बस दो दिन रह गए हैं राजस्थान चुनाव के लिए वोटिंग में। जयपुर में सुबह सूरज की पहली किरण के साथ चाय दुकानों पर चाय की चुस्कियों के साथ राजनीति पर चर्चा शुरू हो जाती है। हमें भी सामने एक चाय दूकान दिखी जहाँ लोगों की भीड़ थी। एक हाथ में अखबार और एक हाथ में चाय का ग्लास लिए लोग चुनाव पर चर्चा कर रहे थे। कुछ कांग्रेस के समर्थक थे और कुछ वसुंधरा के समर्थक। हम भी उस दूकान में चले गए। एक चाय लिया और लोगों की बातों में सम्मलित होते हुए पूछ लिया “लगता है इस बार कांग्रेस ही आएगी।”
चाय दूकान वाले ने (मीडिया से हो तो नाम नहीं लिखना बाबू) कह कर कहा “मैं तो कमल के फूल को वोट दूंगा। जब से वोट डालने लायक हुआ हूँ तभी से कमल के फूल को ही वोट दे रहा हूँ। ये मेरा विश्वास है, मेरी आस्था है।”
साथ ही वो एक और बात कहता है जिसे हम भी महसूस कर रहे थे अपने राजस्थान प्रवास के दौरान। उसने कहा “लेकिन इस चुनाव में मुद्दा तो कुछ और ही है। मुद्दा ये है कि वसुंधरा को एक और मौका दिया जाए या नहीं।”
कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा नहीं की। ऐसे में इस बार राज्य के चुनावी परिदृश्य में सिर्फ ही मुख्यमंत्री का चेहरा घूम रहा है और वो है “वसुंधरा राजे सिंधिया। और सारे मुद्दों को दरकिनार कर के इस चुनाव में एक ही मुद्दा है “वसुंधरा हाँ या वसुंधरा ना”
दरअसल ये सिर्फ राजस्थान की राजनितिक प्रवृति नहीं है। पश्चिम और मध्य भारत में पिछले डेढ़-दो दशक से भाजपा शासित राज्यों में यही प्रवृति बनी हुई है। मध्य प्रदेश में सारे मुद्दों को पीछे छोड़ मुख्य मुद्दा “शिवराज चौहान हाँ या शिवराज चौहान ना” और छतीसगढ़ में “रमण हाँ या रमण ना” हो जाता है। गुजरात में पिछले डॉ दशक से भाजपा सत्ता में हैं। जब तक नरेंद्र मोदी थे सत्ता और विपक्ष दोनों पार्टियों के मुख्य मुद्दा मोदी होते हैं और चर्चा होती थी “मोदी हाँ या मोदी ना”. मोदी के केंद्र में जाने के बाद भी कांग्रेस भाजपा को सत्ता से हटा नहीं पाई।
राजस्थान में राजे पहली बार 2003 में चुनी गई उसके बाद हर 5 साल बाद सत्ता में आती जाती रही। मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ से राजस्थान का चुनाव अलग है। जहाँ शिवराज और रमन सिंह के केन्द्रीय नेतृत्व से काफी अच्छे सम्बन्ध हैं वहीँ वसुंधरा और केन्द्रीय नेतृत्व के बीच सब कुछ ठीक नहीं चला रहा। वसुन्धरा और आरएसएस के बीच भी संबंधो में खटास आ गई।
राजनीति में अवधारणा का बहुत महत्त्व होता है। एक बार किसी के साथ कोई धारणा जुड़ गई तो वो लम्बे समय तक उसके साथ रहता है। वसुंधरा के लिए भी अहंकारी और महारानी जैसी धारणा जुड़ गई। विपक्ष ने इस अवधारण का इस्तमाल वसुंधरा के खिलाफ एक हथियार के लिए किया।
अपने संगठनात्मक ताकत के लिए जानी जाने वाली पार्टी इस बार विपक्षी पार्टी के बीच गुटबाजी और आपसी लड़ाई पर निर्भर हो गई है और सत्ता विरोधी लहर के बीच प्रधानमंत्री के साहारे अपनी चुनावी नैया पार लगाने की कोशिश कर रही है।
भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी दिवाली के बाद सी ही जयपुर में कैम्प कर रहे हैं और दावा करते हैं कि पिछले एक महीने में भाजपा ने अपनी खोई जमीन को काफी हद तक हासिल किया है। वो कहते हैं “अगर हम जीते तो लोगों को पता है कि हमारा मुख्यमंत्री कौन होगा लेकिन अगर कांग्रेस को अपनी जीत का इतना ही भरोसा है तो वो अपना मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित क्यों नहीं करती?”
मुख्यमंत्री के साथ नजदीक से काम करने वाले कहते हैं कि वह (वसुंधरा) पितृसत्तात्मक समाज में निहित पूर्वाग्रहों द्वारा रचित धारणाओं का शिकार हो गई हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि प्रशासन में निचले स्तर के अधिकारियों की गलती के कारण लोगों को सरकार की अच्छी योजनाओं का फायदा नहीं मिल सका। “यही तहसीलदार या डॉक्टर भी लोगों की बात अनसुना करते हैं तो उसका ठीकरा भी मुख्यमंत्री कार्यालय पर फोड़ दिया जाता है।
एक पार्टी नेता का कहना है कि वो काम करती है लेकिन वो उस काम की पब्लिसिटी नहीं कर पाती या पब्लिसिटी करने की इच्छा नहीं रखती। जबकि आज के समय में जो दीखता है वही बिकता है की अवधारणा काम करती है।
आखिरकार राजनीति में अवधारणा का काफी महत्त्व है। अगर आप काम नहीं कर रहे लेकिन आपने जनता के मन ये अवधारण बनाने में सफलता हासिल कर ली कि आपने कम किया है तो आपकी राह आसान हो जाती है। वोटर के लिए अवधारणा ही सच्चाई है।