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    अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफगानिस्तान में बचे हुए सैनिकों की वापसी के लिए 11 सितंबर 2021 की डेटलाइन निश्चित की थी। शुक्रवार से अमेरिकी सेना की वापसी का कार्यक्रम की शुरुआत हो गयी। जिसके बाद अफगानिस्तान को अपनी सुरक्षा के लिए खुद की सेना के भरोसे रहना पड़ेगा। अमेरिका पिछले 20 साल में अफगानिस्तान में सैनिकों की मौजूदगी पर 2 ट्रिलियन डॉलर का खर्च कर चुका है। इस दौरान तालिबान के साथ जंग में 2300 अमेरिकी सैनिकों और डेढ़ लाख से ज्यादा अफगान नागरिकों की मौत हो चुकी है। इतना खर्च और कुर्बानी के बाद भी अमेरिका अपने घोषित दुश्मन तालिबान को हरा नहीं पाया।

    अमेरिकी फौज की वापसी का ऐलान करते हुए राष्ट्रपति जो बाइडन ने भारत और चीन समेत आसपास के शक्तिशाली देशों को अफगानिस्तान में अपनी भूमिका बढ़ाने का निमंत्रण दिया। पर, बड़ी बात यह है कि जिस तालिबान को दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति होने का दंभ भरने वाला अमेरिका नहीं हरा पाया, वहां बाकी देश क्या कर पाएंगे? सवाल यह भी उठ रहा है कि अफगानिस्तान में अमेरिका की जगह लेने के लिए भारत कितना तैयार है।

    दोहा समझौता

    डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में फरवरी 2020 को अमेरिका ने तालिबान के साथ एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और 14 माह के भीतर अपने सारे सैनिकों को वापस बुलाने की एक रूपरेखा भी पेश की थी।इस समझौते के साथ ही तालिबान और काबुल सरकार के बीच भी बातचीत की उम्मीद जगी थी जिससे 18 साल से चल रहे संघर्ष के भी खत्म होने के आसार थे। दोहा के एक आलीशान होटल में तालिबान के वार्ताकार मुल्ला बिरादर ने समझौते पर हस्ताक्षर किए थे वहीं दूसरी ओर से अमेरिका के वार्ताकार ज़लमय खलीलजाद ने हस्ताक्षर किए थे।

    यह समझौता अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ की देख रेख में हुआ था। उन्होंने अलकायदा से संबंध समाप्त करने की प्रतिबद्धता भी तालिबान को याद दिलाई। समझौता होने से पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान के लोगों को नए भविष्य के लिए बदलाव को अपनाने की अपील की थी।

    उन्होंने हस्ताक्षर कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर कहा था, ‘अगर तालिबान और अफगान सरकार अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा कर पाते हैं तो हम अफगानिस्तान में युद्ध खत्म करने की दिशा में मजबूती से आगे बढ़ सकेंगे और अपने सैनिकों को घर वापस ला पाएंगे।” नाटो के महासचिव जेन्स स्टोल्टनबर्ग ने समझौते को ‘स्थाई शांति की दिशा में पहला कदम’ करार दिया।

    समझौते के मुख्य बिंदु

    इस समझौते के तहत अमेरिका अगले 14 महीने में अफगानिस्तान से अपने सभी सैन्य बलों को वापस बुलाना था। इस समझौते के दौरान भारत समेत दुनियाभर के 30 देशों के प्रतिनिधि मौजूद रहे। समझौते के अनुसार, अफगानिस्तान में मौजूद अपने सैनिकों की संख्या में अमेरिका धीरे-धीरे कमी लाना था। इसके तहत अग्रिम छह माह में करीब 8,600 सैनिकों को वापस अमेरिका भेजा जाना था।

    अमेरिका अपनी ओर से अफगानिस्तान के सैन्य बलों को सैन्य साजो-सामान देने के साथ प्रशिक्षित भी करेगा, ताकि वह भविष्य में आंतरिक और बाहरी हमलों से खुद के बचाव में पूरी तरह से सक्षम हो सकें। तालिबान ने इस समझौते के तहत बदले में अमेरिका को भरोसा दिलाया है कि वह अलकायदा और दूसरे विदेशी आतंकवादी समूहों से अपने संबंध समाप्त कर देगा।

    अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री मार्क एस्पर ने कहा था कि अगर तालिबान सुरक्षा गांरटी से इनकार करता है और अफगानिस्तान की सरकार के साथ वार्ता की प्रतिबद्धता से पीछे हटता है तो अमेरिका उसके साथ ऐतिहासिक समझौते को खत्म कर देगा।

    अमेरिका की जगह लेने के लिए भारत कितना तैयार

    जमीनी हालात को देखने पर यह साफ होता है कि भारत चाहकर भी अफगानिस्तान में अमेरिका की जगह नहीं ले सकता है। वर्तमान में अफगानिस्तान में सत्ता और शक्ति के दो ध्रुव हैं, पहला चुनी हुई सरकार और दूसरा तालिबान। भारत चुनी हुई सरकार के साथ पिछले 20 सालों से काम कर रहा है। वहां की संसद के निर्माण से लेकर डैम और सड़कें बनाने तक कई परियोजनाओं में भारतीय इंजिनियर और पैसा लगा हुआ है। लेकिन, तालिबान के साथ भारत का कभी भी रिश्ता नहीं रहा है। वहीं, पाकिस्तान और तालिबान का गठजोड़ जगजाहिर है।

    ऐसे में अमेरिकी फौज की वापसी से ताकतवर होते तालिबान को छोड़कर भारत अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका नहीं निभा सकता है। भारत सरकार और रणनीतिकारों की नजर अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी के बाद पैदा होने वाली परिस्थितियों पर टिकी हुई है। अगर, तालिबान को भारत के साथ अच्छे संबंध बनाने की इच्छा होगी तो उसके पाकिस्तान के साथ रिश्तों में कड़वाहट आ सकती है। ऐसे में देखने वाली बात होगी कि क्या तालिबान अपने पुराने दोस्त पाकिस्तान की कीमत पर भारत से दोस्ती करना चाहेगा कि नहीं। कई रिपोर्ट्स में बताया गया है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई तालिबान को हथियार और पैसे की सप्लाई करती है। ऐसे में जब तालिबान की ताकत बढ़ेगी तो पाकिस्तान के हित में भारतीय प्रोजक्ट को नुकसान पहुंच सकता है।

    भारत की कई परियोजनाओं को हो सकता है भारी नुकसान

    अगर अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की पूरी वापसी हो जाती है तो इससे भारत को नुकसान पहुंच सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार, अगर अफगानिस्तान में तालिबान मजबूत होता है तो यह भारत के लिए चिंता का विषय होगा। तालिबान पारंपरिक रूप से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का करीबी है। ऐसे में अगर तालिबान सत्ता में आता है या मजबूत होता है तो वह पाकिस्तान के कहने पर भारत के हितों को नुकसान पहुंचा सकता है। अफगानिस्तान को विकसित करने के लिए भारत ने अरबों डॉलर का निवेश किया है।

    रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने अफगानिस्तान को अबतक 3 अरब डॉलर से ज्यादा की सहायता दी है। जिससे वहां की संसद भवन, सड़कों और बांधों का निर्माण किया गया है। भारत अब भी 116 सामुदायिक विकास की परियोजनाओं पर काम कर रहा है। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, रिन्यूएबल एनर्जी, खेल और प्रशासनिक ढांचे का निर्माण भी शामिल हैं। भारत काबुल के लिये शहतूत बांध और पेयजल परियोजना पर भी काम कर रहा है।

    आगे की राह

    तेज़ी से बदलते अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के दौर में भारत के लिये यह अनिवार्य हो जाता है कि अफगानिस्तान जैसे देशों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत किया जाए। भारत को अपनी सुरक्षा ज़रूरतों की समीक्षा कर भारतीय उपमहाद्वीप की सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए एक निर्णायक भूमिका में आना होगा। अमेरिका द्वारा क्षेत्र में शांति की प्रक्रिया को बहाल रखने के लिये अमेरिकी सैन्य बलों को सीमित संख्या में तैनात रखना चाहिये। तालिबान के साथ बातचीत करने के लिये संवाद का प्रत्यक्ष तंत्र विकसित करना चाहिये।

    By आदित्य सिंह

    दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास का छात्र। खासतौर पर इतिहास, साहित्य और राजनीति में रुचि।

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