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    भारत-श्रीलंका सम्बन्ध

    भारत व श्रीलंका सम्बन्धों पर श्रीलंका में चले 30 साल लंबे गृह युद्ध ने गहरा असर डाला है। इससे दोनों के बीच रिश्ते ऊपर-नीचे होते रहे। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तौर पर दोनों देश करीबी हैं और भारत के साथ श्रीलंका के सम्बन्ध 2500 साल से भी ज़्यादा पुराने हैं।

    इस लेख के ज़रिये हम दोनों देशों के बीच सम्बन्ध को गहराई से जानने की कोशिश करेंगे।

    इतिहास:

    श्रीलंका के प्राचीन अभिलेख दीपवामसा के अनुसार, बौद्ध धर्म को भारतीय महाराजा अशोक के बेटे महिंदा ने चौथे इसा पूर्व में पहली बार  श्रीलंका में लाया। उस वक्त श्रीलंका में राजा देवनामपिया तिस्सा का शासनकाल था। उस दौरान एक बोधि वृक्ष को श्रीलंका लाया गया और बौद्ध स्मारकों व मठों की स्थापना की गई। आज बौद्ध राष्ट्रों में श्रीलंका का सबसे लंबा निरंतर इतिहास रहा है।

    श्रीलंका में रह रहे अधिकांश तमिल जनसंख्या के वंशज भी आज भारत से हैं।

    इन करीबी सांस्कृतिक सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए, भारत और श्रीलंका सरकार के बीच 29 नवंबर,1977 को सांस्कृतिक सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर हुए। कोलंबो स्थित भारतीय सांस्क्रतिक केंद्र विभिन्न गतिविधियों के तहत भारतीय संस्कृति के प्रति जागरुकता फ़ैलाता है। इनमें भारतीय संगीत, नृत्य, योग एवं हिंदी भाषा की कक्षाएं शामिल हैं।

    श्रीलंका का गृह युद्ध और भारत की भूमिका:

    1948 में ब्रिटेन से आज़ादी के बाद श्रीलंका में सिंहली बहुल सरकार ने सत्ता सम्भाली। उसने कुछ ऐसे कानूनों को पारित किया जिन्हें श्रीलंका की तमिल जनसंख्या ने अपने खिलाफ भेदभावपूर्ण पाया।

    इसके बाद, 1970 के दशक में दो बड़ी तमिल पार्टियों ने मिलकर एक तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट (टीयूएलएफ) का गठन किया जिसकी मांग श्रीलंका के दक्षिणी और पूर्वी हिस्से में स्वायत्त तमिल ईलम (राज्य) की थी। 1983 में सरकार ने संसद में ऐसा कानून पास किया जिससे किसी भी प्रकार के अलगाववाद को असंवैधानिक करार दे दिया गया। इससे टीयूएलएफ का कोई महत्व नहीं रह गया।

    श्रीलंका गृहयुद्ध
    श्रीलंका गृहयुद्ध

    जल्द ही कट्टर ताकतों ने सरकार के खिलाफ़ जंग छेड़ दी जिससे कि यह जातीय संघर्ष हिंसात्मक रूप लेते हुए गृह युद्ध में तब्दील हो गया।

    भारत को इस गृह युद्ध से कई खतरे थे। क्षेत्र से बाहर की ताकतें श्रीलंका में अपने सैनिक अड्डे स्थापित कर सकती थीं और इनका भारत के बिलकुल पड़ोस में होना सामरिक रूप से भारत के लिए खतरा था। इसके अलावा अलग तमिल ईलम का सपना भारत की भी एकता के लिए खतरा हो सकता था।

    हालांकि शुरुआत में भारत की इंदिरा गाँधी सरकार और फिर राजीव गाँधी की सरकार ने तमिल ईलम के लिए आंदोलन का समर्थन जताया था। इसकी वजह राजनैतिक थी क्योंकि दक्षिण भारत में तमिलों की बड़ी संख्या मौजूद थी। भारत ने इस दौरान गुरिल्ला लड़ाई के लिए चल रहे ट्रेनिंग कैंप के संचालन में सहयोग भी दिया। इन गुरिल्ला लड़ाकों में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे) सबसे मज़बूत था।

    जुलाई 1983 में तमिलों के खिलाफ हुए दंगों ने आग और भड़का दी और इससे आंदोलन और अधिक हिंसात्मक हो गया। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या से भारत का आंदोलन के प्रति समर्थन में कमी आई। इसके बाद राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने गुप्त तरीके से आंदोलन को भारतीय मदद जारी तो रखी पर राजनयिक रास्ते से मामले को सुलझाने के लिए कोशिशें भी बढ़ा दीं।

    पाकिस्तान, इज़राइल, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों से श्रीलंका सरकार हथियारों की आपूर्ति कर रही थी। जिससे उसने अपने आप को तमिल उग्रवादियों के खिलाफ एक हिंसक लड़ाई के लिए तैयार किया। श्रीलंकाई सेना ने ऑपरेशन लिबरेशन के तहत हवाई बम्बारी, हेलिकॉप्टर, और 4 हज़ार सैनिकों की मदद से श्रीलंका के जाफना प्रायद्वीप में लिट्टे के खिलाफ़ लड़ाई तेज़ कर दी गई।

    जैसे-जैसे आम लोगों के इस लड़ाई से हताहत होने की संख्या बढ़ी, भारत सरकार के ऊपर इस संकट पर हस्तक्षेप करने की मांग भी बढ़ने लगी। भारत ने इसके लिए श्रीलंका सरकार पर कार्रवाई रोकने की अपील की जिससे किसी तरह के राजनैतिक बयान के ऊपर दोनों पक्षों के बीच बातचीत शुरू हो सके। बातचीत के आगे न बढ़ पाने के बाद भारत ने 2 जून 1987 को घोषणा की कि उसके नौसैनिक जहाज़ का एक बेड़ा बिना हथियारों के मानवीय सहायता के लिए श्रीलंका भेजा जायेगा। मगर इन जहाजों को श्रीलंका की समुद्री सीमा में घुसने से रोक दिया गया।

    इस नौसैनिक मिशन के नाकाम होने के बाद भारत ने अपनी वायु सेना की मदद से जाफना क्षेत्र में रसद गिरानी शुरू कर दी। श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति जे आर जयवर्धने ने देश में लगातार बिगड़ते हालात और भारत के युद्ध में हस्तक्षेप के बाद भारत सरकार के साथ बातचीत शुरू कर दी और 29 जुलाई 1987 को भारत-श्रीलंका समझौते पर सहमती बनी जिससे इस क्षेत्र में कुछ समय के लिए शांति बहाल हो सकी।

    राजीव गाँधी भारत-श्रीलंका

    इस समझौते के तहत श्रीलंका सरकार को कुछ तमिल बाहुल इलाकों को एक तय सीमा तक स्वायत्ता देने के लिए तैयार हुई वहीँ इसके बदले उग्रवादी संगठनों को अपने हथियारों का समर्पण करना था। इसकी निगरानी के लिए भारतीय शांति रक्षा सेना (आईपीकेएफ) की तैनाती पर भी सहमती बनी। इस समझौते की बातचीत में अधिकतर तमिल उग्रवादी संगठन शामिल थे मगर सबसे ताकतवर समूह लिट्टे नहीं। लिट्टे ने उत्तरी और पूर्वी राज्यों के संयुक्त प्रशासनिक अधिकारी के पद के लिए एक दूसरे संगठन के प्रत्याशी को मानने से इंकार कर दिया और अपनी तरफ़ से तीन नामों को सामने रखा।

    इन नामों की मंजूरी आईपीकेएफ ने नहीं दी और लिट्टे ने अपने हथियारों के समर्पण से इंकार कर दिया। जल्द ही आईपीकेएफ ने अपने आप को लिट्टे के साथ जंग में शामिल पाया जब 8 अक्टूबर को पांच भारतीय कमांडो की हत्या कर दी गई। इसके जवाब में भारत सरकार ने लिट्टे के खिलाफ शक्ति का इस्तेमाल करने का फैसला किया और इससे लिट्टे-आईपीकेएफ के बीच एक बेहद हिंसात्मक लड़ाई शुरू हो गई।

    इस लड़ाई की वजह से हुई आम जनों की हानि ने भारतीय बलों को श्रीलंका में अलोकप्रिय बना दिया और साथ ही तब के श्रीलंका के राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदास ने गुप्त तरीके से लिट्टे को हथियारों और पैसों की मदद दी। श्रीलंका के लोगों की नाराज़गी और राष्ट्रपति प्रेमदास की आईपीकेएफ के वापसी की मांग से इस भारतीय सेना बल को मार्च 1990 तक पूरी तरह वापस बुला लिया गया।

    बलों की वापसी से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सम्बन्धों में सुधार देखा गया। 21 मई 1991 को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की तमिल नाडू के श्रीपेरम्बदूर में रैली के दौरान मानव बम से हत्या कर दी गई जिसका आरोप लिट्टे पर गया। इस घटना के बाद भारत ने लिट्टे को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया।

    भारत ने दोबारा श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ लड़ाई में शामिल होने से इंकार कर दिया और शांति के रास्ते इस समस्या का हल निकालने की अपील की।

    आखिरकार मई 2009 में श्रीलंकाई गृह युद्ध समाप्त हुआ जब 26 साल की लड़ाई के बाद श्रीलंका की सेना ने लिट्टे के संस्थापक और नेता वी प्रभाकरण को मार गिराया।

    व्यापार:

    सार्क देशों में श्रीलंका, भारत के सबसे बड़े व्यापार साझेदार में से एक है। वहीँ श्रीलंका के लिए भारत सबसे बड़ा व्यापार साथी है। दोनों देशों के बीच व्यापार ने साल 2000 में हुए मुक्त व्यापार समझौते के बाद तेज़ वृद्धि देखी है।

    2015 के आंकड़ों के मुताबिक दोनों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 4.7 बिलियन डॉलर रहा। इसमें भारत की तरफ़ से 4.1 बिलियन डॉलर का निर्यात किया गया और 645 मिलियन डॉलर का आयात श्रीलंका की तरफ़ से भारत आया।

    भारत ने श्रीलंका में 2003 के बाद से लगभग 1 बिलियन डॉलर का निवेश किया है। यह निवेश विभिन्न क्षेत्रों में किये गए हैं जिनमें पेट्रोलियम, आईटी, वित्तीय सेवा, दूरसंचार और बुनियादे ढांचे से जुड़े विकास मुख्य हैं।

    निवेश के कई नए प्रोजेक्ट इस वक्त क्रियान्वन के दौर में है। इनमें साउथ सिटी, कोलकाता का कोलंबो में 400 मिलियन डॉलर का हाउसिंग प्रोजेक्ट, टाटा हाउसिंग का श्रीलंका के शहरी विकास प्राधिकरण के साथ 430 मिलियन डॉलर लागत का प्रोजेक्ट और आईटीसी का 300 मिलियन डॉलर का प्रोजेक्ट नामी हैं। भारतीय कंपनी डाबर ने 2013 में श्रीलंका में 13 मिलियन डॉलर का फ्रूट जूस का संयंत्र स्थापित किया।

    भारत ने श्रीलंका को 2.6 बिलियन डॉलर की क्रेडिट लाइन उपलब्ध कराने का वादा किया है। इनमें 436 मिलियन डॉलर की अनुदान राशि शामिल है एवं 167.4 मिलियन डॉलर की मदद से कोलंबो-मटारा रेल लाइन को सुधारा और अपग्रेड किया जा चुका है जिसे सुनामी के दौरान नुकसान पहुंचा था। 800 मिलियन डॉलर की एक और क्रेडिट लाइन से उत्तरी श्रीलंका में रेल लाइन का विकास कार्य किया जाना है।

    भारत श्रीलंका में शिक्षा, स्वास्थ्य, लघु एवं मध्यम उद्यम जैसे क्षेत्रों के विकास में भी अपनी भूमिका निभा रहा है।

    राजनैतिक सम्बन्ध

    दोनों देशों के बीच राजनैतिक सम्बन्ध काफी सालों से चलते आ रहे हैं। हाल ही में श्रीलंका के विदेश मंत्री मंगला समरवीरा नें जनवरी 2015 में भारत का दौरा किया था। इससे पहले श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे नें भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण कार्यक्रम में शिरकत की थी।

    सुषमा स्वराज समरवीरा भारत श्रीलंका

    भारतीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल नें भी श्रीलंका का दौरा कर दोनों देशों की रक्षा साझेदारी को मजबूत किया था।

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