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    संत रैदास

    संत रैदास के जन्म के सटीक वर्ष को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इतिहासकार संत रविदास का जन्म 1482-1527 ई. के बीच मानते हैं, परन्तु कुछ लोग इनका जन्म 1398 ई. में मानते हैं। संत रैदास का जन्म माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था, चूंकि उस दिन रविवार था इसलिए संत रैदास एक दूसरे नाम रविदास के नाम से भी जाने जाते हैं।

    संत कवि रविदास जी का जन्म काशी के सीरगोवर्धनपुर में एक चर्मकार कुल में हुआ था। इनके पिता रग्घु और माता घुरविनिया चर्मकार का ही काम करते थे। अपने पिता के पेशे को संत रैदास ने सहर्ष स्वीकार किया। संत रैदास अपने कार्य को बहुत लगन और परिश्रम से पूरा करते थे, इनके व्यवहार से लोग काफी प्रसन्न रहा करते थे।

    संत रैदास बनाते थे चमड़े के जूते

    संस्कृत शब्द ‘चर्मकार’ का अपभ्रंश होते होते ‘चम्‍म-आर’ यानि चमार हो गया। दरअसल चर्म शब्द की उत्पत्ति ‘चर’ धातु से बनी है। चर धातु से चरसा शब्द बना हुआ है जो आज भी गाय, बैल व भैंस वगैरा के चमड़े के लिए प्रयुक्‍त होता है। संत रैदास अपने पिता के चर्मकार व्यवसाय को अपनाते हुए चमड़े के जूते (काशी की स्थानीय भाषा पनही) बनाने और मरम्मत का काम करते थे।

    स्वयं संत रैदासजी के शब्दों में-
    जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।
    नीचे से प्रभु ऊंच कियो है, कह रविदास चमारा।।

    संत रैदास या रविदास का जन्म मध्य युग के उस दौर में हुआ था जब निचली जाति के लोगों को उच्च जाति के लोगों से प्रताड़ित होना पड़ता था। विशेषकर ब्राह्मणों की पाशविक मनोवृत्ति का शिकार सबसे ज्यादा दलित जाति के लोग ही हुआ करते थे। उस दौर में संत रैदास ने जन्म लेकर समाज में विष की तरह फैल रहे जाति, वर्ग और धर्म की खाई को मिटाने का आजीवन प्रयास किया।

    संत रैदास की समाज समरसता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं…

    प्रभुजी तुम चंदन हम पानी।
    जाकी अंग अंग वास समानी।।
    प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा।
    जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।।
    प्रभुजी तुम दीपक हम बाती।
    जाकी जोति बरै दिन राती।।
    प्रभुजी तुम मोती हम धागा।
    जैसे सोनहि मिलत सुहागा।।
    प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा।
    ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

    झाला रानी के गुरू संत रैदास

    राणा सांगा की पत्नी झाली रानी के गुरू

    वैसे तो संत रैदास की अनेकों कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज है, लेकिन आज बात कर रहे हैं राणा सांगा की पत्नी झाली रानी के बारे जो संत रैदास की शिष्या थीं। राणा सांगा या​नि महाराणा संग्राम सिंह का नाम जुबां पर आते ही राजस्थानी शौर्य और हिंदुत्व शिरमौर्य की एक अद्भुत झलक सामने​ दिखने लगती है।

    राणा सांगा ने मेवाड़ पर 1509 से 1527 तक शासन किया। उनका नाम मध्यकालीन शासकों में सबसे शक्तिशाली शासक के रूप में शुमार किया जाता है। सांगा के शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि के शिखर पर था। महाराणा सांगा की कुल 28 रानियां थीं जिसमें एक नाम रानी झाली का भी आता है।

    राणा सांगा से इतर हम इस बात पर ज्यादा जोर देना चाहते हैं कि मध्य युग के इस शक्तिशाली राजा की पत्नी झाली रानी द्वारा एक दलित संत को अपना गुरू बनाना जातिगत सौहार्द्र की एक मिशाल है, और सबसे बड़ी बात की पूरे सिसोदिया परिवार ने एकमत से संत रैदास को श्रद्धाभाव से स्वीकार किया।

    राजस्थान के ब्राह्मणों ने किया था संत रविदास का विरोध

    संत केवल संत होते हैं, उनकी कोई जाति नहीं होती है। इसीलिए महाराणा सांगा की पत्नी झाली रानी ने 1567-68 में काशी जाकर संत रविदास का अपना गुरू स्वीकार किया। चित्तौड़ के राणा सांगा परिवार ने एक आश्रम बनवाकर संत रैदास को भेंट दिया। रानी झाली के निवेदन के पश्चात संत रैदास मेवाड़ आए।

    संत रैदास की उपस्थिति में ही रानी झाली ने अपने बेटे कुंवर भोजराज की शादी मीराबाई से हुई थी। कहते हैं जब संत रैदास ने शादी के वक्त महल में बतौर अतिथि प्रवेश किया तो राजस्थान के ब्राह्मणों ने इनका विरोध किया। लेकिन रानी झाली ने संत रैदास का स्वागत पालकी पर किया।

    यह दृश्य देखकर ब्राह्मणों ने कहा कि यदि तुम्हारे गुरू में शक्ति है तो अपनी शक्ति का प्रमाण दें। संत रैदास ने मीरा और रानी झाली को कहा कि अपनी आंखे बंद कर लो सब ठीक हो जाएगा। इसके बाद दरबार में बैठे हर एक के बाद एक ब्राह्मण को हर जगह केवल संत रैदास ही दिखाई देने लगे। ब्राह्मणों ने यह दृश्य देखकर एक मत से स्वीकार कर लिया कि संत रैदास कोई मामूली संत नहीं हैं।
    राणा सांगा की मृत्यु के बाद विधवा रानी झाली का जीवन किस प्रकार बीता, यह अभी भी शोध का विषय है।