13 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए जमीन खाली करने के आदेश पर खुद न्यायालय ने फिलहाल के लिए रोक लगा दी है। दरअसल कोर्ट ने देश के करीब 21 राज्यों के 11.8 लाख से अधिक आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य लोगों को जंगल की जमीन से बेदखल करने का आदेश दिया था क्योंकि ये सभी लोग अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून, 2006 के तहत वनवासी के रूप में अपने दावे को साबित नहीं कर पाए थे।
साथ ही केंद्र व राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई को 30 जुलाई तक के लिए टाल दिया है। जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने संक्षिप्त सुनवाई के बाद कहा,”हम अपने 13 फरवरी के आदेश पर रोक लगा रहे हैं।” पीठ ने यह भी कहा कि वनवासियों को बेदखल करने के लिये उठाये गये तमाम कदमों के विवरण के साथ राज्यों के मुख्य सचिवों को जल्द हलफनामे दाखिल करने होंगे।
पूरा मामला
सुप्रीम कोर्ट में राज्यों द्वारा दायर हलफनामों के अनुसार, वन अधिकार अधिनियम के तहत अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों द्वारा लगभग 11,72,931 (1.17 मिलियन) भूमि पर किए गए स्वामित्व के दावों को विभिन्न आधारों पर खारिज कर दिया गया है। इनमें वो लोग शामिल हैं जो ये सबूत नहीं दे पाए कि कम से कम तीन पीढ़ियों से वह वनीय भूमि उनके कब्जे में थी।
ये कानून 31 दिसंबर 2005 से पहले कम से कम तीन पीढ़ियों तक वन भूमि पर रहने वालों लोगों को भूमि का अधिकार रखने का प्रावधान देता है। दावों की जांच जिला कलेक्टर की अध्यक्षता वाली समिति और वन विभाग के अधिकारियों के सदस्यों द्वारा की जाती है।
ऐसे लोगों की मध्य प्रदेश, कर्नाटक और ओडिशा में सबसे अधिक संख्या है, जिसमें अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनों के निवासियों (वन अधिकार कानून की मान्यता) अधिनियम-2006 के तहत भारत के वनों में रहने वालों द्वारा प्रस्तुत भूमि स्वामित्व के कुल दावों का 20% शामिल है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार द्वारा भारतीय वन अधिनियम-1927 के तहत वनवासियों के साथ किए गए ऐतिहासिक अन्याय को रद्द करने के लिए कानून बनाया गया था, जो पीढियों से रह रहे लोगों को भूमि पर “अतिक्रमण” करार देता था।
शीर्ष अदालत ने विशेष रूप से 17 राज्यों के मुख्य सचिवों को निर्देश जारी किए हैं कि उन सभी मामलों में जहां भूमि स्वामित्व के दावे खारिज कर दिए गए हैं, उन्हें 12 जुलाई 2019 तक बेदखल किया जाए। ऐसे मामलों में जहां सत्यापन/ पुन: सत्यापन/ पुनर्विचार किया जाना है वहां राज्य को चार महीने के भीतर प्रक्रिया पूरी करनी चाहिए और एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में अनुमानित 104 मिलियन आदिवासी हैं लेकिन सिविल सोसाइटी समूहों का अनुमान है कि वन क्षेत्रों में 1,70,000 गांवों में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों मिलाकर लगभग 200 मिलियन लोग हैं, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 22% हिस्सा कवर करते हैं।