अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने सिलसिलेवार ट्वीट कर 7 सितम्बर को तालिबान के साथ शान्ति वार्ता को रद्द कर दिया है। साथ ही उन्होंने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और तालिबानी नेताओं के साथ गुप्त बैठक को भी रद्द कर दिया था।
8 सितम्बर को उन्होंने कहा कि “उनके साथ वार्ता मर चुकी है। तालिबान ने इसके जवाब में कहा कि “वांशिगटन को वार्ता की तरफ पीठ दिखाने के निर्णय पर अफ़सोस होगा अफगानिस्तान में कब्जे को खत्म करने की वार्ता नहीं होगी तो वह जिहाद और लड़ाई जरी रखेंगे।”
तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहुल्लाह मुजाहिद ने कहा कि “अफगानिस्तान में कब्जे को खत्म करने के दो रास्ते हैं, एक जिहाद और दूसरा संघर्ष। अगर ट्रम्प वार्ता रोकना चाहते हैं तो हम पहला मार्ग चुनेगे और इसके बाद वे पछतायेंगे।” काबुल में हुए एक हमले में एक अमेरिकी सैनिक की मौत हो गयी थी और इसके बाद ट्वीट में डोनाल्ड ट्रम्प ने तत्काल वार्ता को रद्द का दिया था।
अमेरिका पर हुए 9/11 आतंकी हमले की 18 वीं सालगिरह से तीन दिन पहले तालिबानी नेताओं की मेजबानी डेविड कैंप पर अमेरिका के राष्ट्रपति की काफी आलोचना हुई थी। डेविड कैंप पर 2001 के हमले के दौरान अमेरिकी नेताओ को ले जाया गया था।
अमेरिका हमेशा से ही अफगानिस्तान की सरजमीं से बाहर निकलना चाहता था, बस एक बार अमेरिकी संपत्ति, सरजमीं पर तालिबानी हमले न होने की पुष्टि हो जाए। तालिबान सत्ता में वापस आना चाहता है लेकिन भय है कि वह अपने मूल सिद्धांतो पर अमल करेगा और 18 वर्ष की अफगानी तरक्की को तबाह कर देगा।
तालिबान लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से चयनित अफगानी सरकार को मान्यता नहीं देगा और सत्ता में जल्द वापस आने की कोशिश करेगा। अमेरिका और तालिबान के बीच नौ चरणों की वार्ता एक वर्ष में हो गयी है। सितम्बर के पहले हफ्ते में खलीलजाद ने अफगानी राष्ट्रपति से मुलाकात की थी और उनके साथ समझौते की जानकारी को साझा किया था।
अमेरिका अफगानिस्तान की सरजमीं से 5000 सैनिको को 135 दिनों में पांच ठिकानों से वापस बुला लेगा। इसके बदले मे तालिबान ने अलकायदा के साथ संबंधों को तोड़ने और अपनी सरजमीं पर आतंकवादियों को पनाह न देने का वादा किया था।
तालिबान के साथ वार्ता में अफगानी सरकार कभी साझेदार नहीं बना था और उनसे सीधे बातचीत से इनकार किया था. उन्हें अमेरिका के हाथो की कठपुतली बताया था। शुरुआत में अमेरिका ने कहा कि वह अफगान सरकार को इसका भाग बनाना चाहता है लेकिन तालिबान के इनकार के बाद अमेरिका ने तालिबान के साथ सीधे वार्ता पर रजामंदी जाहिर की थी। जुलाई में दो दिनों की आंतरिक अफगान वार्ता हुई थी लेकिन उनकी मांग थी कि अफगानी सरकार का कोई अभी अधिकारिक प्रतिनिधि इसमें शामिल नहीं होगा।
वार्ता के जारी होने के बावजूद तालिबान के आतंकी हमले जारी है। दोनों पक्षों की समझौते पर रजामंदी के बावजूद समूह ने काबुल में बमबारी को नहीं रोका है। अफगानिस्तान के मानव अधिकार परिषद् के प्रमुख अब्दुल समद अमेरि का तालिबान ने अपरहण कर लिया था।
अफगानिस्तान में भारत पांचवा सबसे बड़ा अनुदानकर्ता है और अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए तीन अरब डॉलर की मदद का संकल्प लिया है। नई दिल्ली इस समझौते को शान्ति संधि से ज्यादा सैनिको की वापसी के तौर पर देखता है। भारत को यह भय है कि अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी राजनयिकों, संपत्ति और विकास कार्यक्रमों के लिए खतरा उत्पन्न करेगी।
ऐसी चिंताएं भी है कि यह समझौता अफगानिस्तान को वापस गृह युद्ध की तरफ धकेल सकता है और भारत के खिलाफ जिहाद में पाकिस्तान को तीव्रता दे सकता है। अमेरिकी-अफगानी वार्ता पाकिस्तान के लिए निसंदेह एक अच्छा पैगाम है। ट्रम्प का ऐलान तब आया जब पाकिस्तान, चीन और अफगानिस्तान इस्लामाबाद में अमेरिका-तालिबान के समझौते के प्रभाव के भविष्य पर चर्चा कर रहे थे।
हालिया महीनों में पश्चिम की तरफ से महत्वता का पाकिस्तान ने लुत्फ़ उठाया था। इसमें कोई रहस्य नहीं है कि पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी और अन्य, तालिबान और अन्य आतंकवादी समूहों का इस्तेमाल अपनी राज्य नीति के लिए करते हैं। अमेरिका ने इस साल के शुरू में पाकिस्तान की सैन्य सहयता पर रोक लगा दी थी।
तालिबान ने कहा कि अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के खिलाफ लड़ाई जारी है। ट्रम्प ने कहा कि समझौता खत्म हो चुका है। अमेरिका ने बताया कि बीते 10 दिनों में उन्होंने 1000 तालिबानी सैनिको की हत्या की है। अफगानिस्तान ने दो बार राष्ट्रपति चुनावो को स्थगित किया है।