फिल्म इंडस्ट्री में जब भी कश्मीर के ऊपर फिल्म बनाई गयी है तो या तो उसे आतंकवाद का गढ़ के रूप में दिखाया गया है या प्रेमी जोड़े के हनीमून स्थान के रूप में। उसकी असल जड़ो या असल दिक्कतों तक फिल्म निर्माताओं को असहजता ही महसूस हुई है।
ऐसे बहुत कम फिल्म निर्माता है जिन्होंने कश्मीर के असली मुद्दों में घुसने की हिम्मत जुटाई है। उनमे से एक हैं राहुल ढोलकिया जिनकी 2010 में आई फिल्म ‘लम्हा’ ने घाटी में चल रहे राजनीतिक मतभेद और नागरिकों के संघर्ष की कहानी दिखाई। उन्होंने भारतीय सिनेमा से गायब कश्मीर के ऊपर, हमें नयी चीज़ें खोजने से क्या रोक रहा है और उन क्षेत्रों के ऊपर बात की जहाँ हम अभी भी पाखंडी बने हुए हैं।
न्यूज़ 18 से उनकी बातचीत के कुछ अंश-
हम राष्ट्रवाद के पड़ाव से गुज़र रहे हैं। ये 2014 के बाद से ज्यादा हो गया है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि हम लोगों में से ना किसी ने युद्ध देखा है और ना किसी अपने को युद्ध में खोया है। ये चिल्लाना आसान है-‘युद्ध में जाओ’ क्योंकि हमने कभी युद्ध की कीमत नहीं चुकाई। जो पुलवामा में हुआ वो भयानक था। वो कभी नहीं होना चाहिए था। मगर फिर कश्मीरी छात्रों पर हमला करना बेवकूफी थी। अगर कश्मीर भारत का हिस्सा है और सब ‘हमारे’ कश्मीर के लिए लड़ रहे हैं तो आप लोग कश्मीरी को क्यों पीट रहे हो?
एक साधारण कश्मीरी के जीवन को व्यक्त करना कठिन है। ‘लम्हा’ की शूटिंग आपका अनुभव क्या रहा?
मैं वहाँ 2008-10 में था। ज्यादातर वक़्त राज्य राज्यपाल के शासन में ही था। मैंने लगभग सबसे मुलाकात की-असिया अंद्राबी, गिलानी से लेकर मिर्वैज़ तक। मैंने जेल में रह रहे कुछ लोगों से भी बातचीत की और जो पैरोल पर बाहर थे। छात्रों से, आम जनता से, जम्मू और कश्मीर की पुलिस से और सेना और जवानों से कई अच्छे दोस्त भी बनाये।
तो मैंने ये देखा-
ज्यादातर कश्मीरी भारतीयों के खिलाफ नहीं है। वो सशस्त्र बलों के खिलाफ हैं। वो पाकिस्तान के समर्थक भी नहीं है क्योंकि उन्होंने उनका हिस्सा भी देखा है। कश्मीरी शांत और बेहद मेहमाननवाज लोग हैं। लेकिन एक पूरी पीढ़ी है जो 1990 के बाद बढ़ी है, जहां उन्होंने केवल गोलियां और भारत के बारे में बुरी बातें सुनी हैं। उन्होंने हरे रंग में पुरुषों द्वारा बनाए गए अत्याचारों को देखा है, और काफी ईमानदारी से, वे इखवान, सीआरपीएफ या सेना के बारे में नहीं जानते हैं या परवाह नहीं करते हैं। उनके लिए, ये वे लोग हैं जो अपनी खूबसूरत जेल में जेलर हैं।
मैंने उन्हें पूरी तरह से दोष नहीं देता। मैंने खुद कश्मीर की सड़को पर ऐसी घटनाओं का सामना किया है जहाँ दिन के किसी भी वक़्त सेना सड़को को बंद कर देगी, नागरिकों को लाइन में खड़ा करवाके उन्हें फंसा देती है। और बात जहाँ हमारे जवानों की है तो उनकी भी हालत बुरी है। पहली बात, उन्हें आम जनता और आतंकवादी के बीच फर्क पता नहीं चलता। कश्मीर की स्थिति खराब है, सर्दियाँ बेकार है और सेना के पास सबसे दयनीय सुविधाएं हैं। मेरे हिसाब से ये एक चमत्कार ही है कि वो लोग कैसे प्रेरित रहते हैं।
ये लोग बिना छुट्टी लिए हर सेकंड अपनी ज़िन्दगी के लिए लड़ते हैं। क्या हम सोशल मीडिया के बाहर भी उनकी इज्जत करते हैं? अगर आप कश्मीर में तैनात हैं तो शायद ही आप अपनी छुट्टी की योजना बना सकें। उन्हें टीसी को रिश्वत देनी होगी ताकि उन्हें बैठने के लिए जगह मिल सके।
तो कश्मीर ‘जन्नत’ थी। मगर जैसा में कहता हूँ-‘जन्नत और जहन्नुम के बीच का फासला सिर्फ एक गोली है’।
हम कश्मीर की दिक्कतों के बारे में इतनी बात करते हैं मगर जब स्क्रीन पर उसे दिखाने की बारी आती है तो कुछ हद तक भारतीय सिनेमा में केवल उसे सुन्दरता तक ही सीमित कर दिया जाता है।
पहले हमें बॉक्स ऑफिस की चिंता होती थी। फिर हमें प्रतिबन्ध की चिंता होने लगी। अब हमें ट्रोल होने का और देश-द्रोही बुलाये जाने का डर है। इसलिए हम वास्तविक मुद्दे दिखाने से कतराते हैं। हमें ‘लम्हा’ में थोड़ी बहुत कहानी दिखाने की कोशिश की मगर मेरे हिसाब से वो भी मिश्रित है। यहाँ तक कि इसे मध्य-पूर्वी देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया क्योंकि उन्हें लगा कि एक महिला सिस्टम के खिलाफ कैसे बोल सकती है?
कश्मीर को भूल जाओ, हमने कश्मीरी पंडित के ऊपर कब इतनी अच्छी फिल्म बनाई है? मैं जम्मू शरणार्थी शिविरों में गया हूँ और विस्थापित पंडितों से बात की है। मुझे पता चला कि घाटी में गोलियों से भी ज्यादा लोग सांप के काटने से मारे गए हैं। वे उन सभी से नाराज़ थे जो चुनाव के दौरान पंडितों की दुर्दशा के बारे में बोलेंगे और फिर इसके बारे में भूल जाएँगे। इन लोगों में से अधिकांश की घाटी में ‘कोठियां’ थीं और अब वे 10×10 कमरों में रह रहे थे। उनके घरों को या तो कश्मीरी मुसलमानों द्वारा या मुख्य रूप से हमारे बलों द्वारा बंकर बनाने के लिए ले लिया गया था।
सिनेमा में वे कौन से क्षेत्र हैं जहां हम अभी भी कई अन्य तरीकों से पाखंडी बने हुए हैं?
सिनेमा को भूल जाइये, हमें ट्वीट करते वक़्त या बयान देते वक़्त कितना संभलकर बोलना पड़ता है। देखिये, शाहरुख़ खान और आमिर खान के साथ क्या हुआ। लेकिन फिर जब मैंने ‘परज़ानिया’ बनाई, तो इसका कारण मुझे लगता है कि मैं इसे उसी तरह से कर पाया, क्योंकि मैं अमेरिका में रह रहा था। भारत में, यह आपके आस-पास के लोग हैं, जो आपको डराते हैं, आपको निराश करते हैं और फिर आप बाहर निकलने का आसान तरीका खोजने लगते हैं। आप में मौजूद व्यवसायी आप में मौजूद कलाकार के साथ बातचीत शुरू करता है। अंतिम परिणाम यह है कि आपको न तो बॉक्स ऑफिस मिला और न ही राष्ट्रीय पुरस्कार। इसलिए, अगर हमें इस तरह के मुद्दों को उठाना है, तो विश्वास के साथ करें।
क्या आपको लगता है कि भारतीय सिनेमा ये दिखाने में सफल रहा है कि युद्ध कोई जश्न मनाने की चीज़ नहीं होती और इससे कैसे मानव ज़िन्दगी प्रभावित होती है?
ईमानदारी से, नहीं। हमने कब वॉर फिल्म बनाई है? हमारी सभी फिल्मों में, दुश्मन मुर्ख होता है। ना उनके पास ज्ञान होता है, ना शक्ति और ना उपकरण। हम कभी भी शारीरिक लड़ाई से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। सैनिक का मन और आघात दोनों शारीरिक और मनोवैज्ञानिक या मानव हित वाली कहानियों के बारे में शायद ही कभी पता लगाया जाता हो। अमेरिका से आने वाली फिल्में जैसे ‘सेविंग प्राइवेट रयान’ या ‘दनकर्क’ में ज्यादा गहराई, दर्द और उद्देश्य होता है।
आपके अनुसार, वॉर फिल्म (युद्ध पर आधारित फिल्म) का उद्देश्य क्या होना चाहिए?
इसमें युद्ध का भाव दिखाना चाहिए। जो असर ये लोगों पर डालता है जो लड़ने जाते हैं। परिवार, अखंडता, और चरित्र। संबंध और परिणाम। इसमें दर्द, पीड़ा लेकिन उम्मीद और ज़िन्दगी का उद्देश्य भी प्रतिबिंबित होना चाहिए, जैसे ‘लाइफ इज ब्यूटीफुल’ में दिखाया गया है। क्योंकि युद्ध में, कोई विजेता नहीं होता केवल हरनेवाले होते हैं। जरा इतिहास पर गौर करें – वियतनाम युद्ध, खाड़ी युद्ध, और यहां तक कि 1971 का युद्ध, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, कश्मीर इसके कारण प्रभावित है।