विश्व हिंदू परिषद् के नेता प्रविण तोगड़िया के एक आरोप ने बहुत सी संभावनाओं को हवा दे दी है। तोगड़िया का आरोप है कि उनके एनकाउंटर का प्रयास हुआ है। ज़ेड प्लस सुरक्षा प्राप्त तोगड़िया के मुहँ से यह बात किसी को हजम नही हो रही। तोगड़िया का दावा है कि उनके पास सारे सबूत है जिसे वह ‘सही समय’ पर दिखाएंगे।
सियासी पंडितों की माने तो इस घटना की सत्यता पर सवाल गंभीर है और यह शायद उस सोच का नतीजा है जिसके कारण विहिप और उसके जैसे कई संस्थान, बीजेपी के सत्ता मे आते ही सक्रिय हो जाते है। वह हिंदुत्व वादी सत्ता को स्थापित करने के लिए तत्पर हो जाते है।
परंतु यह लोग भूल जाते है कि हमारा संविधान, धर्मनिरपेक्षता और संप्रभुता को सिंचता है। और संविधान की रक्षा का दायित्व सरकार का है। उन्हे तो शायद ज्ञात भी नही कि आज के समय मे सरकारों को धर्म की चादर तले चलाना संभव नही। भारत एक मजबूत आर्थिक ईकाई के तौर पर उभरा है और इसके लिए उसे वैश्विक स्तर पर भी सहयोग चाहिए होगा। एक धार्मिक ईकाई बनकर यह कर पाना असंभव है।
तोगड़िया की नाराजगी का एक और कारण यह हो सकता है कि, कल तक जो लोग ‘स्वयंसेवक’ थे, आज वह सरकार चला रहें है, और विहिप जैसी ईकाईयां अबतक अपने ‘एजेंडे’ को लेकर वही है, जहा थे।
संघ के ‘एजेंडे’ और राजनीतिक प्रभुत्व का यह विरोधाभास काफी पुराना है। अटलजी के समय मे भी, संघ और सरकार के तनाव काफी स्पष्ट थे। तब भी आर.एस.एस के वरिष्ट -एके सिंघल द्वारा ऐसे ही कुछ बेतुके बयान आते थे। संघ से आने के बावजूद, अटलजी की दोस्ती हर वर्ग के लोगो से थी। लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपनी राजनीति की शुरुआत राजधानी से बाहर की, और कभी भी उन्होंने हिंदुत्व विचारधारा को पूरी तरह से नकारा नही। शायद यही वजह है कि वह तथाकथित ‘लुट्यन’ वर्ग से खुद को दूर रखते है।
यहाँ गौर करने वाली एक बात यह भी है कि के एस सुदर्शन और मोहन भागवत मे बहुत अंतर है। भागवत ने समय के अनुरूप संघ मे बदलाव किए जिसका नतीजा यह हुआ कि संघ और सरकार मे अबतक कोई बड़ी तनातनी नही दिखी।
जहाँ तक तोगड़िया की बात है। नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री होने के समय से ही वह नज़रअंदाज किए गए। उनकी और नरेंद्र मोदी की दोस्ती, सरकार के गुजरात माॅडल के लिए सही संकेत नही थी। इसी वजह से तोगड़िया को गुजरात मे शांत होना पड़ा। तोगड़िया की प्रेस कांफ्रेंस और उनके आरोप शायद इसी कुंठा का नतीजा है।