कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी फिल्म ‘टिकली एंड लक्ष्मी बम’ के निर्देशक आदित्य कृपलानी अब अपनी एक और फ़िल्म के साथ वापस आ रहे हैं। फ़िल्म का नाम है- ‘टोटा पटाखा आइटम माल’।
आदित्य की यह फ़िल्म भी महिलाओं के जीवन पर ही आधिरित है। ‘टिकली एंड लक्ष्मी बम’ के ही नाम से वह एक किताब भी लिख चुके हैं।
इसके अलावा वह ‘बैक सीट’ और ‘फ्रंट सीट’ नाम के उपन्यास भी लिख चुके हैं। फ़िल्म ‘टोटा पटाखा आइटम माल’ के पोस्टर जारी कर दिए गए हैं और यह काफी बोल्ड हैं।
फ़िल्म के पोस्टर आप भी देखें:
कहने को तो कृपलानी नारीवादी हैं और औरतों के जीवन पर फ़िल्में बनाते हैं और अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि, “मैं ये कहूंगा कि मेरी फ़िल्में समानता की तरफ एक कदम है। जब मैं पढ़ रहा था मेरे प्रोफेसर ने एक बार कहा कि जो लोग कह नहीं पाते हैं उसे आवाज़ दी जानी चाहिए।
ये बात मुझे बहुत प्रभावित कर गई। कहीं बहुत अंदर मेरे ज़हन में बैठ गई। मैं हमेशा समानता ढूंढने की कोशिश करता हूं। आजकल ऐसा दौर है कि महिलाएं बराबरी पर नहीं हैं।
उनका शोषण हो रहा है, इसलिए मैं ऐसी कहानियां बोल रहा हूं। इसी राह पर चलने के लिए आगे मुझे मर्दों की कंडीशनिंग के बारे में भी लिखना पड़ेगा। मेरे हिसाब से दोनों ही फिल्मों में हम ये ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं कि मर्दों की कंडीशनिंग कैसी है और औरत और मर्द एक कैसे हैं। मेरे हिसाब से जेंडर के नीचे मानवता है। जहां हम सब एक जैसे हैं।”
समानता के बारे में इतनी बातें करने वाले आदित्य कृपलानी के समानता के विचार कुछ भटके हुए लगते हैं। कम से कम उनकी फ़िल्म के पोस्टर्स को देखकर तो यही प्रतीत होता है।
फ़िल्म के पोस्टर्स में आमतौर पर मर्दों द्वारा औरतों के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली गालियाँ लिखी हुई हैं जिनको उल्टा करके मर्दों के लिए ही प्रयोग किया गया है और यह पूछा गया है कि अब कैसा लगा? इसके अलावा पोस्टर में जो महिलाएं दिख रही हैं उनके चेहरे के भाव ऐसे हैं जैसे वे काफी सशक्त हैं और अपने लिए लड़ने के लिए तैयार हैं।
यहाँ हमने आदित्य कृपलानी के विचारों को भटका हुआ इसलिए कहा क्योंकि नारीवाद का यह अर्थ कतई नहीं होता है कि जैसा दुर्व्यवहार पितृसत्तात्मक समाज में पीड़ितों के साथ हो रहा है ठीक वैसा ही पीड़ित लोग भी करने लगें। नारीवाद का अर्थ सत्ता को मिटाना है, उसे उल्टा करना नहीं।
चीजों की गहराई में जाने के प्रयास में भटकना जाहिर सी बात होती है और नारी सशक्तिकरण के मामले में तो कुछ ज्यादा ही लोग भटक जाया करते हैं। फेमिनिस्ट और फेमिनाज़ी के बीच में एक पतली सी पगडंडी सामान सीमारेखा है लेकिन गलती से पाँव उसपार पड़ गया तो अंतर बहुत बड़ा आ जाता है।
एक मुद्दा यह भी है कि जब भी समानता, नारीवाद और लैंगिक भेदभाव की बात आती है भारतीय सिनेमा सिर्फ औरतों की कहानियों को ही सामने ले आता है जिनपर मर्द ज्यादती कर रहे होते हैं। पर सच तो यह है कि कुछ औरतें भी पितृसतात्मक होती हैं और कुछ पुरुषों को भी नारीवाद और सशक्तिकरण की उतनी ही ज्यादा जरूरत है और ‘टोटा पटाखा आइटम माल’ के यह किरदार उन्ही पित्रसत्तात्मक औरतों में से एक हैं।
दर्शकों को निश्चित तौर पर ऐसी विषयवस्तु नहीं दिखाई जानी चाहिए जिससे उनके विचार भी फ़िल्म निर्माता की तरह ही भ्रमित हो जाएं। फ़िल्में हमारे समाज पर गहरी छाप छोड़ती हैं और एक फ़िल्म निर्माता की यह बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है कि अपने साथ-साथ वह अपनी फ़िल्म देखने वालों का भी सही मार्गदर्शन करें। कम से कम अगर वह ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर फ़िल्में बना रहा है तब। वर्ना हम सब ‘ग्रैंड मस्ती’ और ‘फ्रॉड सैयां’ तो देख ही रहे हैं।
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