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    उत्तर प्रदेश में रेत (बालू) का अवैध खनन भले ही प्रतिबंधित हो, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि बुंदेलखंड में रोजगार के लिए तरस रहे गरीब-गुरबों के लिए यह दो वक्त की रोटी का ‘जुगाड़’ बन गया है। बालू खनन से मिल रहे रोजगार की वजह से वे अब कमाने परदेस नहीं जाते।

    उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में नदियों और खेतों में पड़ी बालू का अवैध खनन चरम सीमा पर है। जहां नदियों में भारी-भरकम मशीनों से खनन किया जा रहा है, वहीं नदियों की तलहटी वाले खेतों की बालू किसान या तो समझौते में माफियाओं को बेच रहे हैं या फिर खुद ई-रिक्शा और मोटरसाइकिल से फेरी लगाने वालों को बेची जा रही है।

    गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अकेले बांदा जिले में करीब आठ हजार परिवारों को बालू के अवैध खनन से रोजगार मिला हुआ है और ये परिवार अपनी दो वक्त की रोटी का ‘जुगाड़’ इसी से कर रहे हैं। इतना ही नहीं, कई जगह तो साग-सब्जी की तरह अब नदी के किनारे ‘बालू मंडी’ भी लगनी शुरू हो गई है। वहां से ई-रिक्शा और मोटरसाइकिल वाले बालू खरीदकर बाजार में बेच रहे हैं। इन्हीं बालू मंडियों के अगल-बगल चाय, समोसा और परचून की अस्थायी दुकानें भी हैं।

    नरैनी तहसील क्षेत्र के गौर-शिवपुर गांव के नन्ना निषाद बताते हैं कि उनके गांव में करीब पचास युवक ऐसे हैं, जो मोटरसाइकिल से यह धंधा करते हैं। ये लोग किसानों के खेतों से 10 रुपये प्रति बोरी कीमत में बालू खरीद कर नरैनी कस्बे में उसे 35 रुपये प्रति बोरी की दर से बेचकर प्रतिदिन करीब आठ सौ रुपये कमा रहे हैं। इससे उनके परिवार का दैनिक खर्च और खाने-पीने का जुगाड़ आराम से हो जाता है।

    वह बताते हैं कि मोटरसाइकिल से प्रति चक्कर में पांच बोरी और ई-रिक्शा में 15 बोरी ढोई जा सकती है। इसी गांव के सुशील ने बताया कि उन्होंने खेतों में चल रही खदानों के बगल में परचून की गुमटी खोली है। उन्हें दिनभर में तीन सौ से चार सौ रुपये तक की कमाई हो रही है।

    इसी गांव की महिला किसान परमी निषाद बताती हैं कि वह अपने खेतों की बालू बेचकर घर का खर्च चला रही हैं। वे दिनभर में चार-पांच सौ रुपये की बालू बेच लेती है। उन्होंने कहा, “जब से बालू का धंधा चल पड़ा, तब से हमारे घर के पुरुषों को परदेस नहीं जाना पड़ता।”

    ई-रिक्शे में फेरी लगाकर बालू बेचने वाले पचोखर गांव के छोटेलाल ने बताया कि वह पिछले दो माह से फेरी लगाकर अतर्रा कस्बा और आस-पास के गांवों में जरूरतमंदों को बालू बेच रहे हैं, जिससे उन्हें प्रतिदिन एक हजार रुपये से डेढ़ हजार रुपये तक की आमदनी हो रही है।

    उन्होंने बताया कि पुलिस वाले ई-रिक्शा और मोटरसाइकिल से बालू का धंधा करने वालों से पैसा नहीं वसूल करती, बल्कि जो व्यक्ति ट्रैक्टर-ट्रॉली से बालू की ढुलाई करते हैं, उनसे तीस हजार रुपये प्रति माह लेती है।

    ट्रैक्टर-ट्रॉली से बालू का कारोबार करने वाले रामू (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि एक ट्रॉली भरने की मजदूरी तीन सौ रुपये दी जाती है और छह मजदूर आधे घंटे में ट्रॉली भर देते हैं। रातभर में एक मजदूर कम से कम सात सौ रुपये कमा लेता है। उन्होंने बताया कि एक ट्रैक्टर-ट्रॉली वाला रातभर में करीब तेरह हजार रुपये की कमाई करता है, जिसमें करीब छह हजार रुपये ऊपरी (पुलिस, मजदूरी और डीजल) खर्च निकल जाता है। फिर भी छह-सात हजार रुपये बच जाते हैं।

    इस तरह के बालू खनन की बात करें तो केन नदी की तलहटी के गांव चटचटगन, दरदा, कनवारा, भूरागढ़, त्रिवेणी, मानपुर, बरसड़ा, मऊ, रिसौरा, पांडादेव, नसेनी, जमवारा, नसेनी, पुंगरी, बरकोला, कटर्रा, शाहपाटन, गोपरा, बसराही, बरुआ, मोतियारी, नौगवां, दूली, मुगौरा, दुबरिया, चन्दौर, पौहार, भुसासी, कुल्लूखेरा, उतरवां, सिंहपुर, परसेटा के अलावा कम से कम छह दर्जन ऐसे गांव हैं, जहां के करीब आठ हजार परिवारों ने अब बालू खनन को अपना रोजगार मान लिया है। इन लोगों का कहना है कि मनरेगा से अब गांवों में कोई काम नहीं मिल रहा, कम से कम बालू से रोटी का जुगाड़ चल रहा है।

    इस संबंध में जिलाधिकारी, अपर जिलाधिकारी और उपजिलाधिकारी का पक्ष जानने के लिए बार-बार फोन से संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन किसी अधिकारी ने अपना पक्ष बताने की जरूरत नहीं समझी।

    अलबत्ता, अवैध खनन के खिलाफ आगामी 28 जनवरी को नरैनी तहसील में हल्ला बोल की घोषणा करने वाले बुंदेलखंड किसान यूनियन के केंद्रीय अध्यक्ष विमल कुमार शर्मा ने बुधवार को कहा, “हम इसे अवैध खनन नहीं मानते, यह गरीबों का रोजगार है। जब जिला प्रशासन मनरेगा में काम नहीं दे रहा है, तब ऐसे में गरीब बालू के खनन से अपने लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं तो कोई गलत नहीं है।”

    वह कहते हैं कि यह काम गरीब मजबूरी में कर रहे हैं, यहां तो हर विधायक अपने क्षेत्र में दिन-रात खनन करवा रहा है और अधिकारी जानकर भी अनजान बने हुए हैं।

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