2008 में आई वैश्विक आर्थिक मंदी के ठीक 10 साल बाद विश्व एकबार फिर आर्थिक मंदी की ओर तेज़ी से बढ़ता हुआ दिख रहा है। ये बात अभी पूरी तरह सिद्ध नहीं है लेकिन फिर भी तमाम अर्थशास्त्री इसे लेकर चिंतित हैं।
2008 में आई आर्थिक मंदी से निपटने के चलते दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों ने अधिक नोट छापे जिसका नतीजा ये हुआ कि बाज़ार में ज्यादा मुद्रा चलन में आ गयी। तब बैंकों ने भी इन्टरेस्ट रेट घटा लिए थे।
इन्वेस्टर्स ने ज्यादा रिटर्न की खातिर खराब गुणवत्ता के निवेश का भी सहारा लिया गया था।
हम सभी जानते हैं कि डॉलर को जिस तरह से एक अघोषित वैश्विक मुद्रा मान लिया गया है जिससे पूरे विश्व की डॉलर पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि विश्व को अमेरिकी मौद्रिक नीति पर निर्भर रहना पड़ता है।
छोटी अर्थव्यवस्थाएँ ज्यादा रिटर्न के चक्कर में शॉर्ट टर्म में निवेश कर रहे हैं, जोकि बेहद जोख़िम भरा हुआ है।
इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल फाइनेंस की एक रिपोर्ट के अनुसार 2008 की मंदी के दौरान उभरती हुई 26 अर्थव्यवस्थाओं का कुल क़र्ज़ उनकी कुल जीडीपी का 128% था जो कि 2017 में बढ़ कर 211% हो गया है।
जिस तरह से हर क्षेत्र में कीमतें बढ़ रही हैं, उससे संपत्ति की कीमत बेहद बढ़ गयी। इस तरह अगर बाज़ार में कोई सुधर नहीं किया गया तो छोटी सी घटना भी विश्व को आर्थिक मंदी की ओर धकेल देगी। इसी के चलते पूरे विश्व की नज़रें ब्रेक्जिट व अमेरिकी-चाइना ट्रेड वार पर बनी हुई हैं।
अभी कुछ दिन पहले ही एक कॉलेज के बच्चों को संबोधित करते हुए आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल ने कहा था कि ‘अर्थशास्त्रीयों का काम भविष्यवाणियाँ करना नहीं बल्कि सामने नज़र आने वाली मंदी से बचने के रास्तों को खोजना है। उन्होने ये कहा था कि यदि 2008 में समय रहते आने वाले खतरे को भाँप लिया गया होता तो उस तरह कि नौबत ही न आती और इसके लिए नीति निर्धारकों को अलग तरह से विचार करना होगा।’