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    बॉलीवुड में अभी लम्बा टिकेगा बायोपिक का चलन

    हर साल हिंदी सिनेमा की लगभग 1000 फिल्में रिलीज़ होती हैं। फिल्मो को न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में बहुत प्यार किया जाता है और यहाँ के फिल्म निर्माता भी अपने दर्शको को अच्छी कहानियो से रूबरू कराने में नहीं चूकते।
    और ऐसे ही उनकी कोशिश में शुरू हुआ बायोपिक बनाने का चलन। बायोपिक मतलब किसी इन्सान की जीवनी को बड़े परदे पर दिखाना। बायोपिक में सबसे अच्छी बात ये होती है कि आपको कहानी बनी बनाई मिलती है और बस आपको यही तय करना होता है कि उनकी कहानी का कितना हिस्सा फिल्म में जाएगा।

    बॉलीवुड में चलन की शुरुआत होती है एक गेम चेंजिंग फिल्म से, अगर वह हिट हो जाये तो सभी फिल्म निर्माता उसी राह पर चलने लगते हैं। बीते तीन चार सालों में कई बायोपिक आ गयी हैं जैसे ‘अजहर’, ‘सरबजीत’, नीरजा’, ‘एमएस धोनी’, ‘दंगल’ ‘संजू’, ‘राज़ी’, ‘ठाकरे’, ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’, ‘द ताशकंद फाइल्स’ और कुछ दिनों पहले दर दर की ठोकरें खाने के बाद रिलीज़ हुई फिल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’। लोगो को इन महान व्यक्तित्व के जीवन और उनकी सफलता और असफलता का सफ़र देखना अच्छा लगता है और अगर पूरी तस्वीर को देखा जाये तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है।

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    कहानियो के संग प्रेरणा हमेशा से ही दर्शको और फिल्म समीक्षकों की पसंद रही है और अगर बायोपिक इन्हें देने के साथ साथ फिल्म निर्माताओं के लिए अच्छा बॉक्स ऑफिस कलेक्शन भी ला रही हैं, तो याद रखिये कि ये चलन अभी काफी साल और चलने वाला है।

    अभी भी अगर आप आने वाली सभी बड़ी फिल्मो पर नज़र डाले तो उसमे से ज्यादातर फिल्में बायोपिक ही हैं या किसी सच्ची घटना पर आधारित हैं। चाहे वो कपिल देव की बायोपिक ’83’, लक्ष्मी अग्रवाल की बायोपिक ‘छपाक’, सैयद अब्दुल रहीम की बायोपिक हो, या साइना नेहवाल की बायोपिक, जो लोग देश के इन नामचीन चहरो को नहीं जानते, उन्हें मनोरंजक तरीके से इन एतिहासिक व्यक्तित्वों को जानने का मौका मिलेगा।

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    हां, एक कमी ये है कि मसाला डालने के चक्कर में, निर्देशक कुछ चीजों को अपने पास से ही मिलाते हैं लेकिन उससे फिल्म का उद्देश्य गायब नहीं होता। बायोपिक बनाने का इ अहम कारण उस इंसान की छवि को बदलना भी होता है जिसके ऊपर ये बायोपिक बन रही है। जैसे जब राजकुमार हिरानी की ‘संजू’ आई थी तो कई लोगो ने फिल्म की ये कहकर आलोचना की कि इसमें संजय दत्त के अपराधों को छिपा कर उन्हें मासूम दिखाया जा रहा है।

    और इस साल आई तीन प्रमुख राजनीतिक बायोपिक को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है जिस पर ये कहकर विवाद हुआ कि वे प्रचार प्रसार के लिए बनाई गयी हैं। इन तीन फिल्मो के नाम हैं- ‘ठाकरे’, ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ और ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ जिन्होंने एक से ज्यादा कारणों के चलते सुर्खियां बटोरी।

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    इनके अलावा, कुछ फिल्म निर्माता जानबूझ कर इतिहास के उन पन्नो को खोलने की कोशिश करते हैं जिनमे समाज में हलचल मचाने की शक्ति होती है। संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावत’ तो याद ही होगी ना, अगर फिल्म विवाद में न घिरती तो क्या दीपिका पादुकोण की फिल्म 300 करोड़ कमा पाती। वैसे करनी सेना ने तो कंगना रनौत की ‘मणिकर्णिका’ पर भी हमला बोलने की तैयारी की थी जो रानी लक्ष्मीबाई पर आधारित थी लेकिन मिस रनौत से टक्कर लेने की हिम्मत उनमे भी नहीं हुई।

    अंत में, बाकि चलन की तुलना में, बायोपिक का चलन बॉलीवुड में कुछ वक़्त और टिकने वाला है क्योंकि हर दिन ऐसा नहीं होता जब आपको मनोरंजन के साथ साथ इतिहास का भी ज्ञान मिल पाए।

    https://youtu.be/X6sjQG6lp8s

    By साक्षी बंसल

    पत्रकारिता की छात्रा जिसे ख़बरों की दुनिया में रूचि है।

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