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    गणेश वंदना (भाग 1) – ‘वक्रतुण्ड महाकाय …’ तथा अन्य छंद

    अधिकांश हिंदू परिवारों-समुदायों में किसी भी शुभकार्य का आरंभ प्रायः गणेश वंदना से किया जाता है । इसी परंपरा के अनुरूप कार्यारंभ को बहुधा उसके ‘श्रीगणेश’ से भी पुकारा जाता है । वैवाहिक निमंत्रण-पत्रों पर देवाधिदेव गणेश की आकृति एवं उनकी स्तुति या प्रार्थना के श्लोक का उल्लेख आम प्रचलन में है । आजकल विवाहों का ‘मौसम’ चल रहा है । हिंदुओं में ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर ही पारंपरिक वैवाहिक मुहूर्त तय किए जाते हैं । वर्ष भर में कुछ गिने हुए दिन ही विवाह-योग्य मुहूर्त नियत होते हैं, और वे भी कुछ चुने हुए महीनों में । अतः इन दिनों एक साथ कई परिवारों में विवाह संस्कार संपन्न किए जाते हैं, और फलस्वरूप कई लोगों को मित्रों-परिचितों से अलग-अलग साजसज्जा के ढेरों निमंत्रण एक साथ मिलते हैं । जैसा पहले कह चुका हूं, इनमें गणेश वंदना के छंद प्रायः पढ़ने को मिलते हैं । मुझे प्राप्त होने वाले निमंत्रणों में निम्नांकित श्लोक सबसे अधिक देखने को मिलता है:

    वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ ।
    निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥

    हे वक्रतुण्ड, महाकाय, करोड़ों सूर्यों के समान आभा वाले देव (गणेश), मेरे सभी कार्यों में विघ्नो का अभाव करो, अर्थात् वे बिना विघ्नों के संपन्न होवें ।

    गणेशजी को वक्रतुण्ड पुकारा गया है । तुण्ड का सामान्य अर्थ मुख या चोंच होता है, किंतु यह हाथी की सूंड़ को भी व्यक्त करता है । गणेश यानी टेढ़ीमेढ़ी सूंड़ वाले । उनका पेट या तोंद फूलकर बढ़ा हुआ, अथवा भारीभरकम है, अतः वे महाकाय – स्थूल देह वाले – हैं । उनकी चमक करोड़ों सूर्यों के समान है । यह कथन अतिशयोक्ति से भरा है । प्रार्थनाकर्ता का तात्पर्य है कि वे अत्यंत तेजवान् हैं । निर्विघ्न शब्द प्रायः विशेषण के तौर पर प्रयुक्त होता है, किंतु यहां यह संज्ञा के रूप में है, जिसका अर्थ है विघ्न-बाधाओं का अभाव । तदनुसार निहितार्थ निकलता है सभी कार्यों में ‘विघ्न-बाधाओं का अभाव’ रहे ऐसी कृपा करो, अर्थात् विघ्न-बाधाएं न हों ।

    प्रार्थना का यह श्लोक कइयों के लिए सुपरिचित होगा । मैं इसकी चर्चा विशेष प्रयोजन से कर रहा हूं । मैंने देखा है कि यह छंद लगभग सदा ही त्रुटिपूर्ण तरीके से लिखित रहता है । अक्सर यह निम्न प्रकार से लिपिबद्ध रहता है:

    वक्रतुण्ड महाकाय कोटि सूर्य सम प्रभ ।
    निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा ॥

    अथवा मिलती-जुलती त्रुटियों के साथ । इसमें पहली त्रुटि यह है ‘सूर्य कोटि’ न होकर ‘कोटिसूर्य’ होना चाहिए । करोडों सूर्यों के समुच्चय या समूह के लिए सामासिक शब्द है ‘कोटिसूर्य’ = करोड़ों सूरज । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संस्कृत के नियम सामासिक शब्दों के घटकों के बीच रिक्ति (स्पेस) की अनुमति नहीं देते हैं । अतः इसे ‘कोटि सूर्य’ नहीं लिख जा सकता है । आगे इस पर भी ध्यान दें:

    सूर्यकोटिसमप्रभ

    जिसका अर्थ है करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाला है जो वह । यह स्वयं बड़ा-सा सामासिक शब्द है और इसके अवयवों को बिना रिक्तियों के मिलाकर लिखना अनिवार्य है । कहने का तात्पर्य है कि समासजनित शब्दों के अंतर्गत रिक्तियां नहीं होनी चाहिए । मैंने देखा है कि निमंत्रण पत्र जैसे दस्तावेजों में संस्कृत श्लोकों की वर्तनी एवं उसमें उपलब्ध शाब्दिक क्रम कभी-कभी दोषपूर्ण रहते हैं । इसका कारण कदाचित् यह है कि इन श्लोकों को उद्धृत करने वाले अधिकतर लोग संस्कृत के ज्ञाता नहीं होते हैं, अथवा उनका ज्ञान अपर्याप्त होता है । बहुत संभव है कि वे विभिन्न श्लोकों को अन्य निमंत्रण-पत्रों से लेते होंगे, या ऐसे स्रोत से लेते होंगे जहां किन्हीं कारणों से वे दोषपूर्ण मुद्रित हों । एक बार उनका त्रुटिपूर्ण पाठ व्यवहार में आ जाए और वही प्रचारित हो जाए तो उक्त प्रकार की गलती देखने में आने लगेगी ही ।

    उपर्युक्त छंद से साम्य रखने वाला एक और छंद मेरे देखने आया है । वह है:

    विनायक नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय ।
    अविघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥

    सदैव लड्डुओं के प्रेमी हे विनायक, तुम्हें नमस्कार है , हे देव, मेरे सभी कार्यों में विघ्नों का अभाव पैदा करो, अर्थात् वे निर्विघ्न संपादित हों ।

    इस श्लोक के ‘मोदकप्रिय’ शब्द में भी समास है और इसे ‘मोदक प्रिय’ नहीं लिखा सकता है।

    गणेश वंदना (भाग 2) – ‘एकदन्तं महाकायं …’ एवं अन्य छंद

    एकदन्तं महाकायं लम्बोदरगजाननम् ।
    विघ्ननाशकरं देवं हेरम्बं प्रणाम्यहम् ॥

    (एक-दन्तम् महा-कायम् लम्ब-उदर-गज-आननम् विघ्न-नाश-करम् देवम् हेरम्बम् प्रणामि अहम् ।)

    एक दांत वाले, स्थूलकाय, दीर्घाकार पेट एवं हाथी के समान मुख वाले और विघ्नों का नाश करने वाले हेरम्ब (गणेश जी) को मैं प्रणाम करता हूं । (मान्यता है कि गणेश जी का सिर हाथी के सिर के सदृश है जिसका एक दांत खण्डित है ।)

    शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
    प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशान्तये ॥

    (शुक्ल-अम्बर-धरम् देवम् शशि-वर्णम् चतुः-भुजम् प्रसन्न-वदनम् ध्यायेत सर्व-विघ्न-उपशान्तये ।)

    सभी विघ्नों को शान्त करने या रोकने हेतु श्वेत वस्त्र धारण करने वाले, चंद्रमा-तुल्य कायिक वर्ण वाले, चार भुजाओं वाले, श्री गणेश देव का ध्यान करे, उनकी उपासना करे ।

    प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् ।
    भक्तावासं स्मरेन्नित्यम् आयुःकामार्थसिद्धये ॥

    (प्रणम्य शिरसा देवम् गौरी-पुत्रम् विनायकम् भक्त-आवासम् स्मरेन् नित्यम् आयुः-काम-अर्थ-सिद्धये ।)

    दीर्घायुष्य-प्राप्ति, इच्छा-पूर्ति एवं धनोपार्जन में साफल्य पाने हेतु भक्तजनों के शरणस्थल, पार्वती-पुत्र, विनायक (विघ्न हरने वाले) देव, श्री गणेश, का नित्यप्रति सिर नवाते हुए स्मरण करे ।

    आलम्बे जगदालम्बे हेरम्बचरणाम्बुजे ।
    शुष्यन्ति यद्ररजःस्पर्शात्सद्यः प्रत्यूहवार्धयः ॥

    (आलम्बे जगत्-आलम्बे हेरम्ब-चरण-अम्बुजे शुष्यन्ति यत्-रजः-स्पर्शात् सद्यः प्रत्यूह-वार्धयः ।)

    इस संसार के आलंबन (आधार) स्वरूप श्री हेरम्ब (गणेश) के चरण-कमल का मैं आश्रय लेता हूं (अर्थात् उनकी शरण में जाता हूं), जिस चरण के धूलि के स्पर्श से विघ्नबाधाओं के समुद्र तुरंत सूख जाते हैं ।

    गणेश वंदना (भाग 3) – ‘गजाननं भूतगणाधिसेवितम् …’ तथा अन्य छंद

    अभिप्रेतार्थसिद्ध्यर्थं पूजितो यः सुरासुरैः ।
    सर्वविघ्नच्छिदे तस्मै गणाधिपतये नमः ॥

    (अभिप्रेत-अर्थ-सिद्धि-अर्थम् पूजितः यः सुर-असुरैः सर्व-विघ्न-च्छिदे तस्मै गण-अधिपतये नमः ।)

    मन से विचारित (मनोवांछित) कार्य की सफलता के निमित्त जिन गणेशजी का पूजन सुरों (देवताओं) एवं असुरों (राक्षसों) के द्वारा किया जाता है, सभी विघ्नों के छेदन करने वाले उन विघ्न-विनाशक गणाधिपति (गणेश) देव के प्रति मैं नमन करता हूं । गणेश (= गण+ईश) को भगवान् शिव के गणों (अनुचरों) का अधिपति या स्वामी कहा जाता है ।

    स जयति सिन्धुरवदनो देवो यत्पादपङ्कजस्मरणम् ।
    वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम् ॥

    (सः जयति सिन्धुर-वदनः देवः यत्-पाद-पङ्कज-स्मरणम् वासर-मणिः-इव तमसाम् राशीन् नाशयति विघ्नानाम् ।)

    जिस प्रकार सूर्य अंधकार को दूर भगाता है वैसे ही जिसके चरण-कमलों का स्मरण विघ्नों के समूह का नाश करता है, हाथी के मुख वाले ऐसे देव (गणेश) की जय हो । वासरमणि का अर्थ वस्तुतः क्या है यह मुझे नहीं मालूम, किंतु मैंने इसका अर्थ दिन की मणि अथवा सूर्य माना है । सिंधुर = हाथी, वदन = मुख ।

    गजाननं भूतगणाधिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम् ।
    उमासुतं शोकविनाशकारकम् नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम् ॥

    (गज-आननम् भूत-गण-अधिसेवितम् कपित्थ-जम्बू-फल-चारु-भक्षणम् उमा-सुतम् शोक-विनाश-कारकम् नमामि विघ्नेश्वर-पाद-पङ्कजम् ।)

    हाथी के मुख वाले, भूत-गणों के द्वारा सेवित, कैथ एवं जामुन का चाव से भक्षण करने वाले, शोक (दुःख या कष्ट) के नाशकर्ता, उमा-पुत्र का मैं नमन करता हूं, विघ्नों के नियंता श्री गणेश के चरण-कमलों के प्रति मेरा प्रणमन । भूतगण = भगवान् शिव के अनुचर । गणेश को मोदकप्रिय (लड्डुओं के शौकीन) तो कहा ही जाता है, इस श्लोक से प्रतीत होता है कि उन्हें कैथ तथा जामुन के फल भी प्रिय हैं ।

    यतो बुद्धिरज्ञाननाशो मुमुक्षोः यतः सम्पदो भक्तसन्तोषिकाः स्युः ।
    यतो विघ्ननाशो यतः कार्यसिद्धिः सदा तं गणेशं नमामो भजामः ॥

    (यतः बुद्धिः-अज्ञान-नाशः मुमुक्षोः यतः सम्पदः भक्त-सन्तोषिकाः स्युः यतः विघ्न-नाशः यतः कार्य-सिद्धिः सदा तम् गणेशम् नमामः भजामः ।)

    जिनकी कृपा से मोक्ष की इच्छा रखने वालों की अज्ञानमय बुद्धि का नाश होता है, जिनसे भक्तों को संतोष पहुंचाने वाली संपदाएं प्राप्त होती हैं, जिनसे विघ्न-बाधाएं दूर हो जाती हैं और कार्य में सफलता मिलती है, ऐसे गणेश जी का हम सदैव नमन करते हैं, उनका भजन करते हैं।

    श्रीगणेश के 12 नाम

    1. वक्रतुण्डाय
    धीमहि तन्नो दन्ति
    प्रचोदयात।

    2. विश्वरूपेण
    हे गणपति देव
    तुम्हें प्रणाम।

    3. हे धूम्रवर्ण
    जीवन के आधार
    तेरी जय हो।
    4. हे भालचन्द्र
    विघ्न के विनाशक
    मोदक भोग।

    5. हे गौरी सुत
    रिद्धि-सिद्धि के भर्ता
    नमस्करोमि।

    6. कृष्णपिंगाक्ष
    सुर: प्रियाय: नम:
    लम्बोदराय।

    7. हे महाकाय
    सर्व विघ्नशामक
    रक्षा कवच।

    8. एकदन्ताय
    सर्व शांतिकारक
    शुभं करोति।

    9. गणाधिपति
    आत्मा के मूर्तिमान
    स्वरूप तुम।

    10. गजमस्तक
    बुद्धि बल के स्वामी
    विस्तीर्ण कर्ण।

    11. हे विनायक
    ज्ञान, विवेक, शील
    साक्षात ब्रह्म।

    12. विघ्नराजेन्द्रं
    मस्तक है विशाल
    कुशाग्र बुद्धि।

    गणेश वंदना

    हे एकदंत विनायकं तुम हो जगत के नायकं।
    बुद्धि के दाता हो तुम माँ पार्वती के जायकं।।
    है एकदंत विनायकं तुम हो जगत के नायकम….ॐ हरि ॐ

    गणपति है वकर्तुंडंम, एकदंतम गणपति है,
    कृष्णपिंगाक्षम गणपति, गणपति गजवक्त्रंमम….
    है एकदंत विनायकं तुम हो जगत के नायकम।
    बुद्धि के दाता हो तुम माँ पार्वती के जायकं।।….ॐ हरि ॐ

    गणपति लम्बोदरंम है, विकटमेव भी है गणपति
    विघ्नराजेंद्रम गणपति, हो तुम्ही धूम्रवर्णमंम।।
    है एकदंत विनायकं तुम हो जगत के नायकम।
    बुद्धि के दाता हो तुम माँ पार्वती के जायकं।।….ॐ हरि ॐ

    भालचंद्रम गणपति है, विनायक भी गणपति है,
    गणपति एकादशं है, द्वादशं तू गजाननंम।।
    है एकदंत विनायकं तुम हो जगत के नायकम।
    बुद्धि के दाता हो तुम माँ पार्वती के जायकं।।….ॐ हरि ॐ

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    By विकास सिंह

    विकास नें वाणिज्य में स्नातक किया है और उन्हें भाषा और खेल-कूद में काफी शौक है. दा इंडियन वायर के लिए विकास हिंदी व्याकरण एवं अन्य भाषाओं के बारे में लिख रहे हैं.

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