“सन 1981 में मैं चूंकि रेलवे की नौकरी छोड़कर तिहाड़ जेल की सेवा में पहुंचा था। जिंदगी में इससे पहले कभी जेल और मुजरिमों से वास्ता नहीं पड़ा था। जेल जॉइन की तो वहां की मायावी दुनिया को देखकर एक बार तो हिल उठा। शुरुआती दिनों में सोचा करता था कि यहां जिंदगी पता नहीं कैसे कट पाएगी?
धीरे-धीरे जेल की जिंदगी के 35 साल मुलाजमात करते हुए कैसे और कब गुजर गए, पता ही नहीं चला। इन 35 सालों में जेल के जो जंजाल मैंने अपनी आंखों से देखे, वे एक कहानी-किस्सा भर नहीं हैं। वे सब जेल की मायावी दुनिया की रूह कंपा देने वाली हकीकत के दस्तावेज हैं। कटने-फटने और पीले पड़ने के बाद भी जिनके ऊपर लिखी इबारतों-अल्फाजों को आने वाली पीढ़ियां कभी मिटा नहीं पाएंगी।”
“तिहाड़ जेल की नौकरी से भले ही मैं सन 2016 में क्यों न रिटायर हो चुका हूं, मगर जेल की चार-दीवारी के भीतर ही तिलिस्मी दुनिया का भयावह सच आज भी पीछा कर रहा है।”
ये अल्फाज हैं तिहाड़ जेल के पूर्व जेलर और कानूनी सलाकार सुनील गुप्ता के, जिन्होंने जेल की जिंदगी के डरावने सच को अपनी पुस्तक ‘ब्लैक-वारंट’ में बयान किया है, जिसे हाल ही में रोली पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। सुनील गुप्ता ने यह किताब सुनेत्रा चौधरी के साथ मिलकर लिखी है।
सुनील गुप्ता ने आईएएनएस को बताया, “मेरे जमाने में जेल के भीतर जेलरों की नहीं, बल्कि दुनिया भर के कुख्यात सीरियल किलर, दुष्कर्मी, अंतर्राष्ट्रीय ड्रग तस्कर व मास्टरमाइंड ठग चार्ल्स शोभराज की बादशाहत थी। जहां तक मुझे याद है, 1980 के दशक में जेल के भीतर शायद ही कोई ऐसा जेलर-डिप्टी जेलर या फिर जेल का कोई अन्य कर्मचारी-अफसरान बचा होगा, जिस पर चार्ल्स शोभराज ने हुकूमत न गांठ रखी हो।”
“उन दिनों तिहाड़ जेल में हरियाणा के अफसरों की बहुतायत थी। कहने को कुछ दिल्ली व अन्य राज्यों के थे, मगर ज्यादातर के कुछ न कुछ अपने-अपने स्वार्थ थे। जेल के अफसर हों या फिर कोई अदना-सा कर्मचारी, बस उनकी इन्हीं चंद कमजोरियों को शोभराज ने पकड़ रखा था। शोभराज की हुकूमत के हंटर का आलम यह था कि जेल में परिंदा भी उसके इशारे के बिना नहीं उड़ सकता था। सबको अपनी फर्राटेदार अंग्रेजी, तेज दिमाग और बेशुमार दौलत से काबू कर लेने में उसे महारत थी। जब कोई जेलर, डिप्टी जेलर उससे मोर्चा लेने की जुर्रत भी करता था, तो वह उन्हें अदालत में घसीट ले जाने की गीदड़ भभकी देकर मेमने की मानिंद अपने आगे-पीछे मिमियाने को मजबूर कर लेता था।”
ब्लैक-वारंट के हवाले से, “तिहाड़ से चार्ल्स शोभराज के भागने के वक्त तक जेल का बॉस एडीएम या फिर डिप्टी कमिश्नर हुआ करता था। तब तक तिहाड़ जेल में महानिरीक्षक या महानिदेशक का पद नहीं था। साल 1986 तक आते-आते महानिरीक्षक का पद सृजित हुआ। वही जेल का सर्वेसर्वा बना दिया गया। महानिरीक्षक के नीचे सहायक जेल अधीक्षक, जेल उपाधीक्षक, हेड-वार्डन और वार्डन आदि कर्मचारी होते थे। जिस वक्त की बात मैं कर रहा हूं, उस समय जेल महानिरीक्षक थे पी.वी. सिनारी। सिनारी के रूप में बहैसियत जेल महानिरीक्षक कोई पहला आईपीएस अफसर जेल संभालने पहुंचा था।”
गुप्ता ने आईएएनएस को बताया, “जेल से चार्ल्स शोभराज के भागने के बाद ही तिहाड़ में जेल रिफॉर्म्स पर काम शुरू हो सका। वरना तब यही तिहाड़ जेल मुजरिमों के लिए वाकई किसी नरक से कम नहीं थी। तब एक ही जेल हुआ करती थी। जेल नंबर-1। शोभराज की फरारी के बाद सुरक्षा के एहतियातन किए गए उपायों के तहत तिहाड़ के भीतर दो ऊंची दीवारें खड़ी कर दी गईं। इन दीवारों ने जेल नंबर-2 और तीन बना डाली। खुद ब खुद बिना कुछ करे-धरे ही।”
ब्लैक वारंट में साफ-साफ लिखा है, “असल में जब देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी ने बहैसियत आईजी जेल जॉइन की, तब तिहाड़ की तिलिस्मी तस्वीर धीरे-धीरे ही सही, मगर सामान्य रूप में बदलनी शुरू हो सकी। किरण बेदी जैसी जीवट की मजबूत महिला आईपीएस की कुव्वत थी, जिसके बलबूते जेल में कैदियों के खान-पान, रहन-सहन, उनकी इंसानों की-सी दिनचर्या की शुरुआत और जेल में बंद कैदियों के उद्धार के लिए एनजीओ फॉर्मूला अमल में लाया जा सका।”
“अगर किरण बेदी मजबूती के साथ कैदियों के बीच घुसने का जोखिम न उठातीं तो कोई बड़ी बात नहीं कि जेल आज भी नरक ही होती, न कि सुधार-गृह, जो वाकई में आज है। वे खतरनाक मुजरिमों के बीच सीधे पहुंचीं। उन्होंने जानने की कोशिश की कि आखिर जेल में नारकीय जीवन है क्यों? अंदर की हकीकत मुजरिमों से ही निकाल लाने वाली किरण बेदी ही थीं। इसीलिए जेल का उद्धार हो सका। जेल में कैदियों की पंचायत का फॉर्मूला जो आज भी चल रहा है, किरण बेदी की ही देन है। खुलेआम प्रेस को जेल के भीतर जमाने में सबसे पहले ले जाने वाली भी किरण बेदी हीं थीं। वरना उनसे पहले किसी भी जेल अफसर ने यह हिमाकत करने की जुर्रत नहीं दिखाई कि वह बेधड़क जेल के भीतर का हाल दिखाने के लिए मीडिया को जेल के अंदर ले गया हो।”
‘ब्लैक-वारंट’ के बारे में गुप्ता बताते हैं, “ब्लैक-वारंट एक किताब है। जबकि तिहाड़ जेल की जिंदगी किसी ग्रंथ से कम नहीं है। तिहाड़ के तिलिस्मी सच को किताब के पन्नों में पिरो पाना असंभव है। यह इतिहास है आने वाली पीढ़ियों के वास्ते, जिसे जितने ज्यादा रूप में लिखना जरूरी है, आने वाले वक्त में उससे ज्यादा बड़ी चुनौती होगी इसके इतिहास को, हमारी आने वाली पीढ़ियों को पढ़ाने के वास्ते सहेज-संभालकर रखना।”