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    22 अप्रैल, 2021 को भारत और अमरीका ने लीडर्स समिट के दौरान अमरीका-भारत जलवायु और अक्षय ऊर्जा एजेंडा लॉन्च किया। अमेरिकी राष्ट्रपति ने जलवायु पर लीडर्स समिट की मेजबानी की। 40 देशों के विश्व नेताओं ने इस शिखर सम्मेलन में भाग लिया जिसमें भारत, चीन, ब्रिटेन और रूस भी शामिल थे।

    साझेदारी के बारे में

    यह साझेदारी सामरिक स्वच्छ ऊर्जा भागीदारी और जलवायु कार्रवाई और वित्त जुटाने के माध्यम से आगे बढ़ेगी। साथ ही भारत अमेरिका के साथ साझेदारी के तहत 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा की तैनाती करेगा।दोनों देश अपने-अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मिलकर काम करेंगे।इस साझेदारी के माध्यम से, देश प्रदर्शित करेंगे कि कैसे दुनिया तेजी से जलवायु कार्रवाई को सतत विकास प्राथमिकताओं में शामिल कर सकती है।

    अमेरिका के लक्ष्य

    इस शिखर सम्मेलन के दौरान, अमेरिका ने घोषणा की कि उसने 2005 के स्तर की तुलना में 2030 में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 50% से 52% तक कम करने का एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। यह बराक ओबामा द्वारा निर्धारित 2015 के लक्ष्य से दोगुना है। ओबामा के उत्तराधिकारी, डोनाल्ड ट्रम्प पेरिस समझौते से हट गए थे।अमेरिका के अनुसार, इन कदमों से देश को 2050 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन हासिल करने में मदद मिलेगी।अमेरिका हाल ही में पेरिस समझौते में फिर से शामिल हो गया।

    शिखर सम्मेलन में अन्य घोषणाएं

    अमेरिका ने घोषणा की कि वह विकासशील देशों के लिए अपने सार्वजनिक जलवायु वित्तपोषण को दोगुना कर देगा। इसे 2024 तक तीन गुना किया जाना है। चीनी राष्ट्रपति ने चीन के हरित बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को बढ़ावा दिया। इसके अलावा, उन्होंने घोषणा की कि चीन 2060 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्ध है।

    यूनाइटेड किंगडम ने घोषणा की कि इसने शुद्ध शून्य का लक्ष्य हासिल करने की राह पर अग्रसर है।ब्रिटेन ने 1990 के स्तरों की तुलना में 2035 तक 78% उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य रखा था। जर्मनी 1990 के स्तर की तुलना में 2030 तक उत्सर्जन में 55% की कमी लाने की राह पर है।

    जलवायु परिवर्तन: एक वास्तविकता

    जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौती से इनकार नहीं किया जा सकता। वर्तमान में यह दुनिया भर के सभी क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है। बढ़ते समुद्री जल के स्तर और मौसम के बदलते पैटर्न ने हज़ारों लोगों के जीवन को प्रभावित किया है। दुनियाभर के तमाम प्रयासों के बावजूद भी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि जारी है और विशेषज्ञों को उम्मीद है कि आने वाले कुछ वर्षों में पृथ्वी की सतह का औसत तापमान काफी तेज़ी से बढ़ेगा एवं समय के साथ इसके दुष्प्रभाव भी सामने आएंगे। ध्यातव्य है कि जलवायु परिवर्तन आधुनिक समाज के लिये एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि पर्यावरण परिवर्तन से खाद्य उत्पादन को खतरा हो सकता है, समुद्र का जल स्तर बढ़ सकता है और प्राकृतिक घटनाएँ तेज़ी से सामने आ सकती हैं।

    आँकड़े बताते हैं कि 1980 से 2011 के बीच बाढ़ के कारण दुनियाभर के तकरीबन पाँच मिलियन लोग प्रभावित हुए और विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक नुकसान का भी सामना करना पड़ा। कई देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्र जैसे- कृषि और पर्यटन भी प्रभावित हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त विश्व के कुछ हिस्सों में अनवरत सूखे की स्थिति बनती जा रही है और वे पानी की भयंकर कमी से जूझ रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में ज़ीरो डे की स्थिति इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है।

    मौसम के बदलते पैटर्न ने उन स्थानों के स्थानीय वातावरण को भी बदल दिया है जहाँ जीव-जंतु और वनस्पतियाँ पाई जाती हैं, जिसके कारण कई जानवर या तो पलायन कर रहे हैं या विलुप्ति की कगार पर आ गए हैं। सूखे और मौसम के बदलते पैटर्न ने दुनियाभर के किसानों को भी काफी प्रभावित किया है और वे अपनी फसलों को बदलने के लिये मज़बूर हो गए हैं। जलवायु परिवर्तन आम लोगों के स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है, विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि सूखा, खराब हवा और पानी की खराब गुणवत्ता के कारण तटीय और निचले इलाकों में खतरनाक स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो रही है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के इन खतरों के खिलाफ लगातार कार्यवाही किये बिना इनसे निपटना संभव नहीं है।

    क्या है पेरिस समझौता?

    पेरिस समझौता एक महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय समझौता है जिसे जलवायु परिवर्तन और उसके नकारात्मक प्रभावों से निपटने के लिये वर्ष 2015 में दुनिया के लगभग प्रत्येक देश द्वारा अपनाया गया था। इस समझौते का उद्देश्य वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को काफी हद तक कम करना है, ताकि इस सदी में वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस कम रखा जा सके।

    इसके साथ ही आगे चलकर तापमान वृद्धि को और 1.5 डिग्री सेल्सियस रखने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। ध्यातव्य है कि इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये प्रत्येक देश को ग्रीनहाउस गैसों के अपने उत्सर्जन को कम करना होगा, जिसके संबंध में कई देशों द्वारा सराहनीय प्रयास भी किये गए हैं। यह समझौता विकसित राष्ट्रों को उनके जलवायु से निपटने के प्रयासों में विकासशील राष्ट्रों की सहायता हेतु एक मार्ग प्रदान करता है।

    पेरिस समझौता और भारत

    भारत ने अप्रैल 2016 में औपचारिक रूप से पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। भारत के आईएनडीसी में सकल घरेलू उत्‍पाद उत्‍सर्जन की तीव्रता को वर्ष 2005 के स्‍तर की तुलना में वर्ष 2030 तक 33-35 प्रतिशत तक कम करना शामिल है। इसके अलावा इसमें वर्ष 2030 तक अतिरिक्‍त वन और वृक्षावरण के माध्‍यम से 2.5-3 बिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड के समतुल्‍य अतिरिक्‍त कार्बन ह्रास सृजित करना भी शामिल हैं।

    आगे की राह

    इस संबंध में कार्बन टैक्स की अवधारणा का प्रयोग कर वैश्विक स्तर पर कार्बन के उत्सर्जन पर टैक्स लगाया जा सकता है, इससे सभी देशों के कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने की प्रतिबद्धता में बढ़ोतरी होगी।

    सभी देशों की जवाबदेही तय करने और इस संबंध में उनके प्रयासों की जाँच करने के लिये एक नियामक संस्था का भी निर्माण किया जा सकता है। साथ ही जो देश अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में असफल रहेंगे उन पर प्रतिबंध और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
    जुर्माने से प्राप्त हुई राशि का प्रयोग हरित परियोजनाओं के लिये किया जा सकता है।वर्तमान में दुनियाभर की सरकारें जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी के लिये बहुत सारा पैसा खर्च कर रही हैं, जिसके कारण ईंधन के प्रयोग को बढ़ावा मिल रहा है। आवश्यक है कि सभी जीवाश्म ईंधनों की सब्सिडी पर वैश्विक प्रतिबंध लगाए जाए।

    अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जोसेफ़ बाइडेन ने पेरिस जलवायु समझौते में, फिर से शामिल होने की घोषणा की है। पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प ने, वर्ष 2020 में, अमेरिका को पेरिस जलवायु समझौते से हटा लिया था। इस सन्दर्भ में, पेरिस जलवायु समझौता एक बार फिर से ज़ोरदार चर्चा में आ गया है. यहाँ प्रस्तुत है।

    By आदित्य सिंह

    दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास का छात्र। खासतौर पर इतिहास, साहित्य और राजनीति में रुचि।

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