ‘लाइफ ऑफ़ पाई’ जैसी फिल्मों पर काम किया है, उन्होंने अपना काम बहुत बखूबी किया।
हमने बिहार में ऑडिशन लिए फिर दिल्ली में ऑडिशन लिए उसके बाद मुंबई रवाना हुए और वहां भी ऑडिशंस किये। बिहार में हमने स्थानीय लोगों को चुना फिर उनके साथ दो महीने की वर्कशॉप की। कभी-कभी किसी को सेलेक्ट करते फिर वर्कशॉप में एहसास होता कि ठीक नहीं हो पा रहा है फिर उन्हें रिप्लेस भी करना पड़ता।
हमारे जो लीड एक्टर्स हैं उनको खोजने में हमने तीन महीने लगाए थे। कुछ लोग ऐसे भी मिलते थे जो पूछते थे कि यह सब क्या है? गावं में मुसहर बस्ती में रहना उन्ही के साथ खेतों में काम करना, तो उनके साथ भी बात नहीं बनती थी।
फिल्म से जुड़ी कुछ खास बातें जो आप शेयर करना चाहते हैं…?
हमारी फिल्म का गाना लाइव रिकॉर्ड किया गया है जो अपनी तरह का पहला गाना है। गाना हमने गांव में ही लाइव परफॉर्म करते हुए शूट किया था और फिल्म की कास्ट्यूम भी रियल है जो हमनें वहीं के लोगों से मांगे थे। शुरू में तो वे हिचकिचाते थे…उन्हें लगता था कि कपड़े क्यों मांग रहे हैं ? ब्लैक मैजिक जैसी चीज़ों से भी वे डरते थे। पर हमने उन्हें यकीन दिलाया कि हम शूटिंग के लिए कपड़े ले रहे हैं। धीरे-धीरे सब समझ गए और हमारी बहुत सहायता की।
कहते हैं कि किसी निर्देशक के जीवन का दर्शन, विज़न और जीने का खास अंदाज़ उसकी फिल्मों में भी झलकता है। आपके जीवन की कोई खास फिलॉसोफी है?
आज दोस्तों से एक ज्वलंत मुद्दे पर बात हो रही थी तो मैंने यही कहा कि बड़े मुद्दों पर तो हर कोई फ़िल्में बनाता है और बात करता है। क्यों न छोटी-छोटी बातों पर फ़िल्में बनाई जाएं। मैं अपनी फिल्मों से खुशियां बाटना चाहता हूँ। मेरी फिल्म में न ठाकुर विलेन है न ही उसका बेटा। कहीं न कहीं सब अपनी लाइफ के हीरो हैं।
‘भोर’ इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया (गोवा) में भी प्रदर्शित की गई थी। यह फ़िल्म इंडियन पैरानोमा श्रेणी में टॉप फाइव में थी। कामाख्या नारायण सिंह द्वारा निर्देशित ‘भोर’ बिहार के मुसहर बस्ती की लड़की बुधनी की कहानी है।
बुधनी पढ़ाई करना चाहती है पर उसका परिवार उसकी शादी कराना चाहता है। बाद में वह सुगन नाम के आदमी से शादी के लिए इस शर्त पर तैयार हो जाती हैं कि वह उसे पढ़ाई ज़ारी रखने देगा। शादी के बाद भी बुधनी और सुगन को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
यह फिल्म ज़िन्दगी के इसी ताने बाने, सामाजिक संघर्ष और सपनों की कहानी है। फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं सावेरी श्री गौर, देवेश रंजन और नलनीश नील।