अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी ने कहा कि “पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के जिहादी समूहों का समर्थन छोड़ देने का वादा फाइनेंसियल एक्शन टास्क फाॅर्स के डर से है क्योंकि यदि पाकिस्तान ने आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की तो उसे काली सूची में डाल दिया जायेगा और इससे चरमपंथियों के खिलाफ पॉलिसी में कोई परिवर्तन नहीं दिखता है।”
ANI के मुताबिक जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी की कांफ्रेंस को सम्बोधित करते हुए हक्कानी ने कहा कि “उन्होंने इस पर गौर किया तो दूर तक खान सरकार की ताकतवर सेना द्वारा आतंकियों के शिविरों को ध्वस्त करने के कोई सबूत सामने नहीं आये हैं।”
हुसैन हक्कानी ने कहा कि “चरमपंथियों की तरफ पाकिस्तान के व्यवहार में थोड़ा ही परिवर्तन आया है जो भारत और अफगानिस्तान के साथ है। जम्मू कश्मीर में पुलवामा आतंकी हमले के बाद भी पाकिस्तान जैश ए मोहम्मद या उसके सरगना मसूद अज़हर के खिलाफ कोई भी कार्रवाई शुरू करने में विफल रहा है।”
उन्होंने कहा कि “बीजिंग के साथ इस्लामाबाद की करीबी दोस्ती है जो यूएन की वैश्विक आतंकी की सूची में मसूद अज़हर को शामिल होने से बचा लेती है। पाकिस्तान की तरफ से चीन ने यूएन में मसूद अज़हर को फेरहिस्त में शामिल होने से बचाया है।”
हुसैन हक्कानी कई किताबो के लेखक है और मौजूदा वक्त में वह हडसन इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर हैं। वह पाकिस्तानी सेना की घरेलू और विदेश नीतियों के मुखर आलोचक है खासकर जिहादी आतंकवाद के समर्थन की वह खिलाफत करते हैं। उन्होंने कहा कि “एफएटीएफ के प्रतिबन्ध अभी निकटस्थ नहीं है। जन संपर्क को मज़बूत कर पाकिस्तान प्रतिबंधों को विफल करने की कोशिश कर रहा है जिसमे पाक पीएम का हालिया बयान भी शामिल है। एफएटीएफ का दबाव बढ़ने से अधिक जनसंपर्क अधिकारीयों की नियुक्ति की गयी है।”
पूर्व राजदूत ने कहा कि “विश्व को एक बार फिर सुनिश्चित की इच्छा है कि पाकिस्तान अर्थव्यवस्था के परिणामो से प्रभावित होकर आतंकी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करना चाहता है। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की सेहत सुधरी हुई नहीं है। प्रतिबंधों से पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति बदहाल हो जाएगी, वह आईएमएफ या अन्य देशों से सहायता लेने में असक्षम होगा।” उन्होंने कहा कि “पाकिस्तान का आतंकियों को समर्थन रणनीतिक चयन है।”