ब्रिटिश औपनिवेशिक ताकतों द्वारा अंधाधुंध गोलीबारी के परिणामस्वरूप 1919 में हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड के मंगलवार को 102 साल पूरे हुए। अंग्रेजों ने उस समय सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया था और नागरिकों को उनकी ‘अवज्ञा’ के लिए दंडित करने के लिए, ब्रिगेडियर-जनरल रेजिनाल्ड डायर ने हजारों निहत्थे भारतीयों की भीड़ में सेना को गोली चलाने का आदेश दिया, जो चल रहे आंदोलन से अनजान थे और बैसाखी का त्योहार मनाने के लिए इकठ्ठा हुए थे। इसमे सैकड़ों लोग मारे गए थे।
प्रधानमंत्री ने दी श्रद्धांजलि
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर जलियांवाला बाग हत्याकांड के शहीदों को श्रद्धांजलि दी। उन्होंने लिखा, “जलियांवाला बाग हत्याकांड में शहीद हुए लोगों को श्रद्धांजलि। उनका साहस, वीरता और बलिदान हर भारतीय को ताकत देता है।” गौरतलब है कि जलियाँवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक (संशोधन) अधिनियम 2019 के अनुसार देश का प्रधानमत्री ही जलियाँवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक का अध्यक्ष होता है।
जलियाँवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक (संशोधन) अधिनियम 2019
जलियाँवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक अधिनियम, 1951 के अनुसार इस स्मारक के न्यासियों में अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री, भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष, संस्कृति मंत्रालय का प्रभारी मंत्री, लोकसभा में विपक्ष का नेता, पंजाब का राज्यपाल, पंजाब का मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार द्वारा नामित तीन प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल थे।
2019 अधिनियम में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष को न्यास का स्थायी सदस्य बनाए जाने से संबंधित धारा को हटाकर गैर राजनीतिक व्यक्ति को इसके संचालन हेतु न्यासी बनाने का प्रयास किया गया था। अधिनियम में यह संशोधन भी किया गया था कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अथवा विपक्ष का ऐसा कोई नेता न होने की स्थिति में सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को न्यास के सदस्य के रूप में शामिल किया जाए।
जलियाँवाला बाग हत्याकांड
9 अप्रैल, 1919 को रोलैट एक्ट का विरोध करने के आरोप में पंजाब के दो लोकप्रिय नेता डॉ. सत्यपाल एवं डॉ. सैफुद्दीन किचलू को सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। इनकी गिरफ्तारी के विरोध में 13 अप्रैल, 1919 को बैशाखी के दिन अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक विशाल सभा का आयोजन किया गया। जनरल डायर ने इसे अपने आदेश की अवहेलना माना तथा सभास्थल पर पहुँचकर निहत्थे लोगों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया।
आंकड़ों के अनुसार, मरने वालों की संख्या 379 थी लेकिन वास्तव में इससे कहीं ज्यादा लोग मारे गए थे। इस नरसंहार के विरोध में रवींद्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई ‘नाइटहुड’ की उपाधि त्याग दी। इस हत्याकांड की जाँच के लिये कॉन्ग्रेस ने मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की। ब्रिटिश सरकार ने इस हत्याकांड की जाँच के लिये हंटर आयोग गठित किया।