Caste Census in Bihar: हिंदी सिनेमा का एक खूब प्रसिद्ध डायलॉग है :- “डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।” इस से मुश्किल काम है – बिहार की राजनीति में किसी भी मुद्दे पर राजनीतिक दलों को एकजुट करना… लेकिन जातिगत जनगणना (CASTE based Count, NOT CENSUS) के मुद्दे पर यह मुश्किल काम भी आसानी से हो गया।
1 जून को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई जिसमें सभी दलों ने एक सुर में सर्वसम्मति से जाति-आधारित गणना करवाने के प्रस्ताव को पास कर दिया।
Patna, Bihar | In the meeting we unanimously decided that a caste-based census will be done in a set time frame. Soon a cabinet decision will be taken and it will be available in the public domain…: Bihar CM Nitish Kumar pic.twitter.com/nILlGdqC5m
— ANI (@ANI) June 1, 2022
फिर इस प्रस्ताव को आनन फानन में राज्य कैबिनेट की भी मंजूरी मिल गई तथा नीतीश कुमार की सरकार ने इसके लिए बिना कोई पल गवाए इसके लिए 500 करोड़ रुपये के फंड की भी व्यवस्था कर दी है।
जाति आधारित गणना, जातिगत जनगणना नहीं
नीतीश कुमार ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि उनकी सरकार सभी राजनीतिक दलों की सर्वसम्मति से जाति आधारित गणना” करने जा रही है, ना कि “जाति-आधारित जनगणना”।
दरअसल, जनगणना शब्द इस्तेमाल करने से सरकार कानूनी दाव-पेंच में उलझ जाएगी। इसके पीछे का तर्क यह है कि भारत मे जनगणना का काम केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना कमिश्नर के अधीन है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत जनगणना की प्रक्रिया केंद्रीय सूची (7th Schedule) में अंकित है जिसका अर्थ हुआ कि जनगणना के काम केंद्र सरकार ही कर सकती है, राज्य सरकारें नहीं।
अतएव, अगर बिहार सरकार जाति आधारित गणना को “जनगणना” का नाम देगी तो जाहिर है यह संघीय ढाँचे के खिलाफ माना जायेगा और नीतीश सरकार कानूनी दाव-पेंच में उलझ जाएगी।
जाति-गत जनगणना: सभी दलों के लिए सियासी संजीवनी
दरअसल बिहार की राजनीति वाली गाड़ी का ईंधन जाति (Caste) ही है। हर राजनीतिक दल का एक अपना वोटर वर्ग है जो किसी खास जाति या जाति-समूह से सबंध रखता है।
अभी तक जातियों की संख्या लगभग शब्द के साथ लिखा जाता है। उदाहरण के लिये बिहार में “लगभग” 18 फीसदी यादव हैं या लगभग 6 फीसदी ब्राह्मण है. … … आदि आदि। और इसी “लगभग” के ऊपर दलों की राजनीति आधारित होती है।
जातिगत गिनती के बाद जाहिर है समाज के हर जाति की कितनी संख्या है, यह स्पष्ट हो जाएगा। फिर राजनीति के खिलाड़ियों को अपनी राजनीतिक गुणा-भाग के लिए एक पुख्ता स्रोत मिल जाएगा।
हालाँकि राजनीति के इन नुमाइंदों ने जातिगत गणना को जातियों के सामाजिक व आर्थिक स्थिति के आंकलन का जरिया बताया जा रहा है। साथ ही यह भी दावा किया जा रहा है कि इस से सरकार को समाज-कल्याण वाली अपनी नीतियों को निर्धारित करने व उसके क्रियान्वयन में मदद मिलेगी।
बात निकली है तो दूर तलक जाएगी…
यह कोई छुपा सत्य नहीं है कि जाति आधारित राजनीति न सिर्फ बिहार राज्य, बल्कि पूरे देश की राजनीति में सार्वभौमिक है। जाहिर है, बिहार के बाद दूसरे राज्यों में भी ऐसी मांगें जो यदा कदा उठती रही है, अब और भी पुरजोर बुलंद होगी।
यहाँ यह बताना जरूरी है कि देशव्यापी जाति आधारित जनगणना की मांग कोई नई नही, बल्कि 140 साल पुरानी है। हो सकता है, जाति आधारित जनगणना के लिये बिहार प्रथम प्रयोगशाला हो पर बाकि राज्यों से भी इसकी मांग समय समय पर उठती रही हैं।
आखिरी बार 1931 में जातीय जनगणना के आंकड़ें सामने आए थे। तब अंग्रेजी हुकूमत देश पर शासन कर रही थी। तब बिहार और उड़ीसा एकीकृत राज्य थे। हालाँकि 2011 में मनमोहन सरकार ने जातिगत जनसंख्या की गणना करवाये थे लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया।
वहीं बिहार से पहले 2015 में कर्नाटक में कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने जातिगत आंकड़ें जुटाए थे लेकिन इसका नाम भी जनगणना के बजाए “सामाजिक, आर्थिक व शिक्षा” सर्वेक्षण रखा गया। हालांकि इसके भी आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये गए।
बीजेपी के लिए यह मुद्दा बनी गले की हड्डी
बीजेपी इस वक़्त केंद्र की सत्ता में भी है, साथ ही बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ राज्य की सत्ता में भी साझेदार है। बीजेपी की केंद्रीय नेतृत्व जातिगत जनगणना की मांग को सिरे से ख़ारिज करती रही है जबकि बिहार बीजेपी नीतीश कुमार के सर्वदलीय बैठक में शामिल हुई जिसमें सर्वसम्मति से जाति गणना की बात स्वीकार की गई।
“जाति है कि जाती नहीं…”
देश मे आज़ादी के बाद 1951 में पहली बार जब जनगणना करवाने की बात हुई तो तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने इसे सिरे से ख़ारिज करते हुए कहा कि अगर ऐसा हुआ तो सामाजिक ताना बाना टूट जाएगा। यही कारण है कि बाद में भी सामाजिक-आर्थिक गणना होने के बाद भी उसे सार्वजनिक या प्रकाशित नहीं किया गया।
एक तरफ़ देश के तमाम संस्थायें और बुद्धिजीवियों का वर्ग जातिगत बंधनों से मुक्त होने की बात करता है। वहीं दूसरी तरफ समाज मे जातिगत गणना कर राजनीतिक फायदे लेने की होड़ लगी है। तभी तो कहते हैं- “जाति है कि जाती नहीं।”