नई दिल्ली, 4 जून (आईएएनएस)| केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से जैसी अपेक्षा थी वैसा ही उन्होंने दमखम दिखाया है। शाह के एजेंडे में जम्मू-कश्मीर में लंबित चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन दोबारा करने समेत कई अहम मसले शामिल हैं।
कलह से प्रभावित प्रदेश में इस समय राष्ट्रपति शासन है। शाह पहले ही राज्यपाल सत्यपाल मलिक के साथ बंद कमरे में बैठक कर चुके हैं। वह खुफिया ब्यूरो के निदेशक राजीव जैन और गृह सचिव राजीव गौबा से भी मिले। इस बीच माना जाता है कि गृह मंत्रालय में जम्मू-कश्मीर संभाग को बड़े पैमाने पर नया रूप दिया जा सकता है।
प्रदेश में 18 दिसंबर 2018 से राष्ट्रपति शासन लागू है। संभावना है कि तीन जुलाई के बाद राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाई जा सकती है।
सुरक्षा बल इलाके से आतंकियों का सफाया करने में जुटा है और इस साल अब तक 100 आतंकियों को ढेर किया जा चुका है।
आगामी योजनाओं में निर्वाचन क्षेत्रों का नए सिरे से परिसीमन और परिसीमन आयोग की नियुक्ति शामिल है।
परिसीमन के तहत विधानसभा क्षेत्रों का दोबारा स्वरूप और आकार तय किया जा सकता है। साथ ही, अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटें तय की जा सकती हैं।
इसका मुख्य मकसद जम्मू-कश्मीर प्रांत में काफी समय से व्याप्त क्षेत्रीय असमानता को दूर करना है। साथ ही, प्रदेश विधानसभा में सभी आरक्षित वर्गो को प्रतिनिधित्व प्रदान करना है।
एक और वर्ग का मानना है कि कश्मीर घाटी में कोई अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति नहीं है, जबकि गुर्जर, बकरवाल, गड्डी और सिप्पी को 1991 में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया। प्रदेश की आबादी में इनका 11 फीसदी योगदान है, लेकिन कोई राजनीतिक आरक्षण नहीं है।
सोचने वाली बात यह है कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा के 1939 के संविधान पर जम्मू-कश्मीर का संविधान 1957 में लागू हुआ जो अभी तक लागू है। भारत में शामिल होने के बाद प्रदेश संविधान सभा का गठन 1939 के संविधान के तहत हुआ, लेकिन शेख अब्दुल्ला के प्रशासन ने मनमाने ढंग से जम्मू के लिए 30 सीटें और कश्मीर क्षेत्र के लिए 43 सीटें और लद्दाख के लिए दो सीटें बनाईं। उसके बाद से यह क्षेत्रीय असमानता की मोर्चाबंदी हुई और कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में चार सीटें हो गईं।